राकेश अचल
संसद में सवाल पूछना आखिर क्यों रोका जा रहा है? क्या सरकार संभावित सवालों से घबराई हुई है, या उसे सवालों और सवालकर्ताओं से चिढ़ है? संसद ही लोकतंत्र में एक ऐसा मंच है जहां सरकार जनता के प्रति जवाबदेही से मुकर नहीं सकती लेकिन बीते 58 साल में ये पहली बार हो रहा है कि संसद का प्रश्नकाल बिना आम सहमति के समाप्त किया जा रहा है। लगता है कि ये कदम किसी अशुभ की पृष्ठभूमि है।
देश में जब टीवी नहीं था उस समय में भी मैं देर रात आकाशवाणी पर संसद समीक्षा पूरी दिलचस्पी से सुना करता था। उस समय मैं न पत्रकार था और न लेखक, एक सामान्य छात्र था। मेरी ये आदत आज भी है जबकि संसद में पहले जैसे न महापुरुष हैं और न पहले जैसी विचारोत्तेजक, रोचक और हास-परिहास वाली बहसें। संसद का प्रश्नकाल ही ऐसा होता है जहां एक बार गूंगे सांसद भी जैसे-तैसे अपने संसदीय क्षेत्र और देश-प्रदेश के बारे में सवाल करने का साहस कर लेते हैं, लेकिन अब जब संसद को ही गूंगा बना दिया गया है तब गूंगे सांसदों की कौन चिंता करे?
देश में साधारण परिस्थितियों में आपातकाल लगाने वाली इंदिरा गांधी के जमाने में भी संसद का प्रश्नकाल स्थगित या समाप्त नहीं किया गया था। देश के संसदीय इतिहास में शायद 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री ने संसद का प्रश्नकाल रद्द किया था लेकिन इसके लिए भी पहले सर्वदलीय बैठक बुलाई थी और उसमें आमसहमति के बाद ही ये निर्णय लिया गया था। आज की सरकार में ये सौजन्य भी नहीं बचा है की वो ऐसे महत्वपूर्ण निर्णयों में सबको शामिल करने के बारे में सोचे भी।
लोकतंत्र में अपवाद सब जगह होते हैं। 2020 में संसद का प्रश्नकाल समाप्त करना भी शायद एक अपवाद ही हो। भविष्य की सरकारें शायद इसका अनुसरण नजीर मानकर न करें। आपको बता दूँ कि लोकसभा की किसी एक दिन की प्रश्नसूची में कुल 20 तारांकित प्रश्न होते हैं। अतारांकित प्रश्नसूची में अधिकतम 230 प्रश्न होते हैं। राज्यसभा में तारांकित प्रश्नों की कोई निश्चित सीमा नही है, लेकिन एक दिन की अतारांकित प्रश्नसूची में ज्यादा से ज्यादा 200 प्रश्न होते हैं।
लोकसभा का कोई सदस्य एक दिन में अधिकतम पांच प्रश्न तक कर सकता है। इनमें भी तारांकित श्रेणी का सिर्फ एक प्रश्न पूछ सकता है। राज्यसभा में कोई सदस्य तारांकित श्रेणी के तीन प्रश्न तक पूछ सकता है। नियमानुसार तो 11 से 12 बजे के निर्धारित एक घंटे के प्रश्नकाल में 20 प्रश्न हो जाने चाहिए। इस प्रकार हर प्रश्न को तीन मिनट की औसत अवधि में निपट जाना चाहिए। लेकिन अक्सर ऐसा हो नहीं पाता। प्रायः प्रश्न पर पांच से दस मिनट तक समय लग जाता है। इस कारण एक घंटे के प्रश्नकाल में प्रत्येक दिन के 20 तारांकित प्रश्नों की सूची में से अधिक से अधिक पांच-सात प्रश्नों पर ही मौखिक चर्चा हो पाती है।
संसद के प्रश्नकाल के बाद का समय शून्यकाल यानी जीरो ऑवर भी कहा जाता है। इस समय सदस्य लोकमहत्व के किसी भी सवाल को उठा सकता है। मुझे याद है कि अनेक अवसरों पर इसी शून्यकाल में कोई न कोई ऐसा मुद्दा उठाया गया कि उस पर जोरदार हंगामा हुआ और सदन चल नहीं पाया। सातवीं और आठवीं लोकसभा में तो ये शून्यकाल 5 से 32 मिनिट तक ही बमुश्किल चल पाया था।
