अराजक होते शहरों के लोग

राकेश अचल 

अराजकता अब किसी ख़ास सूबे या किसी ख़ास शहर की बात नहीं है। हर शहर अराजकता का शिकार है। किस सूबे में किस दल की सरकार है, इसका अराजकता से कुछ लेना-देना नहीं है। जो जयपुर में हो रहा है, वही भोपाल में। शहरों के नाम और राजधानियां बदल जाती हैं, लेकिन तस्वीरें नहीं। बीते रोज हमारे शहर ग्वालियर में रात ढलने के बाद बदमाशों ने जो नंगानाच किया उसे देखकर अब सिहरन होने लगी है।

राज्य सभा के सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया के महल से चंद कदमों की दूरी पर नदीगेट से छप्पर वाला पुल तक मोटर साइकिलों पर सवार हर आते-जाते राहगीरों की मरम्मत करते रहे लेकिन कोई उन्हें रोकने नहीं आया। किसी का सिर फूटा, किसी का हाथ टूटा, कोई बेहोश हो गया, कोई जैसे-तैसे जान बचाकर भागा, लेकिन पुलिस को नहीं आना था, सो पुलिस नहीं आई। और जब आई तब तक बदमाश अपना काम करके जा चुके थे। बदमाशों ने निरीह लोगों को मारा इससे जाहिर है की हमलावर नशेड़ी थे और नशे की जुंग में वारदात को अंजाम दे रहे थे।

पिछली शताब्दी में जो शहर सूबे का नंबर एक शहर हुआ करता था, वही ग्वालियर आज सूबे का सबसे घटिया शहर है। क़ानून और व्यवस्था का मामला हो या नगर की यातायात व्यवस्था का मामला, साफ़-सफाई का मामला हो या सुशासन का, ऐसा कोई मोर्चा नहीं है जहां नाकामी न लिखा हो। ग्वालियर सम्भागीय मुख्यालय है, यहां पुलिस और प्रशासन के वरिष्ठतम अधिकारी बैठते हैं, यहां प्रदेश के चार प्रमुख शासकीय विभागों के मुख्यालय हैं लेकिन किसी को शहर की फ़िक्र नहीं है।

पिछले कुछ वर्षों से जिले में शीर्ष पदों पर राजनीतिक पसंद से होने वाली नियुक्तियों की वजह से अधिकारी जनता के प्रति उत्तरदायी होने के बजाय नेताओं के प्रति उत्तरदायी हो गए हैं। पुलिस सड़कों से गायब है और प्रशासन दफ्तरों तक सीमित हो गया है। कोरोना तो तात्कालिक वजह है। शहर में अराजकता के दर्शन शहर के यातायत में ही किये जा सकते हैं। सड़कों पर यातायात पुलिस से ज्यादा आवारा पशुओं की मौजूदगी होती है। कोई एकांगी मार्ग नहीं, कोई पार्किंग नहीं, कोई मीटरिंग नहीं, स्वचलित यातायात सिग्नल सिर्फ देखने के लिए हैं।

ग्वालियर एक जमाने में पर्यटकों के लिए स्वर्ग माना जाता था, लेकिन अब नर्क बन चुका है। नगर निगम साफ़-सफाई के मोर्चे पर फेल है तो पुलिस क़ानून और व्यवस्था के मामले में। प्रशासन के पास कोई निगरानी नहीं। पहले से अराजक शहर को कोरोना के बाद अब उपचुनाव मार रहे हैं। सब अब उपचुनाव में उलझ गए हैं, जनता की परवाह किसी को नहीं है। शहर का हृदय स्थल महाराज बाड़ा शहर में अराजकता का मुख्य केंद्र है। यहां आप पैदल चलने के बारे में सोच भी नहीं सकते। ग्वालियर को स्मार्ट बनाने के लिए केंद्र सरकार ने अपनी सूची में शामिल किया है लेकिन शहर स्मार्ट हो ही नहीं पा रहा। विकास प्राधिकरण जैसी संस्थाएं सफेद हाथी की तरह जनता के ऊपर बोझ बनी खड़ी हैं।

कोरोना से पहले सरकार जिलों में जन सुनवाई भी करती थी लेकिन अब सात महीनों से वो भी बंद है। लगातार अनलॉक के बावजूद जन सुनवाई को दोबारा शुरू नहीं किया जा रहा है। ये किस्सा भले ग्वालियर का हो लेकिन कम से कम मध्यप्रदेश के हर जिले पर लागू किया जा सकता है। जनता को प्रदेश में डेढ़ दशक की भाजपा सरकार हटाने या फिर से तख्ता पलट के बाद भाजपा सरकार बनने का कोई लाभ नहीं हुआ है, क्योंकि प्रदेश में जबसे तख्ता पलट हुआ है तब से सरकार अपनी कुर्सी को स्थायित्व देने की कोशिशों से ही फारिग नहीं हो पा रही है।

जन संगठन और जनप्रतिनिधि असहाय दिखाई दे रहे हैं। प्रदर्शन करने सड़कों पर आएंगे तो पुलिस की लाठियां खाएंगे लेकिन समस्याओं से निजात नहीं मिलेगी। सवाल ये है कि जनता आखिर कब तक इस अराजक माहौल में जियेगी? क्या कभी पहले की तरह पुलिस और प्रशासन की मशीनरी काम कर भी पाएगी या नहीं? आपके शहर की स्थिति यदि ग्वालियर से बेहतर है तो आप खुशनसीब हैं। अन्यथा सभी का हाल कमोबेश एक जैसा ही है। आलस्य मत कीजिये, अपनी प्रतिक्रिया दीजिये, लिखिए, आवाज बुलंद कीजिये। तभी शायद कुछ दशा सुधरे। आपको बता दूँ कि इस समय ग्वालियर के पास प्रदेश की सरकार में चार मंत्री, एक केंद्रीय मंत्री, दो सांसद तो हैं ही, लेकिन सब प्रतिमाओं से अधिक कुछ नहीं हैं।

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