जम्मू कश्मीर में गठबंधन सरकार से अलग हो जाने के भारतीय जनता पार्टी के फैसले की बुधवार को अखबारों ने अपने अपने हिसाब से व्याख्या और विश्लेषण किया है। लेकिन सबसे ज्यादा हैरानी मुझे उन खबरों को लेकर हुई जिनमें कहा गया कि अब कश्मीर में सेना को ‘खुली छूट’ दी जाएगी।
मैंने कल के अपने कॉलम का अंत ही इस बात से किया था कि ‘’दुनिया की किसी भी समस्या का समाधान गोली से नहीं निकला है। कश्मीर के भीतर आप ये गलती मत करिएगा। आपके विरोधी हर पल चाहेंगे कि आप कब जनता पर गोली चलाएं और आपको जाल में फंसा लिया जाए।‘’
लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार के मन में भले ही कुछ और बात हो पर मीडिया इस बात पर उतारू है कि बस अब कश्मीर में लोगों को भून दिया जाना चाहिए। उन्हें बहुत अच्छे ‘विजुअल’ मिलेंगे। पर मेरा मानना है कि हम चीजों को दूर से देखकर जब इस तरह के फैसले सुनाते हैं तो उससे हालात संभलते नहीं बल्कि और बिगड़ते हैं।
आखिर क्या मतलब है इन खबरों का कि ‘सेना को खुली छूट मिलेगी’… भारतीय सेना दुनिया की सबसे अनुशासित फोर्सेस में से एक है। उसने कश्मीर में जितना संयम दिखाया है उसकी जितनी तारीफ की जाए वह कम है। उकसाने वाली तमाम नीच और घिनौनी हरकतों के बावजूद सेना वहां एक दायरे में रहकर काम करती रही है।
हमें याद रखना होगा कि किसी जवान के हाथ में बंदूक होने का मतलब यह नहीं होता कि वह जिसे चाहे गोली मार दे। सेना के अपने नियम कायदे होते हैं। इसलिए जब हम यह कहते हैं कि ‘’सेना को अब खुली छूट होगी’’ तो इसका सीधा सीधा अर्थ यह होता है कि हम अपनी सेना को ‘हत्यारा’ बनने के लिए उकसा रहे हैं या उसे हत्यारा बनते हुए देखना चाहते हैं।
सैनिक की बंदूक देश और समाज की रक्षा के लिए चलती है। उसकी गोली से देश के दुश्मनों का खून जरूर बहता है लेकिन सैनिक के हाथ खून से रंगे नहीं होते। सेना ने भी कभी ऐसा नहीं चाहा, लेकिन क्या हम चाहते हैं कि हमारे सैनिकों के हाथ अपने ही देश के नागरिकों के खून से रंगे हों?
सरकार खुद भी शायद ऐसा न चाहे। क्योंकि उसे पता है, (और यदि पता न हो तो पता होना चाहिए) कि इस तरह सेना और बंदूक का इस्तेमाल करने के नतीजे कितने खतरनाक होते हैं। वो कहावत है ना- जोश में होश नहीं खोने चाहिए, उस कहावत को हमें हमेशा याद रखना होगा। जिन पर गोली चलाना होगी, सेना चलाएगी ही, उसे न हाथ बांधे रखने को कहने की जरूरत है न खुले रखने को…
एक और बयान जम्मू कश्मीर के पुलिस महानिदेशक का मैंने देखा। उनका कहना है कि अब पुलिस आसानी से अपना काम कर सकेगी। इस बयान के मायने क्या हैं? क्या पुलिस के मुखिया यह कह रहे हैं कि उनका महकमा तभी ठीक से काम कर सकता है, जब राज्य में राजनीतिक नेतृत्व न हो।
खबरों में राज्य के एक अधिकारी को यह कहते हुए प्रस्तुत किया गया है कि ‘’कुछ राजनेताओं की तरफ से पत्थरबाजों, अलगाववादियों और कट्टरपंथियों को समर्थन मिलता है। कोई राजनीतिक दबाव न होने से सुरक्षा बल ज्यादा आक्रामकता से काम करेंगे।‘’ यानी जम्मू कश्मीर की प्रशासनिक मशीनरी का मानस किसी भी राजनीतिक विकल्प के खिलाफ है। दरअसल वे लोकतांत्रिक अंकुश से खुली छूट चाहते हैं।
