लॉकडाउन में ‘पारले जी’ या ‘बिस्किट आफ इंडिया’… !

अजय बोकिल

इन दिनों ‘स्वदेशी’ के हल्ले के बीच जिन्होंने बिना किसी नारे या शोरगुल के सचमुच  ‘स्वदेशी’ और ‘आत्मनिर्भरता’ के झंडे गाड़े हैं, उनमें से पारले-जी बिस्किट का नाम प्रमुख है। क्या ही संयोग है कि जिस पारले-जी को केन्द्र सरकार की अपरिपक्व आर्थिक नीतियों के चलते मुश्किलों का सामना करते हुए पिछले साल अपने 10 हजार कर्मचारियों को नौकरी से हटाना पड़ा था, उसी पारले-जी के बिस्कुट लॉकडाउन में भूख-प्यास से बेहाल प्रवासी मजदूरों के लिए ‘संजीवनी’ साबित हुए।

कोरोना काल में आ रही चौतरफा नकारात्मक खबरों के बीच एक हौसला बढ़ाने वाली खबर ये आई कि लॉकडाउन के दौरान पारले-जी की रिकॉर्ड बिक्री हुई। यानी जब लोगों को सब बंद होने के कारण खाने को कुछ नहीं मिल पा रहा था, तब पारले-जी के ‘बिस्कुटों’ ने ही उन्हें मीलों चलते चले जाने की ऊर्जा दी।

ये पटकथा किसी कंपनी के व्यावसायिक प्रचार या ब्रांडिंग का हिस्सा नहीं है, बल्कि बीते 82 सालों से हम भारतीयों के जीवन में घुल चुके एक स्वाद और अडिग ‘खाद्य हस्तक्षेप’ की कहानी है। जिसकी नींव एक भारतीय ने रखी और एक भारतीय परिवार ही उसे इस ऊंचाई तक ले गया कि पारले-जी दुनिया के सबसे ज्यादा बिकने वाले बिस्किट ब्रांड में तब्दील हो चुका है।

पारले-जी के अनूठे खस्ता स्वाद वाले बिस्किट्स के साथ बड़ी होने वाली अब ये शायद पांचवी पीढ़ी है। हो सकता है आज की पीढ़ी पारले से इतर ब्रांड के बिस्किट्स भी पसंद करती हो, लेकिन चालीस पार वालों के लिए तो पारले-जी ही ‘अपना’ बिस्किट है। कारण, चाय के साथ इसका स्वाद दोगुना हो जाना और चाय में डुबोते ही इसका घुलकर तली में बैठ जाना। यानी पारले-जी का स्वाद चाय के तल तक जा पहुंचता है।

दरअसल पारले जी का सफर गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन के साथ शुरू हुआ था। कम लोगों को पता है कि ये कंपनी किसने स्थापित की, कौन इसका मालिक है और ये बिस्किट आखिर बनते कौन-सी फैक्ट्री में हैं। इस कथा का आगाज भी स्वदेशी चेतना से ही शुरू होता है। चौहान परिवार के मगनलाल दयाल 1928 में अपना पारंपरिक रेशम व्यापार का धंधा छोड़कर जर्मनी जाकर बेकरी उत्पाद निर्माण की ट्रेनिंग लेते हैं।

1929 में भारत लौटकर वे मुंबई के इर्ला और पार्ला के बीच एक जगह अपनी फैक्ट्री लगाते हैं। चूंकि ये कारखाना पारले के पास था, इसलिए ब्रांड का नाम पारले ही रखा गया। हालांकि शुरू में कंपनी बिस्किट्स के बजाए ऑरेंज कैंडी बनाती थी। क्योंकि उस जमाने में बिस्किट कारोबार पर अंग्रेजों का कब्जा था। केवल जेबी मंघाराम नाम की देशी कंपनी जरूर अपनी जगह बना रही थी।

1939 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू होने के साथ-साथ दुनिया में बिस्किट्स की मांग बढ़ने लगी और पारले ने भी बिस्किट्स बनाना शुरू किया। अपने खास स्वाद और वाजिब कीमत के कारण ये लो‍कप्रिय होने लगा। 1947 में देश आजाद हुआ और बिस्किट का कारोबार भी भारतीयों के हाथ आ गया। पारले ने इसका भरपूर लाभ उठाया। सही मार्केटिंग, व्यापक नेटवर्क, लोगों की स्वादाकांक्षा पूरा करने की कोशिश।

लगभग एक-सी क्वालिटी कायम रखना ही पारले-जी की सफलता का मूल मंत्र है। वर्तमान में इसके मालिक विजय चौहान तथा उनके बेटे अजय चौहान हैं। शुरुआत में पारले-जी बिस्किट टीन के एयर टाइट बॉक्‍स में आते थे। उसका विज्ञापन भी बुजुर्गों की स्मृति में होगा। गाय के दो बछड़ों के बीच एक विदेशी सी लगने वाली और हाथ में खाली टोकनी लिए युवती तथा सामने विचरती मुर्गियां। स्लोगन होता था- ‘पारले ग्लूको बिस्किट।’

आजकल पारले-जी के पैकेट पर एक मासूम-सी बच्ची का चित्र आता है। कुछ लोगों ने इस गुडि़या-सी लगने वाली बच्ची की असलियत जानने की कोशिश भी की। लेकिन यह केवल एक तस्वीर है।

