अजय बोकिल
पुरानी कहावत है कि भगवान उनकी मदद करते हैं, जो अपनी मदद आप करते हैं। लेकिन चुनावी जीत के हिसाब से भगवान उन्हीं की मदद करते हैं, जो जनता की मदद करता है। लिहाजा केरल में इस विधानसभा चुनाव में भगवान लेफ्ट फ्रंट के साथ हैं। ऐसा दावा है राज्य के मुख्यमंत्री पी. विजयन का। केरल में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान हो चुका है। नतीजे 2 मई तक आएंगे, लेकिन इस बीच भगवान किस सियासी गठबंधन या दल के सिर पर ताज रखने वाले हैं, इसको लेकर दिलचस्प बहस चल पड़ी है। ऐसी बहस, जिसमें किसी अदृश्य शक्ति में आस्था, आत्मविश्वास अथवा हताशा को एक साथ पढ़ा जा सकता है।
या यूं कहें कि चुनाव और युद्ध चाहे कितनी ही तैयारी के साथ लड़े जाएं, अंतिम विजय का विश्वास भगवान के भरोसे ही बनता है और अमूमन नास्तिक समझे जाने वाले कम्युनिस्ट भी इसका अपवाद नहीं हैं। हालांकि कुछ लोग इसे पुराने साम्यवादी पी. विजयन का ‘नहले पर दहला’ भी मान रहे हैं। इसकी एक वजह ओपिनियन पोल में संभवत: पहली बार राज्य में वाम मोर्चा (एलडीएफ) के सत्ता में लौटने की संभावना जताया जाना भी है। असल नतीजा जो भी हो, तब तक चर्चा रस का आनंद लेने से तो कोई किसी को रोक नहीं सकता।
दरअसल राज्य में थका देने वाले चुनाव की समाप्ति के बाद ‘हरि स्मरण’ का यह दौर तब शुरू हुआ, जब केरल की असरदार उच्च जाति नायरों की संस्था ‘नायर सर्विस सोसाइटी’ के मुखिया जी. सुकुमारन ने मतदान के दिन मीडिया से कहा कि चुनाव में लोग उसी को वोट देंगे, जो धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय कायम रखेगा। साथ ही लोग उसे ही वोट देंगे, जो लोगों की धार्मिक भावनाओं की रक्षा करेगा। राज्य की एलडीएफ सरकार यह नहीं कर सकती। सुकुमारन ने यह भी कहा कि हम सुनिश्चित करेंगे कि सबरीमाला का अभिशाप विजयन सरकार को दूसरी बार मौका नहीं दे।
इस तीखे कमेंट के जवाब में मुख्यमंत्री पी. विजयन ने अपना वोट डालने के बाद कहा कि सुकुमारन के पास ऐसा कहने के अलावा और कोई चारा नहीं है, क्योंकि वो भगवान अय्यप्पा (भगवान विष्णु का एक रूप) के भक्त हैं। लेकिन भगवान अय्यप्पा एवं अन्य सभी देवता तथा हिंदूतर धर्मों के देव भी इस चुनाव में (एलडीएफ) सरकार के साथ हैं, क्योंकि यह सरकार जनता की रक्षक है। विजयन ने कहा कि ‘सभी देवता उसके साथ होते हैं, जो जनता का भला करता है।‘ इस बयान पर राज्य में मुख्य सियासी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की तरफ से जवाबी सवाल आया कि इसके पहले विजयन ने कब भगवान अय्यप्पा को याद किया? कांग्रेस सांसद वी. मुरलीधरन ने कहा कि अब चूंकि एलडीएफ को जीत की कोई संभावना नहीं दिख रही है तो भगवान अय्यप्पा याद आ रहे हैं।
विजयन के कमेंट के दो अर्थ हैं। पहला तो यह कि भगवान का अस्तित्व है और वह उनके साथ है, जो जनता का भला चाहता है। या यूं कहें कि जनता की भलाई ही ईश्वर की आराधना है। दूसरे, भगवान का कोप उन पर होता है, जो जन भावना की कदर नहीं करते। अर्थात दोनों स्थितियो में कम से कम भगवान का दृश्य-अदृश्य अस्तित्व तो मान्य कर ही लिया गया है। हालांकि यदि विजयन दोबारा सत्ता में आए तो वो मोर्चे की जीत में ‘भगवान की कृपा’ को मान्य करेंगे या नहीं, कह नहीं सकते। क्योंकि वामपंथी विचार मूलत: भौतिकवादी और भौतिक उन्नति को ही सत्य मानने वाला है।
लेकिन राजनीतिक विवशताओं और इस देश में धर्म और जाति की गहरी जड़ों ने लेफ्ट को अपने विचारधारा पर किंचित ही सही, पुनर्विचार पर मजबूर तो किया है। ऐसे में विजयन ने भले कटाक्ष के रूप में भगवान अय्यप्पा का नाम लिया हो, लेकिन अपनी संभावित जीत को धार्मिक वैधता दिलाने की कोशिश उन्होंने अभी से शुरू कर दी लगती है।
