बाप रे बाप…! चारों तरफ इतना डर फैला हुआ है?

सच में मुझे नहीं मालूम था कि हम जिस समाज में जी रहे हैं उसमें डर इतना ज्‍यादा फैला हुआ है। निजी बातचीत और कभी कभार दो चार लोगों के बीच चर्चा के दौरान अकसर यह बात उठती तो जरूर रही कि आज का समय सच बोलने या सच को सच कहने का है ही नहीं। यदि गलती से भी आप यह हिमाकत कर बैठे तो तय मानिए आपको नोच खाने के लिए गिद्ध तैयार बैठे हैं।

जब मैं जबलपुर की डॉ. रचना शुक्‍ला के बारे में गुरुवार को अपना कॉलम लिख रहा था तो डर कहिये या हिचक, कहीं न कहीं ऐसा भाव मेरे मन में भी था। इसीलिए मैंने अपनी बात माफी मांगने के साथ ही शुरू की थी। डर लिखने को लेकर नहीं था, वह तो मेरे साथ कभी नहीं रहा, डर था तो इस बात का कि कहीं मेरी बात को ‘अजाक्‍स’ या ‘सपाक्‍स’ जैसे खेमों में बांटकर न देखा जाने लगे।

आज मैं थोड़ी राहत महसूस कर रहा हूं क्‍योंकि डॉ. रचना शुक्‍ला प्रकरण को लेकर जो सवाल मैंने उठाए हैं उन पर सकारात्‍मक प्रतिक्रिया ही मिली है। हालांकि उन प्रतिक्रियाओं की संख्‍या मेरे अनुमान से बहुत कम है, फिर भी मैं इसे समाज में चल रही उस धारा के लिए शुभ संकेत मानता हूं, जिसमें मुट्ठी भर लोग ही सही, लेकिन हैं तो। और ये लोग उस ‘अंधी धारा’ के साथ नहीं हैं, जो ऐसी किसी भी बात पर बड़े निरपेक्ष भाव से कह देती है-‘’हुंह मुझे क्‍या करना है!’’

यहां मैं ऐसी ही कुछ प्रतिक्रियाओं का जिक्र करना चाहूंगा जो बताती हैं कि ऐसे मामलों को लेकर दर्द और पीड़ा कितनी गहरी है और उसे व्‍यक्‍त न कर पाने का डर भी कितने गहरे तक पसरा हुआ है। मेरे कॉलम का शीर्षक था- ‘’क्‍या यह उपेक्षा इसलिए कि डॉ. रचना के आगे शुक्‍ला लिखा है’’ इस पर सरकारी सेवा में कार्यरत एक महिला अधिकारी ने संदेश भेजा- ‘’बिलकुल यही कारण है भाई साहब। यदि कोई और सरनेम होता तो अब तक उच्‍चस्‍तरीय जांच बैठाई जा चुकी होती।‘’

उन्‍होंने आगे लिखा- ‘’सत्‍ता का खून जिनकी दाढ़ से लग जाता है वे हर मामले में राजनीतिक अवसर की तलाश करने लगते हैं।… आपने सही एंगल से देखा है, हालांकि कईयों को मिर्ची लगना तय है।‘’सही किया भाई साहब…

मध्‍यप्रदेश विधानसभा के पूर्व सचिव भगवानदेव ईसरानी ने तो मेरे माफी से अपनी बात शुरू करने पर ही आपत्ति लेते हुए कहा- ‘’गिरेबान में आपको माफी से शुरुआत नहीं करना थी। दलित के नाम पर हो रही राजनीति की खुलेआम आलोचना होनी चाहिए। माफी सरकार मांगे.. सांच को आंच क्‍या?’’

इंदौर के मेरे पुराने मित्र कीर्ति राणा ने कहा- ‘’भाई आपने पत्रकारिता धर्म निभाया है, पक्षपात नहीं किया।‘’ वहीं सतीश जोशी ने बात को आगे बढ़ाते हुए वाट्सएप पर लिखा- ‘’गिरीशजी ने सवाल उठाया है,प्रकरण सामने लाए हैं, उस पर हम कलमकारों को लेखनी चलानी ही चाहिए… शर्मनाक मामला…’’

