डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र
भाषा व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य अथवा दो समूहों के मध्य केवल संपर्क का ही माध्यम नहीं होती। वह संपर्क से आगे बढ़कर उनके मध्य स्नेह का सूत्र भी सुदृढ़ करती है, उनमें अंतरंगता स्थापित कर उनके बीच भ्रातृत्व-भाव का विकास और मैत्री-भाव की पुष्टि भी करती है। इसीलिए नेतागण जिस क्षेत्र विशेष में वोट मांगने जाते हैं उस क्षेत्र की भाषा, शब्दावली, कहावत आदि अपने भाषण में पिरोने का प्रयत्न भी करते हैं। विक्रेता अपने ग्राहक को लुभाने के लिए ग्राहक की भाषा में बात करने का प्रयास करते हैं।
रेल के डिब्बों में पहले से बैठे यात्री नवागन्तुक यात्रियों को प्रायः नहीं बैठने देते, तरह-तरह के बहाने बनाते हैं किंतु अगर खड़ा हुआ यात्री बैठे हुए यात्री की बोली में बात करना प्रारंभ कर देता है तब उसे अपना बंधु समझ कर थोड़ी सी ना-नुकुर के बाद बैठने की जगह दे दी जाती है। क्षेत्रीय भाषा-बोली के ये प्रयोग इस तथ्य के साक्षी हैं कि भाषा विविध-पक्षों के मध्य सहभाव के विकास का भी सशक्त साधन है। वह राष्ट्रीय-एकता के चक्र की धुरी है और विशिष्ट संदर्भों में राष्ट्र-निर्माण का महत्वपूर्ण कारण भी है। पाकिस्तान से छिन्न होकर भाषायी आधार पर ‘बांग्लादेश‘ का प्रथक राष्ट्र के रूप में गठन इस तथ्य का जीवंत उदाहरण है।
भारत अनेक भाषाओं का देश है। सुदूर अतीत से ही भारतवर्ष में परस्पर भिन्न प्रतीत होने वाली अनेक भाषाओं की प्रवाह-परंपरा विद्यमान है और इन सबके मध्य संस्कृत की निर्विवाद स्वीकृति इस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक एकता को पुष्ट करती हुई राष्ट्रीय-एकता को सुदृढ़ आधार देती रही है। वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कश्मीर से कन्याकुमारी तक आज भी समादृत हैं। इस ग्रंथों से कथा-सूत्र चुनकर प्रायः समस्त भारतीय भाषाओं ने अपने साहित्य को समृद्ध किया है।
संस्कृत की शब्दावली प्राचीन पाली, प्राकृत भाषाओं में ही नहीं अपितु तमिल, तेलुगू, बांगला, मराठी, कन्नड़ आदि अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी सुलभ है। हिंदी का तो वह सर्वस्व ही है। राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में संस्कृत की इस व्यापक और निर्विवादित स्वीकृति ने बारह सौ वर्ष की गुलामी में भी इस राष्ट्र को बिखरने नहीं दिया। भाषा और संस्कृति के धरातल पर राष्ट्रीय-एकता को संरक्षित-संवर्धित किया किंतु भारत को विभाजित, खंडित और अशक्त देखने की दुरभिलाषा पालने वाली भारत-विरोधी शक्तियों ने पहले इस्लामिक शासन के सहयोग से और फिर ब्रिटिश सत्ता के साथ मिलकर संस्कृत को उपर्युक्त गौरव से अपदस्थ करने का हरसंभव प्रयत्न किया।
किंतु काल के प्रवाह में जैसे-जैसे संस्कृत केंद्र से परिधि की ओर धकेली गई वैसे-वैसे उसकी उत्तराधिकारिणी हिंदी उत्तरोत्तर पुष्ट होती हुई उसका स्थान ग्रहण करती गई। बीसवीं शताब्दी के मध्य तक हिंदी अपने विरुद्ध किए जाने वाले समस्त कुचक्रों पर विजय पाती हुई इतनी सशक्त और समृद्ध भाषा बन गई कि ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम में वही राष्ट्रीय जागरण का प्रमुख माध्यम बनी। पूरब-पश्चिम-उत्तर दक्षिण सारे देश में कहीं उसका विरोध नहीं हुआ और वह केंद्रीय शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित रही।
यह अलग बात है कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय ब्रिटिश-सत्ता द्वारा स्थापित रीतियों-नीतियों के आलोक में स्वतंत्र भारत का शासन-संचालन करने वाली तत्कालीन भारत सरकार ने वोट बैंक समर्थित संख्या-बल अर्जित करने के लिए संविधान रचते समय हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित नहीं किया और सत्ता की चक्करदार गलियों में अनंत काल तक भटकने के लिए विवश कर दिया। यहीं से हिन्दी-विरोध के विष-बीज अंकुरित हुए जो बीते दशकों की दूषित राजनीति से खाद-पानी पाकर सत्ता संविधान के पटल पर लहलहा रहे हैं। व्यावहारिक धरातल पर हिंदी विश्व के रंगमंच पर अपना ऊंचा परचम लहरा रही है किंतु देश के अंदर वह राष्ट्रभाषा का संविधान सम्मत सत्कार पाने से वंचित है !
