पान-पकौड़ा पॉलिटिक्‍स और ‘जूतों का अस्पताल’!

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अजय बोकिल

न जाने क्यों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और रोजगार के आए दिन नए आ‍इडिया देने वाले भाजपा नेताओं की नजर हरियाणा के नरसीराम पर नहीं पड़ी, वरना पकौड़े और पान के बाद मोची की दुकान का सुझाव जरूर आता तथा ज्यादा विश्वसनीय तरीके से आता। लेकिन यहां चर्चा का मुद्दा भाजपा नेताओं की विद्वत्ता नहीं बल्कि नरसीराम का लाजवाब बिजनेस आइडिया है, जिसका लोहा जाने-माने उद्योगपति आनंद महिन्द्रा भी मान गए। न सिर्फ माने बल्कि नरसीराम को जूता गांठने की आधुनिक मोबाइल दुकान दिलवाने के निर्देश भी दिए।

वास्तव में यह एक छोटे और गरीब लेकिन नवोन्मेषी कारोबारी के नवाचार की स्वीकृति है। अफसोस इस बात का है कि राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप, आपसी गाली गलौज और मूर्खतापूर्ण बयानों के हो हल्ले में एक बेहद सकारात्मक खबर दब कर रह गई। क्योंकि मेन स्ट्रीम मीडिया को उसमे टीआरपी नहीं दिखी। अलबत्ता सोशल मीडिया पर ये खबर खूब चली।

खबर यह थी कि हरियाणा के जींद में पटियाला चौक पर जूतों की मरम्मत करने वाले नरसीराम ने अपनी दुकान का नाम ‘जख्मी जूतों का अस्पताल’ रखा है। नरसीराम सड़क किनारे अपना तामझाम लेकर बैठने वाले मोची हैं। दिनभर जूतों की मरम्मत करके अपना और परिवार का पेट पालते हैं। लेकिन आम मोचियों और नरसीराम में फर्क यह है कि अपने धंधे की अलग ढंग से मार्केटिंग करना भी जानते हैं। शायद इसीलिए उनके पास जूते चप्पल सुधरवाने ज्यादा लोग आते होंगे।

इसका एक बड़ा कारण नरसीराम की दुकान में लगा एक बैनर है। इसमें वे दुकान को ‘जूतों का अस्पताल’ और खुद को जूतों का डॉक्‍टर कहते हैं। बैनर में जूतों को ठीक कराने के लिए अस्पताल की शब्दावली में कई सूचनाएं दी गई हैं, जैसे- ओपीडी, सुबह 9 से दोपहर 1 बजे, लंच टाइम: दोपहर 1 से 2 बजे और शाम 2 से 6 बजे तक अस्तपाल खुला रहेगा। इसी बैनर पर आगे लिखा है- ‘हमारे यहां सभी प्रकार के जूते जर्मन तकनीक से ठीक किए जाते हैं।’

इस इनोवेटिव बैनर की जानकारी सोशल मीडिया के मार्फत जब उद्योगपति आनंद महिंद्रा को मिली तो उन्होंने कहा कि इस व्यक्ति को आईआईएम में मार्केटिंग फैकल्टी होना चाहिए। उन्होंने नरसीराम को ढूंढ निकालने के आदेश दिए। महिंद्रा के लोगों ने नरसीराम को खोजा और उसे आर्थिक सहायता की पेशकश की। लेकिन स्वाभिमानी नरसीराम ने पैसा लेने से इंकार कर दिया। इतना जरूर कहा कि उसे काम करने के लिए बेहतर जगह की जरूरत है।

इसके बाद महिन्द्रा ने नरसीराम को आधुनिक चलती‍-फिरती मोची की दुकान उपलब्ध कराने के आदेश‍ दिए। साथ ही महिंद्रा की टीम ने नरसीराम को फूल और मोमेंटो भिजवाया तथा महिंद्रा के ट्रैक्टर पर नरसीराम की शोभायात्रा भी निकाली गई। महिन्द्रा ने जो किया, वह अपनी जगह है। लेकिन मार्केटिंग की दुनिया में नवोन्मेषी आइडिया का जो महत्व है, यह घटना उसकी पावती है।

