कर्नाटक प्रसंग को लेकर कल मैंने अपनी बात इन वाक्यों के साथ समाप्त की थी-‘’आज भाजपा का जो फैलाव है वह पूरी तरह राष्ट्रीय पार्टी का है। जैसे एक समय कांग्रेस की स्थिति थी। भारत जैसे देश को चलाने के लिए ऐसी किसी पार्टी का होना बहुत जरूरी है। मानाकि गठबंधन सरकारें अब भारतीय राजनीति का अनिवार्य तत्व होती जा रही हैं, लेकिन ऐसी सरकारें अपने अपने कारणों से देश का भला नहीं कर सकतीं। भाजपा के लिए अवसर समाप्त नहीं हुए हैं, बशर्ते वह ‘मूल्यों’ की राजनीति करे ‘समर्थन मूल्य’ की नहीं…।‘’
कर्नाटक में फिलहाल सरकार बनाने का मसला हल होता दिख भले ही रहा हो लेकिन मेरा मानना है कि येदियुरप्पा सरकार के इस्तीफे के बाद कुमारस्वामी के नेतृत्व में बनने वाली कांग्रेस-जेडीएस की नई सरकार के सामने भी खतरे कम नहीं हैं। बल्कि यूं कहें कि उनके सामने अब खतरा और ज्यादा होगा। और खतरे के इस खेल में सबसे बड़ी मुसीबत कांग्रेस की होने वाली है। ऐसा क्यों होगा उस पर बात करने से पहले जरा कर्नाटक के ताजा राजनैतिक परिदृश्य को जान लें।
पिछले दिनों 224 सीटों वाली विधानसभा के लिए हुए चुनाव में 222 सीटों पर मतदान हुआ। इसमें से भाजपा को 104 सीटें मिलीं। सभी सीटों पर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस ने 78 सीटें जीतीं। इस दौरान उसने अपनी ही पुरानी 44 सीटें गंवाईं, उसके निवर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया दो सीटों से लड़े थे, इनमें से वे अपनी परंपरागत सीट चामुंडेश्वरी पर 36000 से अधिक वोटों से हारे और दूसरी सीट से मात्र 1600 वोट से जीत सके। चुनाव के दौरान मौजूदा सरकार के 10 मंत्री हार गए।
दूसरी तरफ देवगौड़ा की पार्टी जनता दल सेक्यूलर ने बीएसपी के साथ मिलकर सभी सीटों पर चुनाव लड़ा और सिर्फ 38 सीटें हासिल कीं। इनमें से भी कुमारस्वामी चूंकि दो जगहों से लड़े थे, इसलिए उन्हें एक सीट से इस्तीफा देना होगा और इस तरह कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन में एक सीट कम हो जाएगी। यहां उल्लेखनीय है कि चुनाव अभियान के दौरान कांग्रेस और जेडीएस ने एक दूसरे के खिलाफ प्रचार किया था। जबकि जेडीएस के प्रति भाजपा का रुख अपेक्षाकृत नरम रहा था।
तो सीन यह है कि 104 सीटें जीतने वाली भाजपा और 78 सीटें जीतने वाली कांग्रेस को छोड़कर 37 सीटें जीतने वाली पार्टी जेडीएस के नेता कुमारस्वामी कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। बताया जा रहा है कि वे बुधवार को शपथ लेंगे। सरकार का स्वरूप क्या होगा इस पर अभी सिर्फ कयास ही लगाए जा रहे हैं। सरकार में उप मुख्यमंत्री का पद होगा या नहीं या फिर कांग्रेस के कितने केबिनेट मंत्री होंगे, उन्हें विभाग कौन कौन से मिलेंगे यह सब अभी तय होना है। फैसला तो विधानसभा के स्पीकर का भी बहुत कठिनाई से होगा क्योंकि ऐसी सरकारों के मामले में पेंच फंसने पर विधानसभा में स्पीकर की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।