प्रश्नकाल या शून्यकाल रद्द करना एक राजनीतिक फैसला है इसलिए इस पर राजनीति भी शुरू हो गयी है। और राजनीति होना भी चाहिए। इस मुद्दे पर कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, आरजेडी समेत कई विपक्षी पार्टियां एकजुट हैं। उनका कहना है कि “ये सांसदों के मूल अधिकारों का हनन है, सरकार से प्रश्न पूछना हमारा अधिकार है। हम जनता की तरफ से यह सवाल पूछते हैं।‘’
विपक्षी पार्टियों ने लोकसभा स्पीकर ओम बिरला और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू से अपील की है कि इस फैसले पर दोबारा विचार किया जाए, पर मुझे नहीं लगता कि इस बारे में पुनर्विचार किया जाएगा, क्योंकि सरकार को देश की प्रश्नाकुलता से बचाने का यही एक मात्र रास्ता है। और किस में इतना साहस है कि वो सरकार की इस मंशा के खिलाफ जा सके।
आपको विदित ही है कि संसद का मॉनसून सत्र 14 सितंबर से 1 अक्टूबर तक चलेगा। इसमें कोविड-19 सुरक्षा प्रोटोकॉल का खासा ध्यान रखा गया है। इस सत्र के दौरान कोई भी छुट्टी नहीं होगी यानि ‘ब्रेकलेस सेशन’ होगा। 14 सितंबर से 1 अक्टूबर तक कुल 18 बैठकें होंगी। लोकसभा की कार्रवाई 14 सितंबर को पहले दिन सुबह 9:00 बजे से दोपहर 1:00 बजे तक चलेगी। 15 सितंबर से 1 अक्टूबर तक दोपहर 3:00 बजे से शाम 7:00 बजे तक लोकसभा के सदन की बैठक होगी। इसी प्रकार राज्यसभा की कार्यवाही भी 14 सितंबर को दोपहर को 3:00 बजे से शाम 7:00 बजे होगी। लेकिन 15 सितंबर से 1 अक्टूबर तक ऊपरी सदन की बैठक सुबह 9:00 बजे से 1:00 बजे तक रहेगी।
इस मसले पर कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने याद दिलाया है कि मैंने चार महीने पहले कहा था कि मजबूत नेता महामारी को लोकतंत्र खत्म करने के तौर पर इस्तेमाल कर सकते हैं। थरूर कहते हैं कि संसदीय लोकतंत्र में सरकार से सवाल पूछना एक ऑक्सीजन की तरह है। लेकिन ये सरकार संसद को एक नोटिस बोर्ड की तरह बनाना चाहती है और अपने बहुमत को रबर स्टांप के तौर पर इस्तेमाल कर रही है।
जिस एक तरीके से अकाउंटबिलिटी तय हो रही थी, उसे भी किनारे किया जा रहा है। सरकार विपक्ष के दबाव में आकर शून्यकाल को बहाल करेगी या नहीं अभी कहा नहीं जा सकता। मुमकिन है कि सरकार मान भी जाए और मुमकिन है कि न भी माने !
आजकल सरकार सवालों से भागती नजर आती है। मौजूदा प्रधानमंत्री तो अरसे पहले सवालों का सामना करने की पुरानी परम्परा तोड़ चुके हैं, उनके पास मोरों को दाना चुगाने का समय तो है लेकिन मीडिया से बात करने का समय नहीं। प्रधानमंत्री जब-तब अपने पसंदीदा न्यूज चैनल या अखबार को स्क्रिप्टेड साक्षात्कार जरूर देते हैं, जिसमें सवाल भी पूर्व निर्धारित और पूर्व स्वीकृत होते हैं।
मीडिया के सवालों से इतना परहेज तो अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी नहीं करते। सवालों से लगातार भागना एक गुण भी है और अवगुण भी। अब ये आपके ऊपर है कि आप किसे पसंद करते हैं। मै आपको सिर्फ इतना बता सकता हूँ कि भारतीय समाज एक प्रश्नाकुल समाज है और यहां के नायक प्रश्नों से भागते नहीं उनके उत्तर देते हैं, समाधान करते हैं… और जो समाधान नहीं करते, प्रश्नों से भागते हैं उन्हें इतिहास विस्मृत कर देता है।