विश्व के अधिकतर देशों में विभिन्न धर्मों के मानने वाले रहते हैं फिर भी वे धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं। उनका एक घोषित धर्म है। इसी प्रकार प्रत्येक देश में अनेक भाषाएं और बोलियां व्यवहार में प्रचलित हैं फिर भी उनकी एक घोषित राष्ट्रभाषा है किंतु भारतवर्ष का न तो कोई घोषित धर्म है और ना ही घोषित राष्ट्रभाषा है। आखिर क्यों? अपनी राष्ट्रीय-एकता के लिए सतर्क प्रत्येक देश संख्या-बल की दृष्टि से अपना राष्ट्रीय-धर्म और राष्ट्रभाषा घोषित करता है। इससे उसकी सांस्कृतिक-ऐतिहासिक विरासत को बल मिलता है। देश विरोधी षड्यंत्रकारियों की शक्ति क्षीण होती है, उनका मनोबल टूटता है। इन तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक विचार किए बिना हमारे नेताओं ने देश को धर्मनिरपेक्ष और राष्ट्रभाषा विहीन घोषित कर जो काल्पनिक आदर्श-पथ निर्मित किए हैं उनसे राष्ट्रीय-एकता का यथार्थ आहत है। इन संदर्भों में और राष्ट्रीय-हितों की रक्षा के लिए पूर्व स्वीकृत नीतियों पर पुनर्विचार अपेक्षित है।
जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने से पहले वहां की एक बड़ी नेता ने सार्वजनिक रूप से धमकी दी थी कि यदि धारा 370 एवं 37-ए हटाने के लिए संविधान में संशोधन का कोई प्रयत्न भी किया गया तो यहां आग लग जाएगी। जम्मू-कश्मीर भारत से अलग हो जाएगा। पिछले दिनों देश के गृहमंत्री के भाषा संबंधी एक वक्तव्य को लक्ष्य कर तमिलनाडु के एमडीएमके चीफ वाईको ने भी यह धमकी दी कि यदि हिंदी उन पर थोपी गई तो देश टूट जाएगा। वर्तमान सरकार ने जम्मू-कश्मीर की नेता के बयान की परवाह किए बिना देश-हित में धारा 370 और 37-ए संविधान से विलोपित कर दीं। ना वहां आग लगी और ना ही यह क्षेत्र देश से अलग हुआ।
भारत सरकार को ऐसी ही दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के संदर्भ में भी देना होगा। तब ही क्षेत्रीयता को भड़काकर तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए हिंदी का अनुचित विरोध करने वालों को समुचित उत्तर दिया जा सकेगा और देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली तथा विदेशों में भारतवर्ष का प्रतिनिधित्व करने वाली ‘हिंदी’ राष्ट्रभाषा घोषित की जा सकेगी। इसके अतिरिक्त हिंदी को राष्ट्रभाषा के गौरवशाली पद पर प्रतिष्ठित करने का न अन्य कोई पथ है, न गति। सत्ता की दृढ़ इच्छाशक्ति और निर्विकल्प-संकल्प सामर्थ्य से ही इस शुभ-लक्ष्य की सम्पूर्ति संभव है।
(लेखक होशंगाबाद स्थित शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हैं।)