जाहिर है ये सारी बातें आसानी से तय होनी वाली नहीं हैं। गठबंधन सरकारों की सबसे बड़ी मुश्किल घटक दलों के हितों को साधने के दौरान आती है। हरेक दल अपना दबाव बनाए रखना चाहता है और इतिहास गवाह है कि ऐसी सरकारें ऐसे ही दबावों के चलते टूटी या बिखरी हैं। नए गठबंधन के साथ तो एक मुश्किल और है कि उनमें वैचारिक साम्य जैसी भी कोई बात नहीं है। यह विशुद्ध रूप से मौके का फायदा उठाने के लिए किया गया गठबंधन है, जो कितने दिन चलेगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि राहुल गांधी और कुमारस्वामी या उनके पिता देवगौड़ा के बीच निरंतर संवाद के रिश्ते कैसे बने रहते हैं।
फिलहाल यह लग रहा है कि भाजपा सरकार में न आ जाए इस ‘डर’ का गोंद इन दोनों दलों को चिपका कर रखेगा, लेकिन इस गोंद के असर को कम करने के लिए बाहर से जोड़ तोड़ का ‘पानी’ भी लगातार डाला जाएगा। वह पानी अपना असर कब दिखाता है और कब इस पकड़ को कमजोर करता है, गठबंधन का भविष्य तब तक ही सुरक्षित रहेगा।
भाजपा की ओर से यह रणनीतिक चूक हुई कि उसने धैर्य नहीं रखा और सरकार बनाने की जल्दबाजी में पूरी बाजी ही गंवा दी। अब उसे बाजी अपनी मुट्ठी में करने के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा। वह यदि पहले ही इस इंतजार के लिए राजी हो जाती तो शुचितापूर्ण राजनीति का मैडल भी अपनी छाती पर लगाती और कर्नाटक की मिलीजुली सरकार के गिरने पर ठसक के साथ यह भी कहती कि देखा, हम तो पहले ही कहते थे कि सरकार सिर्फ हम चला सकते हैं, कांग्रेस और बाकी दल अब सरकार चलाने लायक नहीं रहे हैं… पर उसने यह मौका गंवा दिया।
कर्नाटक में आज नहीं तो कल स्थितियां बदलेंगी। जब बिहार जैसे राज्य में नीतीश कुमार जैसा नेता लालू को छोड़कर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के साथ आ सकता है तो फिर कुमारस्वामी की हैसियत तो कुछ भी नहीं है। पर भाजपा को इसमें अपनी ओर से जोर आजमाइश नहीं करनी चाहिए। स्वाभाविक तौर पर गठबंधन के टूटने के बाद कांग्रेस का अलग होना और कुमारस्वामी का अपने लिए सहारा ढूंढना लाजमी है। भाजपा उस समय का इंतजार करे, कुमारस्वामी को फोड़ने के बजाय उन्हें खुद अपने पास आने दे। वैसी स्थिति में मुख्यमंत्री भी भाजपा का बनेगा और सरकार पर दबदबा भी उसीका रहेगा।
इस पूरे एपीसोड में सबसे ज्यादा मुश्किल कांग्रेस को आने वाली है। कर्नाटक में उसकी सहनशक्ति की परीक्षा होगी। पूरी संभावना है कि उसे कदम कदम पर अपमाजनक स्थितियों का भी सामना करना पड़े। सब कुछ सहन करना उसकी मजबूरी होगी क्योंकि वह किसी भी कीमत पर बाजी मोदी-शाह की झोली में जाने देना नहीं चाहेगी। याद रखें, यह गठबंधन कांग्रेस के सम्मान और चुनाव में उसके द्वारा जेडीएस की तुलना में हासिल की गई करीब दुगुनी सीटों की अहमियत को तिलांजलि देकर हुआ है।
भाजपा को तो बस छींके के नीचे बैठे रह कर आराम से इंतजार करना है कि वह कब टूटे… टूटना तय है। और जिस दिन यह टूटा, सत्ता के मक्खन की हंडिया भाजपा की झोली में होगी। वैसे भी हमारे लोकतंत्र ने जो आकार ले लिया है उसमें सत्ता सिर्फ एक छींका बनकर ही तो रह गई है। राजनीतिक दल तो बिल्लियां बनकर, बस उसके टूटने का इंतजार भर करते रहते हैं।