विरासत
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राकेश अचल
दुनिया चाहे जहां पहुँच जाये लेकिन जीवन का उत्सव उसे जमीन पर ही हासिल हो सकता है। मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ और आसपास के कुछ जिलों में हमारी जमीन से जुड़ी आबादी एक ऐसी ही विरासत को जैसे-तैसे सम्हाले हुए है। इसका नाम है ‘भगोरिया’। मेरा मानना है कि आप चाहे जितने बड़े नेता, कलाकार, साहित्यकार, पत्रकार या संत-महंत बन जाएँ लेकिन यदि आपने ‘भगोरिया’ नहीं देखा, उसे नहीं जिया तो आपने कुछ नहीं किया।
लोकपर्व ‘भगोरिया’ से रूबरू होने के लिए कोई दो दशक पहले मैं चंबल के बीहड़ों से निकलकर झाबुआ के अबूझ जंगलों में जा पहुंचा था। होली जैसे महत्वपूर्ण पर्व पर घर से बाहर जाने की मुमानियत होती है, लेकिन ‘भगोरिया’ से रूबरू होने की ललक मुझे झाबुआ ले जाने में कामयाब रही। मैंने पूरे संभाग में एक सप्ताह रहकर ‘भगोरिया’ का जो उत्सव देखा उसका स्मरण कर मैं आज भी भीग जाता हूँ।
भगोरिया आदिवासी अंचल की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें अर्थशास्त्र के साथ समाजशास्त्र के मूल्य भी जुड़े रहते हैं। कहने को ये एक हाट-बाजार जैसा आयोजन है लेकिन ये हाट, ये बाजार आम हाट-बाजारों से अलग होते हैं, क्योंकि इन हाट-बाजारों में आदिवासी जन-जीवन पूरी उन्मुक्तता के साथ उपस्थित होता है। इंद्रधनुष के सात रंगों से भी कहीं ज्यादा रंग इस भगोरिया हाट-बाजार में आप देख सकते हैं। लोग पूरे सात दिन अलग-अलग गांवों, कस्बों में होने वाले भगोरिया में सपरिवार पूरी मस्ती और तैयारी के साथ शामिल होते हैं और यही से आदिवासी समाज का ताना-बाना एक अमोघ शक्ति हासिल करता है।
भगोरिया मेले शहरी आबादी के लिए एक मनोरंजन के साथ ही कौतूहल हो सकता है, किन्तु आदिवासी समाज के लिए ये भगोरिया संस्कृति के संवर्द्धन का जरिया है। दुनिया के तमाम कायदे-कानूनों से ऊपर इस भगोरिया में शामिल होने वाले किशोर युवक-युवतियां ही नहीं अपितु हर वय के लोग पूरे साज-श्रृंगार के साथ जत्थे बनाकर पहुँचते हैं। खाते-पीते हैं, खरीद-फरोख्त करते हैं और नशे में ऐसे झूमते हैं जैसे कि जंगल में पलाश और टेसू के फूलों से लदे वृक्ष झूमते हैं। भगोरिया में आया व्यक्ति न हाकिम से डरता है न हुक्काम से। उसे अपने काम से काम होता है।
भगोरिया के दौरान सड़क, गली, फुटपाथ, पहाड़ी, पगडण्डी सब हुरियारे समाज की होती है। कोई किसी को न रोकता है और न टोकता है। अठारहवीं सदी में चलने वाले हिंडोलों में गहरी लाली (लिपस्टिक) लगाए और चांदी के आभूषणों से लदी किशोरियां, महिलाएं, बर्फ के गोले और केन्डी चूसते हुए देखकर आप चकित हो सकते हैं लेकिन आदिवासियों के लिए यही दुनिया का सबसे बड़ा सुख होता है। भगोरिया का उद्देश्य होली के त्योहार के लिये खरीद-फरोख्त के साथ ही सामाजिक मेल-मिलाप भी होता है। यहीं लड़किया, अपने लिए जीवन साथी भी तलाश लेती हैं, कुछ रिश्ते बातचीत से तय होते हैं और कुछ परस्पर प्रेम से, जिन्हें बाद में सामाजिक स्वीकृति मिलती है।
