माफ करो बाबा, मेरे पास इस बारे में लिखने को कुछ नहीं है

सच में भैया, शुक्‍करवार को आसपास के लोगों ने धुन डाला। सबके सब पिल पड़े। इधर राजनीति में नया राग और नया दरबार सज रहा है और तुम्‍हें 50 साल पहले वाले राग दरबारी की पड़ी है। क्‍या लेके बैठ गए लीलाधर मंडलोई को। अरे कौन जानता है और कौन पूछता है… हो क्‍या गया तुमको? मुख्‍यधारा का जर्नलिजम छोड़कर ऐसी लीलाएं करते रहोगे तो थोड़े दिनों बाद कोई नहीं पूछेगा, पड़े रहना अपने दड़बे में…

मैं सुनता रहा… मन ही मन सोचा, अब भी साला कौन पूछ रहा है जो बाद में पूछेगा… आप कोईसा भी जर्नलिजम कर लो, मुख्‍यधारा का या मूतधारा का, आप वहीं के वहीं रहोगे। बचपन में वो खिलौना आता था ना, जिसमें एक स्प्रिंग लगे बंदर को साइकल की ताड़ी पर फिट कर दिया जाता था। पहले उसे खुद ही हाथ से ऊपर ले जाते और थोड़ी ही देर में वह अपने आप कूदता फांदता नीचे आ गिरता…

मीडिया ऐसा ही बंदर है जिसे घटनाएं हाथ से खींचकर सुर्खियों की शलाका के शीर्ष पर ले जाती है और मुगालते की स्प्रिंग लगा यह बंदर ठुमकते मचलते अंतत: नीचे आ गिरता है। बंदर को सिर्फ (बाहरी ताकत के जरिए) ऊपर तक जाने वाली बात याद रहती है, वह यह भूल जाता है कि उसके खुद के करम तो उसे नीचे गिराने वाले ही हैं।

तो भैया मुझे भी ऐसे ही चढ़ाया गया और अपेक्षा की गई कि मध्‍यप्रदेश में घटनाओं की मुख्‍यधारा में इन दिनों जो हो रहा है मैं उस पर बात करूं। शिवपालगंज से निकलकर शिवराज की सोचूं और रंगनाथ को छोड़कर कमलनाथ की सुध लूं। मुझे भी लगा कि ये श्रीलाल शुक्‍ल, ये तुलसी और प्रेमचंद, ये शरद जोशी और परसाई, ये देवताले और दिनकर मुझे क्‍या दे देंगे… रोजी रोटी तो राजनीति के कचरे से बनने वाली ‘कंपोस्‍ट’ से ही पैदा होगी…

अब समस्‍या आई कि क्‍या लिखूं। किस पर लिखना है यह तो जगजाहिर था, अरे वही मध्‍यप्रदेश कांग्रेस में निजाम बदलने वाली बात… लेकिन भाई लोगों ने 24 घंटे पहले से लेकर 24 घंटे बाद तक के बारे में इतना कुछ लिख और बांच डाला था कि कुछ भी शेष न रहा। वैसे भी कांग्रेस बीट देखने वाले लोगों के पास ले देकर यही मुद्दा तो था जिसे वे महीनों से घीसते आ रहे थे।

मुझे सहसा तरस आया कि अब बेचारे बीट रिपोर्टर क्‍या करेंगे, पहले रोज बताते नहीं थकते थे कि या तो भाई साहब बनेंगे या फिर महाराज… फिर शुरू हो जाता अंतर्कथाओं का दौर… इसने उसे टांग खींचकर गिरा दिया, वो उसके कार्यक्रम में नहीं दिखा तो उसने उसके मंच से किनारा कर लिया वगैरह… कभी मामला भोपाल से दिल्‍ली जाता, कभी दिल्‍ली से लौटकर भोपाल आता… पर अब तो इस खेल पर भी नहीं लिखा जा सकेगा…

फिर विचार आया कि चलो कांग्रेस की नई टीम के बारे में कुछ लिख देते हैं। कौन किस क्षेत्र का प्रतिनिधित्‍व करता है, कौन किस जात से है इत्‍यादि… लेकिन ये सब राजनीतिक रिपोर्टिंग के इतने घिसे-पिटे फार्मूले हैं कि अब तो कोई नवजात भी इनके सहारे धुरंधर राजनीतिक रिपोर्टर या विश्‍लेषक बन सकता है। अखबार पढ़े तो देखा, ऐसा कोई एंगल नहीं था जिसे भाई लोगों ने ‘टच’ न किया हो…

