करैरा उपचुनाव
डॉ. अजय खेमरिया
शिवपुरी जिले की अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित करैरा विधानसभा सीट बीजेपी का गढ़ रही है, लेकिन दो चुनाव से यहां पार्टी हार रही है। प्रस्तावित उपचुनाव में पार्टी का उम्मीदवार घोषित है और अब इंतजार कांग्रेस एवं बसपा के उम्मीदवारों का है। भयंकर रूप से जातिवादी/वर्गवादी कार्य संस्कृति और दूसरे आरोपों की जद में घिरे नए बीजेपी केंडिडेट को लेकर स्थानीय नेता और कार्यकर्ताओं को फिलहाल तो कोई युक्ति सूझ नहीं रही है कि कैसे कैडर और जनता के बीच प्रत्याशी की बात करें।
लेकिन बीजेपी का संगठन करैरा फतह के लिए उतर चुका है और यही सिंधिया समर्थक जसवंत जाटव को सुकून भरा अहसास करा सकता है। पार्टी की लगभग सभी इकाइयों को सक्रिय कर दिया गया है। बीजेपी जिलाध्यक्ष राजू बाथम दावा कर रहे हैं कि शिवपुरी की दोनों सीटों पर बीजेपी जीतेगी। इससे संगठन को कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता कि प्रत्याशी कौन है? दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष श्रीप्रकाश शर्मा कहते हैं कि धोखेबाजी की सजा देने को जनता तैयार बैठी है।
असल में करैरा का राजनीतिक मिजाज हिंदुत्व की ओर झुका रहा है। यही कारण रहा कि यहां से स्व. माधवराव सिंधिया भी लोकसभा में पराजित होते रहे और 1991 से किसी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस जीत नहीं सकी है। विधानसभा का इतिहास भी यहां बड़ा शानदार रहा है। 1967 में संविद सरकार की पृष्ठभूमि में करैरा भी शामिल है। 1962 में गौतम शर्मा यहां से विधायक होते थे और वे तत्कालीन मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा के राइट हैंड भी थे।
मिश्रा और राजमाता सिंधिया की अदावत राजनीतिक रूप से जन्मना थी और गौतम शर्मा इस इलाके में पुराने राजाओं के विरुद्ध कांग्रेस में सक्रिय ताकतवर लॉबी के प्रतिनिधि थे। राजमाता सिंधिया के मन में डीपी मिश्रा के प्रति कभी सम्मान नहीं था। जिसका नतीजा संविद सरकार के रूप में मप्र के इतिहास में दर्ज है।
इस पुराने बखान का यहाँ उल्लेख करैरा के लिहाज से इसलिए जरुरी है क्योंकि 1967 में जब राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने कांग्रेस को अलविदा कहकर नई सियासी राह पकड़ी तो करैरा ही राजमाता को विधानसभा पहुँचने का रास्ता बना था। खुद गौतम शर्मा को उन्होंने शिकस्त देकर डीपी मिश्रा से अपना सियासी हिसाब बराबर किया था। बाद में उनकी बहन सुषमा सिंह भी यहां से एमएलए रहीं। 2008 में यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो गई तब से एक बार बीजेपी और दो बार कांग्रेस यहां जीती है।
जाटव, लोधी, रावत, परिहार, कुशवाहा, बघेल, यादव, ब्राह्मण, वैश्य, मुस्लिम, ठाकुर, मांझी, प्रजापति जैसी प्रमुख जातियां इस विधानसभा में हैं। ठाकुर, ब्राह्मण, यादव, रावत जाति के विधायक यहां आरक्षण से पूर्व चुनते आये हैं। इस विधानसभा में बीजेपी की लगातार दो हार असल में पिता पुत्र की हार हुई है, जिन्हें बारी बारी से पार्टी ने टिकट दिया।