मैंने कल एक और बात कही थी ‘’अफसरों के भरोसे इस समस्या को हल करने के सपने मत देखिएगा। अच्छा हो या बुरा, अंतत: पोलिटिकल सिस्टम ही ऐसे मामलों में काम आता है। जितनी जल्दी हो सके उसकी पुनर्स्थापना की कोशिश करिएगा…’’
हमें मानकर चलना चाहिए कि कश्मीर में आज जो स्थिति बनी है वह एक खास किस्म के राजनीतिक गठबंधन की असफलता का नतीजा है। वह पूरे राजनीतिक या लोकतांत्रिक सिस्टम की असफलता का परिणाम नहीं है। हम अनिश्चितकाल तक किसी भी राज्य को लोकतांत्रिक ढांचे से बाहर नहीं रख सकते। आज नहीं तो कल हमें बैलेट के रास्ते पर आना ही होगा।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी रिपोर्ट में भारत और पाकिस्तान दोनों तरफ के कश्मीर क्षेत्र में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर चिंता ज़ताई है। रिपोर्ट कहती है कि ‘‘नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ रहने वाले लोग पीड़ित हैं, उन्हें या तो अधिकार दिए ही नहीं जा रहे हैं या फिर वे बेहद सीमित मात्रा में ही हासिल हो रहे हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए जल्द से जल्द अंतरराष्ट्रीय दख़ल की ज़रूरत है।’’
हालांकि भारत ने इस रिपोर्ट पर तुरंत ही अपनी तीखी प्रतिक्रिया देते हुए इसे ‘भ्रामक’, ‘विवादास्पद’ और ‘दुर्भावना से प्रेरित’ बताया। विदेश मंत्रालय ने कहा कि यह भारत के ‘आंतरिक मामलों में दखलंदाजी’ और भारत की ‘प्रभुसत्ता का उल्लंघन’ है।
लेकिन यह रिपोर्ट बताती है कि कश्मीर के ताजा हालात के ‘अंतर्राष्ट्रीयकरण’ की कोशिशें फिर सिर उठाने लगी हैं। आज हम भले ही ऐसी रिपोर्टों को जबानी तौर पर खारिज करके अपने मन को तसल्ली दे लें, लेकिन जब भी अंतर्राष्ट्रीय मसलों और विवादों के निपटारे की बात आती है तो ऐसी रिपोर्टें राह का रोड़ा बनकर खड़ी हो जाती हैं।
आश्चर्य की बात तो यह भी है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने ऐसी रिपोर्ट दे भी दी और उसकी हमें पहले भनक तक नहीं लगी। इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले प्रतिनिधि भारत तो आए होंगे, उन्होंने जम्मू कश्मीर का दौरा तो किया होगा, वहां जानकारी तो जुटाई होगी…
मान लिया कि आतंकवादी तो भेस बदलकर या सीमा पार से अवैध घुसपैठ करके आते हैं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि तो इस तरह नहीं आए होंगे। फिर क्या कारण है कि हमारा इंटेलीजेंस तंत्र इस बात को पकड़ नहीं पाया कि ये लोग किससे मिल रहे हैं और क्या जानकारी जुटा रहे हैं। ये स्थितियां ही बता रही हैं कि जम्मू कश्मीर में सिर्फ बल का प्रयोग करने से ही काम नहीं चलने वाला। एक साथ कई मोर्चों पर काम करना होगा।
समर्थन वापसी के मात्र 12 दिन पहले देश के गृहमंत्री राजनाथसिंह श्रीनगर में पत्थरबाजों के बारे में कह रहे थे-‘’बच्चे बच्चे होते हैं, बच्चों को कोई भी गुमराह कर सकता है, जो भी बच्चे पत्थरबाजी में गुमराह हुए हैं, उनके ऊपर दर्ज केस वापस लिए जाएंगे।… लोगों की जिंदगी और तकदीर सुधारने की जिम्मेदारी हम पर है। पीएम मोदी इस राज्य से काफी मुहब्बत करते हैं…’’
अगर राजनाथसिंह, कश्मीर से नरेंद्र मोदी की मुहब्बत को सच्चे अर्थों में बयां कर रहे थे, तो सरकार को याद रखना होगा कि मोहब्बत का इजहार न तो ‘नफरत’ से होता है और न ही ‘गोली’ से…