अब जिम्‍मेदारी कश्‍मीर के लोगों के कंधों पर है

देश तो वैसे 15 अगस्‍त 1947 को ही आजाद हो गया था लेकिन आज भी अलग अलग कारणों से आजादी की मांग करने वालों को सुप्रीम कोर्ट का 10 जनवरी का आदेश बहुत ध्‍यान से पढ़ना और उस पर मनन करना चाहिए। इस आदेश की जरूरत सिर्फ ‘हमें चाहिये आजादी’ का नारा लगाने वालों को ही नहीं है बल्कि ‘आजाद भारत’ पर शासन करने वाली सरकारों को भी है। एक लिहाज से सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश वर्तमान संदर्भों में भारत की सामाजिक और प्रशासनिक व्‍यवस्‍था का आधुनिक परिप्रेक्ष्‍य में किया गया ऐसा विश्‍लेषण है जो आने वाले कई सालों तक नजीर के रूप में याद किया जाता रहेगा।

मीडिया की ‘वर्तमान शैली’ के अनुरूप इस फैसले की रिपोर्टिंग उसके ‘लोकप्रिय’ तत्‍व को ध्‍यान में रखते हुए ही हुई है और यह लोकप्रिय तत्‍व है कश्‍मीर में इंटरनेट सुविधा की बहाली और इंटरनेट को मौलिक अधिकारों के समकक्ष मानना। निश्चित रूप से इंटरनेट को मौलिक अधिकारों के समकक्ष बताकर सुप्रीम कोर्ट ने संविधान प्रदत्‍त मौलिक अधिकरों के दायरे में इजाफा करते हुए उन्‍हें आधुनिक संदर्भों और जरूरतों के अनुरूप बनाया है। लेकिन इसके साथ ही उसने अपने इसी फैसले में कई और बातें भी कही हैं जिन पर या तो उतना ध्‍यान नहीं गया या फिर उनका उल्‍लेख न के बराबर हुआ है।

अदालतों खासतौर से सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को दो तरह से देखा जाना चाहिए। एक उनके कानूनी पक्ष की दृष्टि से और दूसरा उनके अवधारणात्‍मक पक्ष से। कानूनी पक्ष की दृष्टि से अदालतें जहां काफी कुछ संविधान और कानून के प्रावधानों की ही व्‍याख्‍या करती हैं या कि उनके बारे में स्थिति स्‍पष्‍ट करती हैं वहीं अवधारणात्‍मक पक्ष पर बात करते समय वे संविधान और कानून की किताबों में लिखी बातों का देशकाल और परिस्थितियों के हिसाब से विश्‍लेषण और आकलन करते हुए उनमें अपेक्षित सुधार या संशोधन की नींव रखती हैं। मेरे विचार में कानूनी पक्ष पर अदालतों की राय किसी प्रकरण विशेष को लेकर फैसले तक सीमित हो सकती है लेकिन अवधारणात्‍मक पक्ष पर जब वे बात करती हैं तो उनका दायरा बहुत विस्‍तृत और दीर्घकालिक होता है। उसमें भूत, वर्तमान और भविष्‍य तीनों का समोवश दिखाई देता है।

मैं सुप्रीम कोर्ट के दस जनवरी के जिस फैसले का जिक्र कर रहा हूं वह उन दो अलग अलग याचिकाओं पर आया है जो क्रमश: जम्‍मू कश्‍मीर की पत्रकार अनुराधा भसीन और कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद द्वारा दायर की गई थीं। इन दोनों का संबंध कश्‍मीर में धारा 370 की समाप्ति के बाद से पैदा हालात से है। अदालत ने अपने फैसले में इंटरनेट सुविधा बहाल करने और उसे लोगों का अधिकार मानने के साथ ही धारा 144 लागू करने और उसके उपयोग/दुरुपयोग पर बहुत साफ साफ दिशा निर्देश दिए हैं।

इन निर्देशों पर चूंकि अखबारों में खबरें छप चुकी हैं इसलिए उन पर बाद में बात करेंगे, पहले वह बात जो सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं के संदर्भ और परिस्थितियों का जिक्र करते हुए कही हैं। जस्टिस एनवी रमना, आर. सुभाष रेड्डी और बी.आर.गवई की बेंच ने कहा कि जिस जगह को हमने ‘धरती के स्‍वर्ग’ की तरह देखा था, उस जगह का इतिहास हिंसा और उग्रवाद से लिख दिया गया है। हिमालय की चोटियां हालांकि अमन और शांति का संदेश देती हैं लेकिन हर दिन वहां खून बह रहा है।

अदालत ने याचिकाओं का संदर्भ देते हुए अपने फैसले की शुरुआत में ही कहा- ‘’हमारा दायरा सीमित है, हमें आजादी और सुरक्षा चिंताओं के बीच ऐसा संतुलन बनाना है जिससे जीवन का अधिकार सुरक्षित हो सके और जीवन का सर्वोत्तम आनंद लिया जा सके। आजादी और सुरक्षा हमेशा भिड़ते आए हैं। हमारे सामने प्रश्‍न यह है कि हमें किसकी जरूरत ज्‍यादा है, आजादी की या सुरक्षा की?’’

