सड़कों पर बहुत कुत्‍ते हैं, इनकी नसबंदी जरूरी है

इस शीर्षक को पढ़ने के बाद आप यह मत सोचने लगिएगा कि मैं आज कठुआ या उन्‍नाव को लेकर कुछ लिखना चाहता हूं। हालांकि इस बात से कोई इनकार कर ही नहीं सकता कि कठुआ या उन्‍नाव में जो कुछ हुआ वह इंसानियत से कोसों दूर खालिस ‘कुत्‍तई’ ही है, लेकिन उस विषय पर, मैं फिर कभी लिखूंगा, आज तो बात सिर्फ और सिर्फ उन कुत्‍तों की जो जन्‍मजात कुत्‍ते हैं। ऐसे कुत्‍ते जो इंसान से कुत्‍तों में तब्‍दील नहीं हुए हैं बल्कि कुत्‍ते होकर ही इंसानों के लिए जानलेवा खतरों का सबब बने हुए हैं।

मैंने पिछले दिनों जिस ममता की कहानी आपको सुनाई उसके साथ मूल रूप से जो घटना घटी थी उसके बारे में जानना इसलिए जरूरी है कि वैसी घटना किसी के भी साथ घट सकती है। जैसाकि उसकी मौत के बाद कुछ लोगों के जरिए हमें पता चला, हुआ यूं था कि ममता सहज भाव में गली के एक कुत्‍ते को रोटी खिला रही थी। और उसी दौरान उसने ममता के हाथ पर काट लिया। इसके बाद उसने कथित रूप से लापरवाही बरती जो अंतत: उसके लिए जानलेवा साबित हुई।

अब इस घटना को गहराई से देखें तो हम पाएंगे कि ऐसा तो गांवों, कस्‍बों, शहरों, गली कूचों में रोज ही होता है। खासतौर से महिलाएं और बच्‍चे या तो अकसर गली के कुत्‍तों के साथ खेलते रहते हैं या फिर उन्‍हें कुछ न कुछ खिलाते पिलाते रहते हैं। ऐसा करते समय यह पहचानना बहुत मुश्किल होता है कि कौनसा कुत्‍ता रेबीज से पीडि़त है और कौनसा नहीं। ऐसे में यदि किसी कुत्‍ते को रेबीज है तो जाहिर है वह जिंदा बम की तरह है।

रेबीज ऐसी बीमारी है जिसमें कुत्‍ता हो या इंसान, यदि समय रहते उपचार नहीं लिया गया तो मौत निश्चित है। इसीलिए आपको याद होगा कि कुत्‍ता काटने के बाद पुराने लोग कहा करते थे कि कुत्‍ते को रोटी, दूध या कुछ और खिलाते रहो। ऐसा इसलिए था ताकि उस कुत्‍ते पर नजर रखी जा सके। यदि इंसान को काटने के बाद कुत्‍ता मर जाता है तो तय है कि उसे रेबीज थी। ऐसे में उसके द्वारा काटे गए इंसान में भी रेबीज के होने की पूरी आशंका रहती है।

ममता की कहानी पढ़ने के बाद कई लोगों ने अपने अपने इलाकों में आवारा कुत्‍तों के आतंक की बात मुझसे शेयर की है। पाठकों का कहना है कि यह इतनी गंभीर समस्‍या है लेकिन इसकी तरफ कोई खास ध्‍यान नहीं दिया जा रहा। सरकार दावा जरूर करती है लेकिन कुत्‍ता काटने पर लगाए जाने वाले एंटी रेबीज इंजेक्‍शन की भी अस्‍पतालों में भारी किल्‍लत है। प्राइवेट तौर पर ये काफी मंहगे होने के कारण लोग इन्‍हें लगवाने से कतराते हैं और इस तरह खुद की जान खतरे में डाल लेते हैं।

जरूरत इस बात की है कि गली मोहल्‍लों में चलती फिरती मौत की तरह घूम रहे इन आवारा कुत्‍तों की संख्‍या को हर सूरत में नियंत्रित किया जाए। राजधानी भोपाल में शायद ही कोई ऐसा मोहल्‍ला या बस्‍ती बची हो जो आवारा कुत्‍तों के आतंक से पीडि़त न हो। यही हाल प्रदेश के बाकी शहरों का है। खासतौर से बच्‍चे, बुजुर्ग और महिलाएं इनके आसान शिकार हैं। भोपाल में इसी साल फरवरी में जो घटना हुई, आवारा कुत्‍तों के खूंखार खतरे का उससे बड़ा कोई उदाहरण नहीं हो सकता।

