क्या राजनीति की लैला हैं ओवैसी?

राकेश अचल 

असदुद्दीन ओवैसी का कोई जवाब नहीं है। 52 साल के असदुद्दीन ओवैसी ने सियासत में कदम तो 27 साल पहले रखा था लेकिन तब वे केवल आंध्र प्रदेश में एक चवन्नी छाप पार्टी के नेता थे पर देश की राजनीति में ओवैसी ने अंगद की तरह पैर जमाया है 2004 से। पिछले 17 साल में हर राजनीतिक दल के लिए सिरदर्द बने असदुद्दीन ओवैसी ने अब खुद को राजनीति की लैला मान लिया है। उनके बिना राजनीति नीरस नजर आती है।

असदुद्दीन मुझसे एक दशक छोटे हैं लेकिन मैं उनका मुरीद पहले दिन से हूँ। वे जिस मर्दानगी से नपे-तुले अल्फाजों में संसद में और संसद के बाहर आम सभाओं तथा टीवी चैनलों पर अपनी बात रखते हैं वैसा फन बहुत कम लोगों के पास है। कायदे से ओवैसी को अब तक राष्ट्रीय नेता हो जाना चाहिए था, वे हो भी गए हैं राष्ट्रीय नेता, लेकिन अभी उनके पास इतनी ताकत नहीं है कि वे राजनीति के खाके को बदल सकें। आपको पता ही होगा कि असदुद्दीन एक खानदानी सियासतदां हैं। यानि ओवैसी को सियासत ‘घुट्टी’ में मिली है।

हैदराबाद के एक सुन्नी मुस्लिम परिवार में पैदा हुए असदुद्दीन के दादा अब्दुल वाघ ओवैसी मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के संस्थापक थे। उन्होंने अपने जेबी राजनीतिक दल को ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के रूप में 18 सितंबर 1957 में दोबारा शुरू किया। जेल यात्राएं की और जेल से रिहा होने के बाद भी वह पार्टी के अध्यक्ष बने रहे। असदुद्दीन के वालिद सुल्तान सलाहुद्दीन 1962 में आंध्र प्रदेश विधान सभा के लिए चुने गए थे। वे 1984 में पहली बार हैदराबाद निर्वाचन क्षेत्र से भारतीय संसद के लिए चुने गए और 2004 तक चुनाव जीतते रहे,  2004 में ही उन्होंने अपनी सियासी सल्तनत असदुद्दीन को सौंप दी। पिछले डेढ़ दशक में असदुद्दीन की राजनीतिक यात्रा पर नजर रखने वाले लोग असदुद्दीन को भारत का नया जिन्ना मानते हैं। चूंकि जिन्ना को मैंने देखा नहीं इसलिए मैं नहीं जानता कि वे जिन्ना जैसे हैं या नहीं, लेकिन मुझे लगता है कि वे देश के दीगर मुस्लिम नेताओं से बिलकुल अलग हैं।

असदुद्दीन ओवैसी जिस तरह से बात करते हैं वो भारत के मुसलमानों को आकर्षित करता है,  लेकिन बीते सोलह साल में भी ओवैसी मुसलमानों को सियासत में वो भागीदारी नहीं दिला पाए हैं जो मिल जाना चाहिए थी। जाहिर है कि वे यह काम अपनी जेबी सियासी पार्टी के बूते नहीं कर सकते। इसके लिए उन्हें किसी न किसी राष्ट्रीय सियासी दल का हिस्सा बनना होगा। असदुद्दीन की दिक्क्त ये है कि वे अपनी अलग पहचान किसी दूसरे दल में जाकर समाप्त नहीं करना चाहते,  इसलिए वे अब भारत के सियासी दलों की ‘लैला’ बन गए हैं। ओवैसी ने अपने लिए ये जुमला हाल ही में चुना है लेकिन वे सचमुच इस भूमिका में बहुत लम्बे समय से हैं।