अदालत ने कहा- ‘’हालांकि हमारे विकल्‍प चुनौतीपूर्ण हैं, लेकिन हमें बयानबाजी की परिस्थिति से खुद को अलग रखते हुए एक अर्थवान समाधान देना है कि ताकि प्रत्‍येक नागरिक को ‘समुचित सुरक्षा’ और ‘पर्याप्‍त आजादी’ प्राप्‍त हो सके। (वैसे अदालत ने अपने कथन में सुरक्षा के लिए adequate security और आजादी के लिए sufficient liberty शब्‍द का प्रयोग किया है। यह बताता है कि उसने सुरक्षा और आजादी की उपलब्‍धता को भी दो अलग अलग धरातलों पर रखा है।)

अदालत का मत था कि- (सुरक्षा और आजादी में से) ‘’प्राथमिकता का पेंडुलम किसी भी दिशा में अत्‍यधिक नहीं झुकना चाहिए ताकि किसी एक को मिलने वाली प्राथमिकता के कारण किसी दूसरे के साथ कोई समझौता करना पड़े। यह जवाब देना हमारा काम नहीं है कि सुरक्षा के बजाय आजादी अधिक अच्‍छी है या आजादी के बजाय सुरक्षित रहना अच्‍छा है। हम यहां सिर्फ इस बात को तय करने के लिए हैं कि लोगों को उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए किस तरह, उपलब्‍ध परिस्थितियों में उनके अधिकतम अधिकार और आजादी प्रदान की जा सके।‘’

जैसा मैंने कहा, सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक है और इसकी अनुगूंज आने वाले कई सालों तक सुनाई देती रहेगी। लेकिन इंटरनेट और धारा 144 के साथ साथ कोर्ट ने आजादी और सुरक्षा को लेकर जो बातें कही हैं उन पर भी समान रूप से उतना ही ध्‍यान जाना चाहिए और संबंधित पक्षों को उन पर भी उतना गंभीर होना चाहिए।

कोर्ट ने स्‍वयं ही कह दिया है कि उसकी अपनी सीमाएं हैं और वह इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता कि आजादी और सुरक्षा में से कौन ज्‍यादा जरूरी है या किसको प्राथमिकता मिलनी चाहिए। लेकिन यह उन लोगों की जिम्‍मेदारी जरूर है जो आए दिन ‘हमें चाहिए आजादी’ के नारे लगाते हैं या फिर जो सुरक्षा के नाम पर लोगों का घर से निकलना और फोन पर बात करना तक बंद कर देते हैं।

कोर्ट ने साफ साफ भले ही न कहा हो लेकिन उसने सुरक्षा और आजादी की दो दिशाओं के बीच चयन के पेंडुलम को मध्‍य में रखने की बात कहकर साफ संकेत दे दिया है कि देश और समाज के हित में ये दोनों ही बातें जरूरी हैं। इनमें से किसी भी एक बात को न तो दूसरे के ऊपर रखा जा सकता है और न ही किसी भी एक बात के लिए दूसरी बात से समझौता किया जा सकता है।

कोर्ट ने यदि इंटरनेट की बहाली पर जोर देते हुए उसे मौलिक अधिकारों के समकक्ष बताकर आजादी के पलड़े को तवज्‍जो दी है या फिर 144 के मनमाने उपयोग पर उंगली उठाई है तो इसका मतलब यह नहीं समझा जाना चाहिए कि इससे संचार के साधनों का मनमाना उपयोग करने और प्रतिबंधात्‍मक आदेश हटने से पत्‍थरबाजी की छूट मिल गई है।

याद रखा जाना चाहिए कि अदालतों के फैसले किसी विषय विशेष या परिस्थिति विशेष के संदर्भ में होते हैं। अब कश्‍मीर की जनता की जिम्‍मेदारी है कि वे अदालत के इस उदार रुख का सम्‍मान करते हुए ऐसा कुछ न होने दें जिससे लगे कि पलड़ा केवल वांछित ‘आजादी’ की ओर ही झुक रहा है और ‘सुरक्षा’ को पलीता लगाया जा रहा है। यदि ऐसा हुआ तो हमारा संविधान सरकारों को यह हक भी देता है कि वे अदालतों से अपने फैसले पर पुनर्विचार की मांग करते हुए पुराने फैसलों में ‘आवश्‍यक’ करेक्‍शन करवा सकें।

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