उस घटना में राजधानी की एक बस्‍ती में घर के बाहर खेलने निकले डेढ़ साल के बच्‍चे पर कुत्‍तों ने हमला कर दिया था। उन्‍होंने न सिर्फ बच्‍चे को घायल किया बल्कि वे उसे घसीटते हुए दूर तक ले गए। पड़ोसी की सूचना पर जब बच्‍चे के घरवाले वहां पहुंचे तो कुत्‍ते खून से लथपथ बच्‍चे के शरीर को नोच रहे थे। लेकिन इतनी गंभीर घटना के बाद भी भोपाल में आवारा कुत्‍तों का आतंक कम नहीं हुआ है।

उस घटना के बाद ही राजधानी के एक अखबार में खबर छपी थी कि आवारा पशु पकड़ने वाले दस्ते के मुताबिक एक साल में ज्‍यादा से ज्‍यादा छह हजार कुत्ते ही पकड़े जा सकते हैं। जबकि एनिमल बर्थ कंट्रोल में कागजों पर प्रतिवर्ष 17 हजार कुत्तों की नसबंदी कर दी गई। खुद एनिमल बर्थ कंट्रोल के प्रभारी ने माना था कि राजधानी में 70 हजार कुत्ते ऐसे हैं जिनकी नसबंदी नहीं हुई है। इस काम में अभी कम से कम पांच साल का वक्त लगेगा।

आवारा और रेबीज के वाहक कुत्‍तों को लेकर दो बड़ी दिक्‍कतें हैं। एक दिक्‍कत यह है कि नियमानुसार कुत्‍तों को मारा नहीं जा सकता। इस बाध्‍यता के चलते नगरीय निकायों ने कुत्‍तों की नसबंदी करने का तरीका निकाला है। लेकिन उसमें भी बड़ा झोल है। वहां नसबंदी के नाम पर कुछ कुत्‍तों को पकड़कर उनके आर्गन सुरक्षित रख लिए जाते हैं। एक ही कुत्‍ते के ऐसे आर्गन्‍स को दो-दो तीन-तीन बार दिखाकर पेमेंट ले लिए जाने की भी शिकायतें हैं। यानी कुत्‍तों की नसबंदी भी भ्रष्‍टाचार का एक बड़ा जरिया बन गई है।

जानकारों का कहना है कि यदि कुत्‍तों की नसबंदी की ही जा रही है तो उनके आर्गन्‍स को जमीन में गाड़ने के बजाय जलाकर नष्‍ट किया जाना चाहिए। इसके साथ ही झूठे दावे और भ्रष्‍टाचार रोकने के लिहाज से इस पूरी प्रक्रिया की वीडियोग्राफी भी करवाई जानी चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होता नसबंदी के नाम पर भ्रष्‍टाचार का यह खेल जारी रहेगा और लोगों की जान पर खतरा भी बना रहेगा।

दूसरी बड़ी मुसीबत पेट लवर्स हैं। निगम अधिकारियों का कहना है कि जब भी ऐसे कुत्‍तों को पकड़ने या उन्‍हें खत्‍म करने का अभियान चलाया जाता है पेट लवर्स की संस्‍थाएं उसका विरोध करते हुए आड़े आ जाती हैं। ऐसे में किसी झंझट से बचने के लिए निगम या संबंधित संस्‍था का अमला बिना कार्रवाई किए लौट आता है।

इन हालात को देखते हुए समस्‍या का एकमात्र हल यही है कि खुद जनता में से ही लोग आवारा कुत्‍तों की समस्‍या के निदान के लिए खड़े हों। पशुओं पर अत्‍याचार न होने देना अच्‍छी बात है लेकिन जब ये कुत्‍ते एक जानलेवा बीमारी के वाहक बने हुए हैं, तो उन पर नियंत्रण होना ही चाहिए। यदि ऐसी कार्रवाइयों में पेट लवर्स बाधक बनते हैं तो उनके खिलाफ भी कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए।

यह ठीक है कि बेजुबान पशु के भी अधिकार हैं, उन्‍हें भी जीने का हक है, लेकिन इस मामले में यह हक इंसानों की जिंदगी के लिए घातक हो रहा है। ऐसे में हमें तय करना ही होगा कि क्‍या अपने कथित पशु प्रेम के चलते हम इंसानों की यूं ही बलि चढ़ने देंगे…?

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