पारले का ब्रांड बनकर दुनिया के मार्केट पर छा जाने की कहानी  ‘स्वदेशी’ की ताकत को ही बयान करती है। पारले की आज भारत के अलावा दुनिया भर में 7 सात फैक्ट्रियां हैं, जिनमें अफ्रीका के कई देश, नेपाल और मेक्सिको शामिल हैं। पारले बिस्किट बनाने वाली पारले प्रॉडक्‍ट्स कंपनी का लॉकडाउन में मार्केट शेयर 5 फीसदी बढ़ गया। कारण, इसका स्वादिष्ट होने के साथ-साथ सस्ता और सुलभ होना भी है।

यही वजह है कि लॉकडाउन में भूखे गरीबों, मजदूरों को देने के लिए एनजीओ और समाजसेवी संस्थाओं ने बहुत बड़े पैमाने पर पारले-जी के बिस्किट्स खरीदे और गरजमंदों को मुफ्त बांटे। अहम बात यह थी कि बाजार बंदी के बावजूद कंपनी ने अपने व्यापक नेटवर्क के जरिए देश के हर कोने में ये बिस्किट उपलब्ध कराए।

हालांकि कंपनी को वर्ष 2003 में नेलसन सर्वे में सर्वाधिक बिस्किट बिक्री का खिताब मिल चुका है। लेकिन कंपनी के अधिकारियों का कहना है कि कोरोना काल के अत्यधिक अभावों में पारले-जी बिस्किट्स की ऐसी बिक्री हमने चालीस साल में नहीं देखी। पिछले साल ही कंपनी ने 1 अरब 60 करोड़ डॉलर के केवल बिस्किट बेचे। कंपनी ने साल भर में 14 हजार 6 सौ करोड़ पारले-जी ‍बिस्किट के पैकेट बेचे, जिनमें आपके घर सुबह चाय के साथ खाया गया पारले-जी शामिल है। पारले का दैनिक उत्पादन 40 करोड़ बिस्किट्स का बताया जाता है।

देश के साथ दुनिया के ‍बिस्किट बाजार पर कब्जा जमाना और वो भी किसी भारतीय कंपनी का, कोई हंसी खेल नहीं है। यूं देश में आज कई नामी कंपनियां बिस्किट बना रही हैं। बिस्किट्स की गुणवत्ता के लिए आईएस 1011 मानक भी लागू है। लेकिन पारले का समय के साथ लोगों की बदलती पसंद को ध्यान में रखकर बिस्किट बनाना और बाजार के उतार-चढ़ाव के बीच उनकी मांग कायम रखना ‘स्वदेशी’ के उस अध्याय की रचना करती है, जो केवल शाब्दिक ‘सुंदरकांड’ नहीं है।

यूं भी लोगों की  ‘फूड हेबिट्स’ बदलने के पीछे कई कारण हो सकते हैं। लेकिन इस परिवर्तनशील धारा में भी अपनी जगह कायम रखना एवं उसे जिंदगी का ‍हिस्सा बना देना असाधारण श्रम, दृष्टि और क्वालिटी की मांग करता है। वरना सौ साल पहले तक न तो चाय और न ही बिस्किट्स हमारे दैनंदिन जीवन का वैसा हिस्सा थे, जैसे कि आज हैं।

इस हिसाब से पारले के मुकाबिल एक और स्वदेशी ब्रांड ‘अमूल’ ठहरता है। जिसने स्वाद, क्वालिटी और मार्केटिंग से अपनी अलग जगह और पहचान बनाई है। दोनों में बेसिक फर्क यह है कि पारले की मार्केटिंग ‘अमूल’ की तरह वैविध्यपूर्ण, आक्रामक और किसी हद तक  ‘इंटेलेक्चुअल’ नहीं रही है। उसने अमूल की तरह अपने उत्पादों को  ‘टेस्ट ऑफ इंडिया’ का नारा कभी नहीं दिया। लेकिन पारले-जी ने हौले-हौले खुद को  ‘बिस्किट ऑफ इंडिया’ में रूपांतरित कर लिया है।

लिहाजा गरीब मजदूर से लेकर बाबू और कॉरपोरेट किंग तक पारले-जी एक अघोषित अनिवार्यता बन गई है। शायद इसलिए भी कि बहुत से लोगों को इसके बगैर बिस्किट, बिस्किट खाया-सा महसूस नहीं होता। वह निर्धन के लिए राहत है तो धनवान के लिए चाहत है। ऐसी बॉडिंग बहुत कम उत्पादों के साथ बन पाती है।

बीते आठ दशकों में कितने ही बचपन वयस्कता में बदल गए, लेकिन पारले-जी आज भी मानो बचपन के साथ ही जी रहा है। मांएं रोते हुए बच्चों को आज भी ‍पारले-जी का एक बिस्किट देकर चुप करा देती हैं। बिस्किट के रंग, रूप और स्वाद से हटकर बदलाव केवल पारले-जी की पैकेजिंग में आया है। पीले रंग में लिपटा ये बिस्किट पहले यह वैक्स कोटेड पेपर में आता था अब प्लास्टिक कोटेड में आता है। हालांकि पारले के चाहने वालों का कहना है ‍कि पारले-जी की पैकेजिंग अब बायोडिग्रेडेबल मटेरियल में हो तो ज्यादा अच्छा।

यूं पारले-जी के ‘जी’ होने की भी दिलचस्प कहानी है। पहले पारले के ‘जी’ का अर्थ ग्लूकोज से था। 1983 के बाद इस जी से तात्पर्य ‘जीनियस’ से हो गया। आशय यह कि पारले जी बिस्किट्स का खाना आपको ‘जीनियस’ बनाता है। ऐसा ‘जीनियस’ जिसे ऊर्जा पारले-जी के दो बिस्किट खाने भर से मिल जाती है। आपका तजुर्बा क्या है?

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टीम मध्‍यमत

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