भगोरिया को स्थानीय बोली में भोगर्या कहते हैं। इसका इतिहास कितना पुराना है, कोई नहीं जानता लेकिन मान्यता है की ये उत्सव राजा भोज के कार्यकाल में शुरू हुआ। भील राजा कसुमर और बालून ने भगोरिया को राज्याश्रय प्रदान किया। वर्तमान में भगोरिया झाबुआ और अलीराजपुर जिले के कोई 58 कस्बों में आयोजित किया जाता है। भगोरिया के आयोजन की सूचना स्थानीय आबादी को अपने आप हो जाती है हालाँकि अब अख़बार तथा दूसरे माध्यम भी आ गए हैं। सरकार इन आयोजनों का इस्तेमाल अपनी योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए करती है, व्यापारियों के लिए ये साल भर के कारोबार का अवसर है, लेकिन आदिवासी समाज के लिए ये जीवन का उत्सव है।
मुझे याद है कि झाबुआ में जब वसीम अख्तर कलेक्टर और संभाग आयुक्त राम सजीवन थे, उस समय मैंने अपने जनसम्पर्क अधिकारी मित्र मधु सोलापुरकर के साथ एक दर्जन से अधिक भगोरिया मेले देखे थे। हमारे पीआरओ के सरकारी आवास के दरवाजे तक भगोरिया के दिन खोलना मुमकिन नहीं होता था। भगोरिया में शामिल लोग नाचते-गाते सुध-बुध खोते हुए कब, कहाँ डेरा जमा लें कोई नहीं जानता। भगोरिया में आये आदिवासियों की निश्छलता इस समय द्विगुणित होती है।
पिछले साल से देश में फैले कोरोना का भी इस भगोरिया पर कोई असर नहीं दिखाई दिया था, लेकिन इस बार सरकार और अदालत दोनों सतर्क हैं, इसलिए मुमकिन है कि 22 मार्च से शुरू हो रहे भगोरिया के रंग कुछ फीके नजर आएं। लेकिन मुझे नहीं लगता की प्रकृति के उपासक आदिवासी समाज के इस अनादि उत्सव का कोरोना भी कुछ बिगाड़ पायेगा। खरगोन जिला प्रशासन ने जरूर इस बार भगोरिया पर प्रतिबंध लगाकर एक सनातन श्रृंखला को तोड़ दिया है। खरगोन जिले में करीब 60 स्थानों पर भगोरिया की धूम होती थी।
रंग-बिरंगी वेश भूषा में नख से शिख तक पहने जाने वाले चांदी के आभूषण, पावों में घुंघरू, हाथों में रंगीन रुमाल लिए युवक-युवतियां गोल घेरा बनाकर मांदल व ढोल, बांसुरी की धुन पर बेहद सुंदर नृत्य करती हैं तो ब्रज का महारास भी फीका पड़ता दिखाई देता है। प्रकृति, संस्कृति, उमंग, उत्साह से भरा नृत्य का मिश्रण, भगोरिया की गरिमा में वासंती छटा का ऐसा रंग भरता है की बस आप देखते ही रह जाएँ।
आदिवासियों की भाषा में भगोरिया शब्द का प्रयोग भागने के लिए किया जाता रहा होगा ऐसा माना जाता है। इसका अर्थ है पलायन करना अथवा भागना। अर्थात् वह समय जब युवक अपनी इष्ट युवती के संग भाग जाता है। किवदंती है कि भागोर के राजा ने इस क्षेत्र पर विजय प्राप्त की थी। राजा ने अपने सैनिकों को यह अनुमति दी थी कि होली से कुछ दिन पूर्व लगते इस हाट में वे अपनी पसंद की युवती को प्रेम प्रस्ताव दे सकते हैं। यदि युवती की स्वीकृति हो तो दोनों पलायन कर सकते हैं।
आज बीस साल बाद भी भगोरिया में बजने वाली मादल की थाप और बाँसुरी की निर्मल धुन मेरे कानों में गूंजती है। इस समय मैं झाबुआ से हजारों मील दूर अमेरिका में बैठा हूँ लेकिन मांदल मेरे भीतर बजती सुनाई दे रही है। आपको यदि अवसर मिले तो जीवन में एक बार जरूर भगोरिया में शामिल होकर देखिये। आपको समझ में आ जाएगा की हम लोग जिस दुनिया में रहते हैं उससे अलग भी एक दुनिया है, जहाँ न फिरकापरस्ती है, न घृणा है, न झूठ है, न छल है। भगोरिया में पी जाने वाली महुआ की घर पर बनी शराब जब नथुनों में प्रवेश करती है तो पूरी देह तरंगित हो जाती है। मैंने तो भावरा, कठ्ठीवाडा और थांदला में इसे तब खूब छका और भगोरिया को जीकर देखा।(मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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