मौजूदा उपचुनाव में बीजेपी से जसवंत जाटव को लेकर जमीन पर कोई खास उत्साह यहां नजर नहीं आता है। 18 महीने का उनका कार्यकाल जातिवादी और रेत के बदनमा कारोबार की प्रतिध्वनि ज्यादा करता है। असल में बीजेपी का करैरा का गणित जाटव बनाम अन्य के पोलराइजेशन पर टिका रहता है। यह तथ्य है कि दलित वर्ग के सर्वाधिक जाटव विधायक बीजेपी से बनते है, लेकिन इस बिरादरी ने वोट के मामले में उतनी ही दूरी बना रखी है। जहाँ कांग्रेस के जाटव उम्मीदवार होते हैं वहाँ नॉन जाटव का फैक्टर काम करता है।
करैरा में अब संभव है बीजेपी कांग्रेस और बसपा तीनों से जाटव उम्मीदवार ही मैदान में आयें। बसपा से तीन बार प्रत्याशी रहे प्रागीलाल जाटव को कांग्रेस अपना उम्मीदवार बनाने की कोशिश में है। उनकी छवि तुलनात्मक रूप से बेहतर है और लगातार हारने के बावजूद वह सक्रिय हैं। पूर्व विधायक शकुंतला खटीक को लेकर कांग्रेस सशंकित है। वह पहले सिंधिया के साथ चली गई थीं, बाद में टिकट की चाह में वापिस कांग्रेस का झंडा पकड़ लिया।
शकुंतला की रिपोर्ट भी आरम्भिक सर्वे में ठीक नहीं बताई गई है। कर्मचारी नेता शिवचरण करारे, मानसिंह फौजी, केएल राय भी यहाँ से टिकट के दावेदार हैं, लेकिन कमलनाथ का मन प्रागी लाल जाटव को उतारने का है। और सब कुछ ठीक रहा तो प्रागी ही जसवंत को टक्कर देंगे। बीजेपी में टिकट को लेकर तो कोई सन्देह बचा नहीं है, केवल पार्टी में जसवंत की स्वीकार्यता की पहाड़ जैसी चुनौती खड़ी हुई है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव जैसी विषमताओं वाला यह मिलन कतई आसान नहीं है।
करैरा में बीजेपी की प्रमुख चाबी रणवीर सिंह रावत हैं। 2003 में चुनाव हारने के बाबजूद रावत ने खुद को इस विधानसभा के निर्णायक क्षत्रप के रूप में बरकरार रखा है। बीजेपी में उनके विरोधी भी उन्हें खारिज करने का साहस नहीं करते हैं। मप्र किसान मोर्च के अध्यक्ष रावत का सभी जातियों में सतत सम्पर्क है। यहां रावत के अलावा लोधी, बघेल, कुशवाहा, परिहार, ब्राह्मण, वैश्य जातियां भी अच्छा चुनावी दखल रखती हैं। इनके स्थानीय नेता भी यहां सक्रिय हैं।
सबसे अहम मुद्दा यहां बीजेपी में जसवंत की स्वीकार्यता ही है। बसपा अगर किसी नॉन जाटव को यहां उतारती है तो वह बीजेपी का नुकसान भी कर सकता है। बसपा का यहाँ प्रभाव 1998 से लगातार बढ़ा है। 2003 में लाखन सिंह बघेल बसपा के टिकट पर ही जीते थे। बीजेपी यहां वोटों के मिजाज के लिहाज से बहुत मजबूत है, लेकिन सवाल उसके कार्यकर्ताओं के खड़े होने का है।
2013 और 2018 में बीजेपी की पराजय का मूल कारण पार्टी कैडर की अरुचि और उम्मीदवार को स्वीकार न करना ही था। लोकसभा के नतीजे इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। 2014 और 2019 की रिजल्ट शीट इसके लिए साक्ष्य है। इसलिए बेहतर होगा पार्टी संगठन, मुख्यमंत्री और सिंधिया चुनावी बिसात बिछाने से पहले पार्टी कैडर को मजबूत भरोसे में लें। अन्यथा 2018 के विधानसभा नतीजे केस स्टडी के लिऐ उपलब्ध हैं।
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टीम मध्यमत