मेरे कॉलम को लेकर फेसबुक पर अकसर प्रतिक्रिया देने वाले कमलेश पारे ने इसी बहाने डॉक्‍टरों के साथ हो रहे दुर्व्‍यवहार का मामला उठाते हुए लिखा- ‘’गिरीश जी, ‘रेत की मछली’ अकेली रचना ही नहीं हैं, सरकारी नौकरी में गुंडा-नुमा छुटभैये नेताओं की सताई और भी कई ‘रचनाएं’ अपने प्रदेश में हैं। अपनी बढ़ी हुई कुंठा के सीमा पार करने पर, उन्होंने तो इस्तीफ़ा दे दिया। लेकिन शेष कई महिला डाक्टर,छोटे बड़े नगरों या कस्बों में पदस्थ रहकर, अपने अपने कारणों से, परेशान होकर या अपमान सहकर भी मजबूरी में नौकरी कर रही हैं।‘’

इसी तरह और भी बहुत से लोगों ने मेरी बात से सहमति जताई। मैं ऐसे सभी पाठकों का आभारी हूं। लेकिन… मैंने न तो इस इरादे से वो बात लिखी थी कि लोग उसे लिखने के लिए मेरी सराहना करें और न ही मैंने यहां जिन प्रतिक्रियाओं को जिक्र किया, उन्‍हें बताने के पीछे यह इरादा है कि मैं कितना लोकप्रिय कॉलमिस्‍ट हूं।

दरअसल मैं इन प्रतिक्रियाओं के बावजूद बहुत क्षुब्‍ध हूं। मैंने अपना वो कॉलम सोशल मीडिया प्‍लेटफॉर्म पर कई जगह शेयर किया और चिंताजनक बात मुझे यह लगी कि उस पर किसी राजनीतिक दल के नेता, खासतौर से किसी महिला नेता ने कोई प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त नहीं की। उनका ऐसा व्‍यवहार हमें और चिंतित करता है। यदि महिला होकर वे समाज से जुड़े इस गंभीर मुद्दे पर संवेदनशील नहीं हैं, तो फिर उनसे क्‍या अपेक्षा की जा सकती है।

हां, सच में हम डरते हैं, हम सब डरते हैं… हमें लगता है कि धारा के विपरीत यदि गए तो या तो खत्‍म हो जाएंगे या खत्‍म कर दिए जाएंगे। हमें लोगों की वास्‍तविक परेशानियों से कोई सरोकार नहीं, हमें चिंता है अपने कॅरियर की। आज ऐसे मामलों में उच्‍च वर्ग का भी कोई राजनेता इसलिए नहीं बोलेगा क्‍योंकि उसे सभी से वोट लेने हैं। वो एक महिला के उत्‍पीड़न पर सोचने से पहले ये तौलेगा कि इसके पक्ष या विपक्ष में बोलने पर मेरा नफा नुकसान क्‍या होगा?

इस प्रसंग ने एक और बात को बड़ी शिद्दत से रेखांकित किया है कि हमारे समाज बातें भले ही जातिवाद को दूर करने की होती हों, लेकिन जातिवाद दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा है। रचना शुक्‍ला के ही प्रसंग में मुझे एक प्रतिक्रिया यह भी मिली कि अन्‍य वर्ग को तो आप किसी नाम से पुकार भर लें, अंदर कर दिए जाते हैं, लेकिन अन्‍य वर्ग उच्‍च वर्ग को कुछ भी बोले तो राजनीतिक हितों के चलते हमें उनके खिलाफ कार्रवाई करने में सांप सूंघ जाता है।

समाज का इस तरह का विभाजन और बिखराव बहुत घातक है। यदि एक वर्ग यह समझे कि उसे हर प्रकार का ‘राजनीतिक संरक्षण’ उपलब्‍ध है और दूसरा वर्ग यह समझने लगे कि हमारी कोई सुनवाई ही नहीं है तो यह स्‍वस्‍थ लोकतंत्र की निशानी नहीं है। मुझे लगता है मीडिया को भी यह बात समझनी होगी।

डॉ. रचना शुक्‍ला का मामला हमें यह सीख देता है कि हम बेहिचक बेबाकी से अपनी बात रखें। ऐसे मामले हमारे लिए कुछ दलितों द्वारा एक ब्राह्मण महिला के अपमान का विषय नहीं हैं। ये मामले एक महिला की गरिमा और इज्‍जत को तार-तार करने वाले असामाजिक तत्‍वों के मामले हैं, इन्‍हें सिर्फ और सिर्फ इसी नजर से देखते हुए बेमुरव्‍वत होकर उधेड़ा जाना चाहिए, लगातार…

 

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