अगर यह खेल है तो बहुत दिलचस्प है, अगर यह राजनीति है तो बहुत सोची समझी है और अगर यह रण्नीति है तो बहुत ही मारक है…
मैंने ये सूक्त वाक्य क्यों कहे, इसका खुलासा करने से पहले मैं आपको आज से करीब दो ढाई साल पहले ले जाना चाहूंगा। याद कीजिए वो समय जब कर्नाटक में साहित्यकार एम.एम. कलबुर्गी की हत्या हुई थी, हैदराबाद में रोहित वेमुला ने आत्महत्या की थी और उत्तरप्रदेश में कथित गोमांस विवाद के चलते भीड़ ने अखलाक को मार दिया था।
इन घटनाओं के बाद देश के बुद्धिजीवियों और कलाकारों के बीच अचानक एक लहर सी उठी थी और चारों तरफ सम्मान वापसी की बाढ़ आ गई थी। दर्जनों लेखकों और संस्कृतिकर्मियों ने इन घटनाओं को लेकर ‘मोदी सरकार’ को कठघरे में खड़ा करते हुए विरोध स्वरूप अपने ‘सम्मान’ लौटा दिए थे। देश भर की बुद्धिजीवी बिरादरी और सरकार एक तरह से आमने सामने हो गए थे। देश में असहिष्णुता एक मुद्दा बन गया था। कहा गया था कि यह सरकार अपने विरोध का हर स्वर कुचल देना चाहती है।
आज दो ढाई साल बाद माहौल बिलकुल बदला हुआ है। जो सरकार और जो संगठन उस समय बुद्धिजीवियों के निशाने पर थे वे आज घर घर जाकर उनसे मुलाकात कर रहे हैं या फिर विरोधी स्वर रखने वालों को अपने मंच पर बुलाकर अपने कार्यकर्ताओं के समक्ष उनका व्याख्यान करवा रहे हैं।
मोदी सरकार की उपलब्धियों को लेकर जनता के बीच जागरूकता को बढ़ाने के लिए बीजेपी ने देशभर में ‘संपर्क फॉर समर्थन’ अभियान शुरू किया है। इसका आगाज 29 मई को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दिल्ली में पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल दलवीर सिंह और संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप के घर जाकर किया।
भाजपा की योजना है कि वह देश भर में एक लाख से अधिक प्रबुध्दजनों से मुलाकात कर उन्हें मोदी सरकार की योजनाओं और पार्टी के कार्यक्रमों की जानकारी देगी। इस अभियान के जरिये जमीनी स्तर पर आए बदलाव को लेकर फीडबैक भी हासिल किया जाए।
उधर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपने तृतीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग के समापन में मुख्य अतिथि के तौर पर पूर्व राष्ट्रपति और कांग्रेस के दिग्गज नेता प्रणब मुखर्जी को आमंत्रित किया है। प्रणब के इस दौरे को लेकर देश भर में तीखी प्रतिक्रियाएं भी हुई हैं। खुद कांग्रेस के ही कई नेता इसे पचा नहीं पा रहे हैं। जबकि प्रणब मुखर्जी ने तमाम प्रतिक्रियाओं पर सिर्फ इतना ही कहा है कि उन्हें जो कुछ कहना है वे नागपुर में ही कहेंगे।
प्रणब दा को आज यानी सात जून को नागपुर में अपना व्याख्यान देना है। लेकिन उससे पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सह सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य का एक आलेख मीडिया के लिए जारी किया गया है। यह आलेख देश में वैचारिक विमर्श के तौर तरीकों को लेकर कई सवाल उठाता है। इसके जरिये एक तरह से संघ ने अपने चिर विरोधी वामपंथी बुद्धिजीवियों को नसीहत के साथ चुनौती भी दे डाली है।
प्रणब मुखर्जी की यात्रा को लेकर विवाद पैदा किए जाने पर वैद्य कहते हैं- ‘’डॉ. मुखर्जी एक अनुभवी और परिपक्व राजनेता हैं। संघ ने उनके व्यापक अनुभव और उनकी परिपक्वता को ध्यान में रखकर ही उन्हें स्वयंसेवकों के सम्मुख अपने विचार रखने के लिए आमंत्रित किया है।…विचारों का ऐसा आदान-प्रदान भारत की पुरानी परंपरा है।‘’
