अजय बोकिल
ये कोई डेढ़ चावल की खीर पकाने की बात नहीं है, बल्कि अब बासमती चावल की वजह से दो राज्यों के मुख्यमंत्रियों में ठन गई है और मामला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दरबार में पहुंच गया है। मुद्दा ये कि कल तक सोयाबीन और टाइगर स्टेट के लिए मशहूर मध्यप्रदेश ने बासमती चावल के जीआई टैग के लिए फिर दमदारी से अपना दावा ठोक दिया है। इसको लेकर देश के पंजाब सहित बासमती पैदा करने वाले प्रमुख सात राज्यों में खलबली मच गई है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा है कि मप्र बासमती उगाने वाले विशेष क्षेत्र में नहीं आता। ऐसे में उसे बासमती का जीआई टैग देना जीआई टैगिंग के उद्देश्य को ही बर्बाद कर देगा। ऐसा करना जीआई टैगिंग व्यवस्था से भी छेड़छाड़ होगी।
इस चिट्ठी को ‘राजनीति से प्रेरित’ बताते हुए मप्र के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने कैप्टन अमरिंदर पर पलटवार किया कि आखिर उनकी मध्यप्रदेश के किसानों से क्या दुश्मनी है? शिवराज ने कहा कि यह मध्यप्रदेश या पंजाब का मामला नहीं, पूरे देश के किसान और उनकी आजीविका का विषय है। उधर बासमती को लेकर प्रदेश भाजपा ने कांग्रेस पर हमले शुरू कर दिए हैं तो प्रदेश कांग्रेस इस राजनीतिक ‘चावल युद्ध’ में बैक फुट पर खेलती दिख रही है।
भारत में पैदा होने वाले तमाम तरह के चावलों (धान) में बासमती का वही ठाठ है, जो फूलों में गुलाब का है। बासमती शब्द ही मूल संस्कृत ‘वासमती’ यानी सुगंधमय का थोड़ा बदला रूप है। बासमती की खूबी है उसकी लाजवाब और भूख बढ़ाने वाली खुशबू और उसका खिला-खिलापन। ये चावल की वो किस्म है जो मन के बाग-बाग होने के भाव को अन्न में ट्रांसलेट करती है। भारत में बासमती सदियों से उगाया जा रहा है। भारत के अलावा बाकी दुनिया भी इस बासमती की दीवानी है। पुलाव और बिरयानी के लिए शाही अंदाज वाला बासमती ही चाहिए। आज हम दुनिया के सबसे बड़े चावल निर्यातक अगर हैं तो इसमें सर्वाधिक हिस्सेदारी बासमती की है। इसके खरीदारों में अमेरिका, अफ्रीकी देश, एशिया व यूरोपीय देश हैं। बीते साल भारत ने 70 लाख टन चावल का निर्यात किया था।
बासमती चावल के उत्पादन और निर्यात में बड़ी हिस्सेदारी देश के 7 उत्तरी राज्यों पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर की रही है। लेकिन अब–‘पिछड़े’ समझे जाने वाले मध्यप्रदेश ने भी बासमती की दुनिया में अपनी दस्तक दे दी है। राज्य के 13 जिलों में बासमती बड़ी मात्रा में पैदा किया जा रहा है। इसमें सीहोर जिले में मुख्यमंत्री चौहान का निर्वाचन क्षेत्र बुधनी भी शामिल है। अधिकृत जानकारी के मुताबिक बीते साल मप्र ने 3 लाख टन बासमती पैदा किया। यहां से बासमती निर्यात भी हो रहा है, लेकिन जीआई टैग न होने से बाहर इस मध्यप्रदेशी बासमती की वो साख और धाक नहीं है, जैसी कि मप्र के ‘सीहोर गेहूं’ की है।
विडंबना यह है कि हमारे किसान बासमती पैदा भी कर रहे हैं, लेकिन उसकी अलग पहचान नहीं है। जीआई टैग मिलेगा तो यह भी बन जाएगी। क्योंकि जीआई टैग या प्रमाणपत्र किसी विशिष्ट स्थान पर होने वाली वस्तु को दिया जाता है। मप्र ने शिवराज के तीसरे कार्यकाल के अंतिम वर्ष में भी ऐसी कोशिश की थी। लेकिन रजिस्ट्रार जीआईटी ने मप्र का दावा अमान्य कर दिया। इसके खिलाफ मप्र सरकार ने मद्रास हाईकोर्ट में अपील की, लेकिन बात बनी नहीं। अब मप्र सरकार ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी है। इस बार उम्मीद की एक किरण केन्द्र में मध्यप्रदेश के ही एक असरदार चेहरे नरेन्द्र सिंह तोमर का कृषि मंत्री के पद पर होना है। मप्र की उम्मीद यह है कि उनके कृषि मंत्री रहते भी एमपी को बासमती के लिए जीआई टैग न मिला तो फिर कब मिलेगा?
इसके पहले हमें मप्र के दावे की सचाई और उसके विरोध के कारणों को भी समझना होगा। क्योंकि जीआई टैग चावल की खुशबू या फिर जज्बाती कारणों से नहीं मिलता। उसके लिए तथ्य और प्रमाण पेश करने होते हैं कि यह वस्तु आपकी और आपके यहां पैदा होती है। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर ने मप्र के दावे का विरोध इस आधार पर किया है कि मप्र का नाम एपीडा (एग्रीकल्चर एंड प्रोसेस्ड फूड प्रॉडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलपमेंट अथारिटी) के बासमती चावल उत्पादक राज्यों की सूची में नहीं है। उनका यह भी कहना है कि मप्र में उगाया जाने वाला बासमती ‘ब्रीडर’ बीज की पैदाइश है। इसका पंजाब के महकते बासमती से क्या मुकाबला?
