गिरीश उपाध्याय
कभी कभी कुछ पुराने गीत, देश और समाज की नई परिस्थितियों पर ऐसे फिट हो जाते हैं मानो उन्हें इन ताजा हालात के लिए ही लिखा गया हो। 1966 में ममता फिल्म के लिए लिखा गया मजरूह सुल्तानपुरी का यह गीत पढ़/सुन कर आपको ऐसा ही लगेगा। जरा गौर फरमाइये…
रहते थे कभी जिनके दिल में
हम जान से भी प्यारों की तरह
बैठे हैं उन्हींं के कूचे में
हम आज गुनहगारों की तरह
दावा था जिन्हें हमदर्दी का
खुद आके न पूछा हाल कभी
महफ़िल में बुलाया है हम पे
हँसने को सितमगारों की तरह
रहते थे कभी जिनके दिल में
बरसों से सुलगते तन मन पर
अश्कों के तो छींटे दे ना सके
तपते हुए दिल के ज़ख्मों पर
बरसे भी तो अंगारों की तरह
रहते थे कभी जिनके दिल में
सौ रूप धरे जीने के लिये
बैठे हैं हज़ारों ज़हर पिये
ठोकर ना लगाना हम खुद हैं
गिरती हुई दीवारों की तरह
रहते थे कभी जिनक दिल में
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