वैद्य ने अपने आलेख में वामपंथी बुद्धिजीवियों को सीधा निशाना बनाया है। वे कहते हैं- ‘’भारत का बौद्धिक जगत उस साम्यवादी विचारों के ‘कुल’ और ‘मूल’ के लोगों द्वारा प्रभावित है, जो पूर्णत: अभारतीय विचार है। इसीलिए उनमें असहिष्णुता और हिंसा का रास्ता लेने की वृत्ति है। साम्यवादी भिन्न विचार के लोगों की बातें सुनने से न केवल इन्कार करते हैं, अपितु उनका विरोध भी करते हैं… वे आपको जाने बिना आपका हर प्रकार से विरोध करेंगे और उदारता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र की दुहाई देते भी नहीं थकेंगे।‘’
संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी ने पूर्व में भी ऐसे वैचारिक विनिमय के कई उदाहरण देते हुए कहा है कि- ‘’संघ की वैचारिक उदारता और संघ आलोचकों की सोच में वैचारिक संकुचितता, असहिष्णुता और अलोकतांत्रिकता का यही फर्क है… प्रणबदा के संघ के आमंत्रण को स्वीकारने से देश के राजनीतिक-वैचारिक जगत में जो बहस छिड़ी, उससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती लोगों का असली चेहरा सामने आ गया है’’
इस पूरे प्रसंग में ध्यान देने वाली बात है भाजपा और संघ की कार्यप्रणाली। हो सकता है देश के लोग और शायद सम्मान वापसी अभियान से जुड़े बुद्धिजीवी भी दो ढाई साल पहले हुई उन घटनाओं को भूल गए हों। लेकिन भाजपा और संघ ने उन्हें याद रखा। और अब उचित अवसर का निर्माण कर उन्हीं ‘असहिष्णुता’ और ‘अलोकतांत्रिकता’ जैसे शाब्दिक हथियारों से उन्होंने अपने विरोधियों पर पलटवार किया है।
निश्चित रूप से यह मास्टर स्ट्रोक है। प्रणब मुखर्जी को संघ मुख्यालय में बुला लेना ही पर्याप्त है। अव्वल तो ऐसा होगा नहीं, लेकिन फिर भी यदि मान लें कि संघ प्रमुख की मौजूदगी में प्रणब दा संघ की रीति नीतियों की आलोचना कर आएंगे तो भी इससे कद तो संघ का ही बढ़ने वाला है।
अब सोचना संघ को नहीं बल्कि उन वामपंथी बुद्धिजीवियों को है कि जो साहस या दुस्साहस संघ ने दिखाया है, क्या वैसा ही साहस या दुस्साहस वे संघ प्रमुख मोहन भागवत को अपने किसी मंच पर बुलाने का कर सकते हैं? वैद्य के इस प्रश्न का चक्रव्यूह बहुत मारक है कि हम तो भिन्न या विरोधी विचार को भी अपने मंच पर स्थान देने और उसे सुनने का माद्दा रखते हैं लेकिन वैचारिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता की दुहाई देने वाले लोग क्या ऐसा करने को तैयार हैं?
प्रणब मुखर्जी का नागपुर दौरा केवल एक पूर्व राष्ट्रपति के संघ मुख्यालय जाने का ही मुद्दा नहीं है। भारत में वैचारिक स्वतंत्रता और उसकी अभिव्यक्ति को लेकर इससे जो नई बहस पैदा होगी उसे बुद्धिजीवी जगत किस रूप में लेगा यह देखना महत्वपूर्ण है। निश्चित तौर पर अब तक तो सामने वाले का ‘कुल शील’ पूछ कर उसे दुतकार दिया जाता था, लेकिन प्रणब मुखर्जी का कुल शील तो उजागर है। ऐसे में अब द्वंद्व आपके लिए और आपके सामने है…
वैसे मुझे लगता तो नहीं, लेकिन यदि यह प्रसंग भारत में वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच एक स्वस्थ और सार्थक वैचारिक विमर्श का सबब बनता है तो इससे देश का ही भला होगा। विचार किसी का भी हो सामने आने तो दीजिए, यही तो होगा ना कि आप उससे सहमत होंगे या असहमत… इसमें तो कोई बुराई नहीं… अरे यही तो स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है। बशर्ते हम सही मायने में लोकतंत्र की सेहत के प्रति चिंतित हों…