ऐसी बैठकों में तो एक मोटी- सी संटी लेकर जाना चाहिए

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गिरीश उपाध्‍याय

कई साल पहले मैंने एक चुटकुला सुना था। यह बात अलग है कि आजकल वो चुटकुला सच साबित होता दिख रहा है, लेकिन उस समय मैंने उसे चुटकुले के रूप में ही ग्रहण किया था। उसका किस्‍सा यूं था कि- डॉक्‍टरों की एक पार्टी चल रही थी। उसमें नए-नए डॉक्‍टरों के अलावा कुछ पुरानी पीढ़ी के डॉक्‍टर भी शामिल थे। परिचय का दौर चल रहा था। एक उम्रदराज लेकिन अनुभवी डॉक्‍टर को कई नए डॉक्‍टर अपना परिचय दे रहे थे। कोई कह रहा था वह आंखों का डॉक्‍टर है, किसी ने बताया कि वह कान का डॉक्‍टर है, किसी ने खुद को दिल का तो किसी ने जिगर का डॉक्‍टर बताया। बेचारा पुराना डॉक्‍टर, जो अपने जमाने में ये सारे इलाज खुद ही करता था, इन नए डॉक्‍टरों की बातें सुन सुनकर हैरान हुआ जा रहा था। परिचय पाते पाते वह खीज गया। इसी दौरान एक नौजवान डॉक्‍टर ने आकर अपना परिचय दिया। पुराने डॉक्‍टर ने पूछा- ‘’भाई तुम काहे के डॉक्‍टर हो?’’ नौजवान बोला- ‘’सर मैं नाक का डॉक्‍टर हूं।‘’ यह सुनने के बाद, बड़ी देर से पके बैठे बुजुर्ग डॉक्‍टर ने नौजवान से सवाल किया- ‘’बेटा अब यह भी बता दो कि तुम नाक के बाएं छेद के डॉक्‍टर हो या दाएं छेद के…’’

अच्‍छा बताइए मुझे यह किस्‍सा क्‍यों याद आया? यह याद आया भोपाल नगर निगम की हाल ही में हुई एक बैठक से। उस बैठक में सबसे मजेदार बात मुझे यह लगी कि वहां इंजीनियरों ने उन डॉक्‍टरों जैसा व्‍यवहार किया जैसा मैंने चुटकुले में जिक्र किया है। दरअसल यह बैठक भारी बारिश के बाद राजधानी भोपाल की दुर्दशा हो जाने के संदर्भ में बुलाई गई थी। इसमें महापौर आलोक शर्मा, कलेक्‍टर निशांत बरवड़े और नगर निगम आयुक्‍त छवि भारद्वाज सहित सड़क, पानी, बिजली आदि से जुड़े विभागों के आला अधिकारी और इंजीनियर मौजूद थे।

इस बैठक में सबसे दिलचस्‍प संवाद, बारिश के दौरान उधड़ कर, गड्ढों से पट गई सड़कों को लेकर हुआ। आपके याद रखने के लिए यह भी बता दूं कि बैठक में सारे लोग पल्‍ला लेकर बैठे थे। (हमारे मालवा में पल्‍ला लेने का अर्थ अलग होता है, जो लोग मालवी समझते हों वे इस बात को उस रूप में भी ग्रहण कर सकते हैं) अब आपको यह तो पता ही होगा कि पल्‍ला हमारे यहां ज्‍यादातर झाड़ने के लिए ही होता है।…तो जैसे ही सड़कों की चर्चा शुरू हुई सबसे पहले महापौर ने यह कहते हुए अपना पल्‍ला झाड़ा कि सड़कों की इस बदहाली के लिए लोक निर्माण विभाग और राजधानी परियोजना प्रशासन जिम्‍मेदार है। नगर निगम मुखिया का यह भी कहना था कि हमारे पास तो शहर की एक चौथाई सड़कें भी नहीं हैं। यानी मैं तो सिर्फ नाक के एक बाल का डॉक्‍टर हूं, मेरा पूरे शरीर से क्‍या लेना देना?

अब आपने वह कहावत तो सुनी ही होगी कि खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग बदलता है। बारिश से बदहाली पर हुई बैठक में यह कहावत इस रूप में सामने आई कि इंजीनियर को देखकर इंजीनियर रंग बदलता है। जैसे ही महापौर ने पीडब्‍ल्‍यूडी और सीपीए को खराब सड़कों के लिए जिम्‍मेदार ठहराया पीडब्‍ल्‍यूडी के सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर (एसई साब) बोले- ‘’हमारी सड़कें सीपीए और नगर निगम की तुलना में ज्‍यादा ठीक हैं।‘’ पीडब्‍ल्‍यूडी का यह बयान सामने आते ही बहुत देर से पल्‍ला लेकर बैठे सीपीए के सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर (वही अपने, एसई साब) ने तुरंत उसे झाड़ते हुए प्रतिवाद ठोका- ‘’सीपीए की सड़क आपको चकाचक मिलेगी।‘’ इस झाड़ा झाड़ी ने कलेक्‍टर को चकरघिन्‍नी कर दिया और वे खीजकर बोले‘’सबकी सड़कें अच्‍छी हैं तो खराब किसकी हैं?’’

और यही वह प्रश्‍न है जो व्‍यवस्‍था में उसी तरह वास करता है जैसे शरीर में आत्‍मा। आत्‍मा होती जरूर है,लेकिन वह दिखाई नहीं देती। उसी तरह खराब सड़कें होती जरूर हैं, लेकिन वह किसकी हैं यह पता नहीं चलता। इधर बेचारे भोपाल के लोग सड़कों पर दचके खाते हुए निकल रहे हैं और उधर कोई शूरवीर अपनी सड़कों को शानदार बता रहा है, तो कोई चकाचक। ऐसी बैठकों में हमेशा से यही होता आया है।

आखिर में खराब सड़कें बापड़े उस मजदूर की मिल्कियत निकलती हैं, जिसकी किस्‍मत में हर साल बारिश से पैदा हुए गड्ढों में मिट्टी या मलबा भरने का काम ही लिखा है। चूंकि सड़कों की किस्‍मत और उसकी कुंडली की दशा एक ही फावड़े से लिखी गई है, इसलिए न सड़कें सुधरती हैं और न ही उसका काम बदलता है।

कई बार ऐसा लगता है इस तरह की बैठकें या तो बंद ही कर देनी चाहिए या फिर एक उपाय और है। आगे से कोई आदमी वहां एक मोटी-सी संटी लेकर बैठे। और जैसे ही कोई कहे कि मेरी सड़कें तो चकाचक है, तो दे एक सड़ाक् !  दुबारा बोले तो फिर पड़े सड़ाक् !! दूसरा भी यदि ऐसा ही दावा करने की नीयत लेकर आया हो, तो अव्‍वल तो वह बोलेगा ही नहीं और यदि बोला तो आपको बस उससे इतना ही कहना है- ‘’तू हाथ निकाल…’’

थोड़ा देसी फार्मूला है, पर आजमा कर देखने में क्‍या बुराई है। और कुछ नहीं तो कम से कम ये तो पता चल ही जाएगा कि खराब सड़कें किसकी हैं। आप एक नया नारा भी गढ़ सकते हैं-‘’सड़ाक् से सड़क तक !’’

क्‍या कहते हैं… हो जाए?

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