सवाल यह है कि नरसीराम के दिमाग में मोची की दुकान को ‘जख्मी जूतों का अस्पताल’ के रूप में पेश करने का विचार आया कहां से? अनुभव से या अपने काम पर भरोसे से? नरसीराम का प्रयास यह सिद्ध करता है कि जूता गांठना या उसकी मरम्मत करना महज मोची कर्म न होकर एक मानवीय कर्म भी है, यह सोच किसी संवेदनशील व्यक्ति की ही हो सकती है। क्योंकि फटे-टूटे जूते गरीबों के हिस्से में ही आते हैं। उन्हें सिलना जोड़ना उस गरीब के पैरों को सेहतमंद रखने की डॉक्‍टरी ही तो है।

जाहिर है कि नरसीराम ने जूतों के अस्पताल का बैनर केवल सनसनी फैलाने अथवा ग्राहकों का मजमा लगाने भर के लिए नहीं लगाया होगा। नरसीराम जाति से चर्मकार है। इसलिए जूते के पैरों में पहने जाने के कारण उसकी सामाजिक हैसियत और जूता फट जाने के कारण पैरों को होने वाली तकलीफ का अहसास भी उसके मन में कहीं रहा होगा। अनुभवी मोची चमड़ा देखकर ही उसकी तासीर बता देता है और तजुर्बेकार मोची जूते की कमजोर नस तुरंत पकड़ कर उसका वाजिब दाम में इलाज कर देता है।

लेकिन नरसीराम ने उससे भी आगे जाकर सोचा। इसीलिए उसने फटे-टूटे जूतों को ‘जख्मी जूते’ जैसी काव्यात्मक संज्ञा दी है। वह स्वयं कवि है या नहीं, पता नहीं लेकिन उसका जज्बा कवि का है। यह मानना पड़ेगा। दुकान खुली रखने के समय को भी वह अस्पताल के आईने में देखता और बताता है। यानी बाकायदा ओपीडी का समय, लंच टाइम वगैरह। इस सबके बाद शर्तिया इलाज के दावे की तरह यह बताने से नहीं चूकता कि यहां जर्मन तकनीक से जूतों का ‘इलाज’ किया जाता है।

जूता गांठने की जर्मन तकनीक क्या है, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन उसकी परंपरागत मोचीकारी पर भी यदि जर्मन होने का लेबल लगा दिया जाए तो बिजनेस बढ़ने और दुकान की साख जमने की गुंजाइश अपने आप बन जाती है। नरसीराम बहुत पढ़ा-लिखा शायद न भी हो, लेकिन उसकी मार्केटिंग की समझ गहरी और जन्मजात है।

दरअसल मोची की दुकान को ‘जख्मी जूतों का अस्पताल’ कहना नरसीराम के धंधे का ‘मिशन स्टेटमेंट’ भी है। यह आजीविका को मिशन की तरह लेने का सात्विक आग्रह भी है। वह अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए मदद तो चाहता है, लेकिन भीख नहीं चाहता। अर्थात वह जूता गांठने को कहीं से भी कमतर नहीं समझता। यही आत्मविश्वास किसी भी उद्यमी को बड़ा उद्योगपति बना सकता है। पुणे शहर में जूते की एक दुकान के साइन बोर्ड पर लिखा है-‘सप्रेम शूज।‘ जूते को लेकर इतना सकारात्मक भाव शायद ही कहीं दिखा होगा।

जूते को इज्जत तभी मिलती है, जब वह पादुका स्वरूप में होता है। वरना जूते गरियाने का सभ्य माध्यम हैं। उन्हें कभी बहुत इज्जत से नहीं देखा गया। जब पैरो के रक्षा कवच जूतों के बारे में यह सोच है तो खुद जूतों की संवेदनाएं महसूस करने की बात तो दूर की कौड़ी है। नरसीराम के अभिनव प्रयास में यह संदेश भी छिपा है कि स्वरोजगार को नवाचारी तरीके से बढ़ाया जा सकता है। बस खुद पर भरोसा और नई दृष्टि चाहिए।

(सुबह सवेरे से साभार)

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