मैं मन मसोस कर रह गया। बहुत पछताया… अरे मूर्ख तू साहित्‍य में वर्ण-व्‍यवस्‍था के पीछे पड़ा रहा, पूछता रहा कि क्‍या आप तुलसी को बामन और प्रेमचंद को कायस्‍थ कहना पसंद करोगे? और उधर तेरे ही बिरादर तेरे राजनीतिक विश्‍लेषण के तरकश के सारे तीर, तेरे सोचने की संभावनाओं वाली पूरी पोटली ही ले उड़े…

अब क्‍या करें… बड़ी दुविधा… बड़ा संकट…!! एक तरफ आसपास के लोगों का दबाव कि आप भी कुछ लिखो और दूसरी तरफ हालात ये कि लिखने या कहने को बचा क्‍या जो करें… तो सोचा कि चलो नई टीम को थोड़ी सलाह दे देते हैं। सलाह देना हम मीडिया वालों का प्रिय शगल है। हम पत्रकारों के पास जब कहने को कोई तथ्‍य और बताने को कोई घटना नहीं होती तो हम सलाह देने लगते हैं…

राजनीति और मीडिया में सलाह का बड़ा महत्‍व है। राजनीति में लोग जिससे सलाह लेते हैं, वक्‍त आने पर उसी के पेट में सलाखें घुसेड़ देते हैं। दूसरी तरफ मीडिया में ऐसे कई भाग्‍यवान हुए हैं जो परोक्ष सलाह देते देते प्रत्‍यक्ष सलाहकार बन जाते हैं। कई बार इसका उलटा भी होता है, कुछ लोग परोक्ष सलाहकार बनकर प्रत्‍यक्ष सलाह देते रहते हैं। हमारे मध्‍यप्रदेश में इन दिनों इसका चलन है।

लेकिन लगता है कि शुक्‍करवार का दिन मेरे लिए मुसीबत ही लेकर आया था। यह वो जुम्‍मा था जिसने मुझे गिफ्ट में कोई चुम्‍मा न देने की ठान रखी थी। मैंने देखा कि कांग्रेस की नई टीम को सारी सलाहें दी जा चुकी हैं। कोई आबाल वृद्ध ऐसा नहीं बचा है जिसने सलाह न दी हो और न कोई ऐसी सलाह बची है जो न दी जा सकी हो।

मैंने देखा कि कमलनाथ और सिंधिया से लेकर ए.ओ.ह्यूम की आत्‍मा तक को सलाह दे दी गई है कि अब उन्‍हें और कांग्रेस को क्‍या करना चाहिए। रास्‍ते के तमाम भाटे-कांकरे, कील-कांटे से लेकर माथे के ताज और पोंद के नीचे वाले सिंहासन की तमाम दुश्‍वारियों के बारे में उन्‍हें बता दिया गया है। वैसे हम लोग दूसरों को सलाह भी ऐसे देते हैं जैसे सामने वाला चूजा हो और अभी अभी अंडे से बाहर निकला हो।

ऐसे ही नया एंगल सोचते सोचते अचानक बिजली सी कौंधी कि क्‍यों न इन नेताओं की उम्र को लेकर कुछ लिख दिया जाए, लेकिन अखबार देखने के बाद इस इरादे की भी हवा निकल गई। लोगों ने कमलनाथ और सिंधिया की बात ही उनकी उमर से शुरू की थी। इस लिहाज से कांग्रेस और भाजपा नेताओं का पूरा तुलनात्‍मक अध्‍ययन प्रस्‍तुत था।

तो कदरदान पाठक… मेरे पास मध्‍यप्रदेश कांग्रेस के नए निजाम के बारे में लिखने को कुछ नहीं है… माफी…

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अरे, अरे… रुकिए…! ये क्‍या है?  एक बड़े अखबार के पहले पन्‍ने पर बहुत दिलचस्‍प नजारा है… लीड खबर का शीर्षक है- ‘’कांग्रेस ने 71 साल के कमलनाथ को बनाया अध्‍यक्ष…’’ और उसी पन्‍ने पर बॉटम स्‍टोरी का हेडिंग है- ‘’60 से ज्‍यादा उम्र का सर्जन ऑपरेशन करे तो फिट होने की उम्‍मीद सबसे ज्‍यादा’’

ये हुई ना बात! अब आप चाहें तो इन दोनों हेडिंग को ही मेरी टिप्‍पणी समझ लीजिए। राजनीतिक रस का गिलास तो न दे पाऊंगा, इस फोंतरे में से ही चटखारे की कुछ बूंदे निचोड़ लीजिए… नमस्‍कार

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