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए असदुद्दीन ओवैसी ने अपने पंख पसारना शुरू कर दिए हैं। वे पिछले वर्षों में बिहार और बंगाल में राजनीतिक समीकरणों को आंशिक रूप से प्रभावित कर चुके हैं। यूपी में भी उनकी यही भूमिका होने वाली है। पिछले कुछ वर्षों से सियासत में संदिग्ध हुए असदुद्दीन को भाजपा का एजेंट समझा जाने लगा है। उनके क्रिया-कलापों से ऐसा प्रतीत भी होता है लेकिन ओवैसी बड़ी ही बेशर्मी और आत्मविश्वास के साथ इस तरह के आरोपों को खारिज कर देते हैं। उन्होंने यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अपना नया दीवाना यानि ‘मजनू’ माना है।

आप ओवैसी के भीतर झाँकने की कोशिश कीजिये तो जान जायेंगे कि असदुद्दीन आगे-पीछे अपने दल की हैसियत बसपा और सपा जैसी बनाना चाहते हैं, और इसीलिए वे हर चुनाव में प्रकट होते हैं।  अपने और अपने दल के लिए जमीन तलाशते हैं और फिर चुनाव होते ही अंतर्धान हो जाते हैं। वे न कांग्रेस के सगे हैं और न भाजपा के सगे। वे मुसलमानों के लिए कम इन दो बड़े राजनितिक दलों के लिए ज्यादा मुस्तैदी से काम करते हैं। ये इत्तफाक नहीं बल्कि एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। इस रणनीति में कितनी हकीकत है और कितना अफ़साना ये अभी तय नहीं हुआ है।

बंगाल विधानसभा चुनावों के दौरान तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख सुश्री ममता बनर्जी ने ओवैसी पर भाजपा से पैसे लेने का आरोप लगाया था। असदुद्दीन ओवैसी ने भी जवाब देने में देरी नहीं की और बोले-  “ममता बनर्जी की ज़ुबान पर मेरा नाम आया,  इसके लिए मैं थैंक्यू कहना चाहूंगा।” ओवैसी अग्निमुखी हैं और ऐसे ही नेताओं के साथ उनकी भिड़ंत मजेदार हो जाती है। अब उन्हें यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का उस समय सामना करना है जब उत्तर प्रदेश के अनेक मुस्लिम नेता या तो जेल के सींखचों के पीछे हैं या फिर अस्पतालों में। ऐसे खाली मैदान में ओवैसी का योगी के खिलाफ खड़ा होना किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। वे इस परीक्षा में पास होंगे या फेल कहना बहुत कठिन नहीं तो आसान भी नहीं है।

मेरी निजी राय ये है कि ओवैसी को वक्त की नजाकत समझते हुए किसी बड़े राजनीतिक दल में शामिल होकर देश की राजनीति में खुद को एक मजबूत मुस्लिम नेता के रूप में स्थापित कर लेना चाहिए। भाजपा में मुस्लिम नेताओं की कमी नहीं है किन्तु अधिकांश ‘शोपीस’ से ज्यादा हैसियत नहीं रखते,  लेकिन कांग्रेस में उनकी सही कीमत मिल सकती है। कांग्रेस के पास इस समय न जमीन से जुड़े या मतदाताओं को जमीन से उठाकर पार्टी से जोड़ने वाले नेता हैं, न दलित नेता और न अल्पसंख्यक नेता। ऐसे में यदि असदुद्दीन अपने आपको और विस्तारित कर लें तो फायदे में रहेंगे। कांग्रेस में भी उन्हें लैला की हैसियत हासिल हो सकती है। सियासत में जब तक लैला- मजनू नहीं होंगे तो मजा कैसे आएगा भला? यदि ओवैसी ने किसी राष्ट्रीय राजनीतिक दल का दामन न थामा तो वे अगले चुनावों में भी अपने ऊपर लगे ‘वोट कटवा’ के कलंक से मुक्त नहीं हो पाएंगे। (मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
—————-
नोट- मध्‍यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्‍यमत की क्रेडिट लाइन अवश्‍य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected] पर प्रेषित कर दें।संपादक

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here