कैप्टन को आशंका है कि बासमती के बाजार में मप्र के यूं अलग खड़े रहने से पंजाब की बादशाहत खत्म होगी और उसे आर्थिक नुकसान सहना पड़ेगा। लगता है कि बासमती निर्यात लॉबी भी कैप्टन के पीछे खड़ी है। जबकि मप्र का कहना है कि उसके यहां बासमती की खेती कोई नया शगल नहीं है। मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपनी चिट्ठी में कैप्टन के पत्र की निंदा करते हुए स्पष्ट किया कि हमारे यहां 13 जिलों में बासमती चावल 1908 से पैदा किया जा रहा है। इसके लिखित प्रमाण हैं। सिंधिया स्टेट (ग्वालियर) के रिकॉर्ड में लिखा है कि 1944 में प्रदेश के किसानों को बासमती बीज की आपूर्ति की गई थी।
हैदराबाद के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ राइस रिसर्च की ‘उत्पादन उन्मुख सर्वेक्षण’ रिपोर्ट में दर्ज है कि मप्र में पिछले 25 वर्ष से बासमती चावल का उत्पादन किया जा रहा है। पंजाब और हरियाणा के बासमती निर्यातक मध्यप्रदेश से बासमती चावल खरीद रहे हैं। भारत सरकार वर्ष 1999 से मध्यप्रदेश को बासमती चावल के ब्रीडर बीज की आपूर्ति कर रही है। उधर कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पीएम को लिखी अपनी चिट्ठी में आशंका जताई कि एमपी को बासमती का जीआई टैग देने से भारतीय बासमती चावल बाजार को भारी नुकसान हो सकता है और इसका लाभ पाकिस्तान को मिल सकता है।
यहां सवाल यह है कि क्या मप्र का बासमती पंजाब और बाकी राज्यों की टक्कर का है या नहीं? इस बारे में कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि बासमती की जो प्रजातियां तैयार की गई हैं, वो मुख्यीत: हिमालय की तराई और गंगा के मैदानो में आने वाले राज्यों के जलवायु और जमीन के हिसाब से हैं। मध्यप्रदेश उस दायरे में नहीं आता। हालांकि वो ये मानते हैं कि मप्र में बासमती चावल हो रहा है और काफी हो रहा है। इस बारे में मप्र के कृषि मंत्री कमल पटेल का कहना है कि बासमती उत्पादक अधिकांश जिले नर्मदांचल में ही है। हमारा बासमती कहीं से कमतर नहीं है।
इस बासमती प्रकरण का आर्थिक-राजनीतिक फायदा यह है कि जीआई टैग मिला तो शिवराज और भाजपा दोनों की किसानों में साख बढ़ेगी। मप्र के दावे पर सुप्रीम कोर्ट क्या फैसला देता है और पीएम कैप्टन की चिट्ठी को किस रूप में लेते हैं, यह देखने की बात है। अगर टैग मिल गया तो कैप्टन कह सकते हैं कि मप्र में भाजपा की सरकार होने से उसे टैग मिला। अर्थात इसमें कहीं न कहीं राजनीतिक पक्षपात हुआ। कैप्टन के तर्क अपनी जगह हैं। लेकिन केवल इस आधार मप्र के दावे को खारिज कर देना कि इससे पंजाब का आर्थिक नुकसान होगा, गले उतरने वाली बात नहीं है। जीआई टैग में मानदंडों का खयाल रखना जरूरी है। लेकिन ये कुछ राज्यों का एकाधिकार भी नहीं होना चाहिए।
याद करें कि दो साल पहले भी मध्यप्रदेश ने मुर्गे कड़कनाथ का जीआई (जियोग्राफिक इंडीकेशन टैग) टैग हासिल करने लिए लंबी लड़ाई लड़ी थी। उसके बाद झाबुआ के कड़कनाथ को ही असली कड़कनाथ माना गया था। इस बार मामला थोड़ा पेचीदा, आर्थिक और राजनीतिक भी है। क्योंकि मुर्गे और चावल में काफी फर्क है, बावजूद उन देसी नगमों के कि ‘मुर्गा चावल खाएंगे, नया साल मनाएंगे।‘ मप्र के नगरीय प्रशासन मंत्री भूपेंद्र सिंह ने पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ पर यह कहकर हमला बोला कि अगर वो किसानों के हितैषी हैं तो तो कांग्रेस को इस मुद्दे पर एमपी के किसानों के साथ खड़ा होना चाहिए। कमलनाथ पंजाब के मुख्यमंत्री (वहां भी कांग्रेस की सरकार है) से बात कर कहें कि वो अपने राज्य का अच्छा करें, लेकिन दूसरे राज्य के किसानों का विरोध न करें। उधर प्रदेश कांग्रेस ने ढुलमुल स्टैंड लेते हुए कहा कि शिवराज सरकार जीआई टैग के लिए जरूरी प्रमाण तो पेश करे।
इस बासमती विवाद में मोदी सरकार की नीयत क्या है, यह इस बात से पता चलेगा कि मप्र को जीआई टैग मिलता है या नहीं। माना कि पंजाब के बासमती में वहां की मस्ती होगी, लेकिन मप्र का बासमती भी नर्मदा की ठसक लिए हुए है, इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। कृषि-वैज्ञानिकों की नजर में मप्र का बासमती जैसा भी हो, स्वाद और सांस्कृतिक दृष्टि से यहां का बासमती चावल यकीनन बेमिसाल होगा, यह मानने में गुरेज नहीं होना चाहिए। यह प्रतिस्पर्द्धा की बात नहीं है, आत्मविश्वास की बात है कि जब मप्र सोयाबीन और टाइगर स्टेट बन सकता है तो बासमती स्टेट क्यों नहीं बन सकता?