भारतीय समाज में धर्म की सत्ता और आस्था की गहराई को बेमन से ही सही, स्वीकारने की आहट वाम खेमे में पिछले कुछ समय सुनाई देती रही है। हालांकि कई कम्युनिस्टों की निगाह में यह केवल ‘रणनीतिक पहल’ है जो अपना राजनीतिक वजूद बचाने के लिए है। अंदरखाने सोच यह है कि देश में बढ़ती धार्मिक कट्टरता से मुकाबले के लिए वाम दलों को धर्म के मामले में अपना रवैया थोड़ा नरम करना चाहिए। क्योंकि बीजेपी इस धार्मिक कट्टरता का इस्तेमाल अपने राजनीतिक हित साधन के लिए खुलकर कर रही है।
दूसरे शब्दों में कम्युनिस्टों को भी खुद को बचाने के लिए भगवान के करीब जाना चाहिए। उन्हें यह जताने की पूरी कोशिश करनी चाहिए कि वो ‘भगवान के खिलाफ’ नहीं हैं। सीपीएम खेमे में यह बात संजीदगी के साथ महसूस की गई कि उसे मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों को आरएसएस व अन्य संगठनों की मेहरबानी पर नहीं छोड़ देना चाहिए। धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन में धर्मनिरपेक्ष मानस वाले लोगों का हस्तक्षेप कायम रहना चाहिए। इसका औचित्य ठहराते हुए वरिष्ठ माकपा नेता और पोलिट ब्यूरो सदस्य मोहम्मद सलीम ने पिछले दिनों कहा था कि ऐसा करना अपनी विचारधारा से डिगना नहीं है, यह वक्त की जरूरत है।
इसी नीति के तहत माकपा ने अपने कार्यकर्ताओं को दुर्गापूजा उत्सवों में भाग लेने की अनुमति दी। एक और माकपा नेता नीलोत्पल बसु का तर्क है कि हम भले नास्तिक हों, लेकिन दूसरों को धार्मिक आस्था से नहीं रोकते। दुर्गा पूजा हमारी नजर में एक सामाजिक उत्सव है। एक और माकपा नेता हन्नान मुल्ला के मुताबिक हम बंगाल में दुर्गा पूजा में पूजा पंडालों के भीतर नहीं जाते, लेकिन पंडाल के बाहर बुक स्टॉल लगाकर अपनीविचारधारा का प्रचार जरूर करते हैं ताकि हिंदुत्व और फासीवादी विचारधारा का मुकाबला किया जा सके। हमारा धर्म में विश्वास नहीं है, लेकिन हम दूसरों के धार्मिक विश्वास का अनादर भी नहीं करते।
वैसे बंगाल में वाम की इस ‘धर्म उदार नीति’ को कुछ आलोचकों ने ‘साम्प्रदायिक साम्यवाद’ भी कहा। यही नहीं, कुछ समय पहले माकपा महासचिव सीताराम येचुरी केरल के धार्मिक बोनालु उत्सव में सिर पर कलश धरकर फोटो खिंचाते भी दिखे। यह तस्वीर बहुत वायरल हुई थी। तब कट्टर वामियों ने इसे ‘पुरातनपंथ के साथ समझौता’ कहकर इसकी कड़ी आलोचना की थी। केरल में ही लेफ्ट नेता कार्यकर्ता धार्मिक ‘थैयम’ उत्सव में भागीदारी करने लगे हैं। हालांकि इसके पीछे आस्था का भाव न होकर भाजपा व आरएसएस को इन क्षेत्रों में घुसने से रोकना है।
जाहिर है कि भाजपा की प्रतीकों की राजनीति और धार्मिक निष्ठाओं की खुली अभिव्यक्ति की राजनीति ने लेफ्ट को भी चाहे-अनचाहे उस देहरी तक तो ला दिया है, जहां ‘इंसाफ का मंदिर’ और ‘भगवान का घर’ लगभग एकाकार हो जाते हैं। भाजपा और हिंदूवादी संगठनों की विचारधारा को वामी कितना ही प्रतिगामी या प्रतिक्रियात्मक मानें, लेकिन यह बात सत्य है कि आम जनता को उनके मुहावरों, प्रतीकों और जज्बात में अपनी बात समझाने का हुनर उसने अर्जित कर लिया है।
इस रणनीति का कोई बुद्धिवादी तोड़ कभी सफल नहीं हो सकता। क्योंकि उसकी समझ, मार और पकड़ सीमित है। लेफ्ट की नाकामी का मुख्य कारण यही है कि धर्म जिस देश की आत्मा में बसता हो, उसे ही दरकिनार करके वो अपना राजनीतिक राजपथ गढ़ना चाहते रहे हैं। लेकिन किसी एक केन्द्रीय विचारधारा के साथ साथ लोक विचार, लोक व्यवहार और लोक मानस को भी उतनी ही गहराई से पढ़ना और समझना जरूरी है। पेट की कुलबुलाहट के साथ आस्था का संबल भी उतना ही महत्वपूर्ण है और उसे समझने का धर्म सरलतम मार्ग है।
बीजेपी ने जो राजनीतिक एप्लीकेशन कामयाबी से लागू किया है, उसका निहितार्थ यही है कि केवल पूजा पंडालों के बाहर बुक स्टॉल लगाना दरअसल नदी किनारे बैठकर उसकी गहराई का अंदाज लगाना भर ही है। जनमानस पर काबिज होने के लिए नदी में डुबकी भी लगानी होगी और पूजा पंडाल के भीतर प्रवेश कर देवी आराधना भी करनी होगी। बहरहाल केरल का चुनाव नतीजा जो भी हो, मुख्यमंत्री विजयन ने अय्यप्पा की महत्ता को स्वीकार तो किया है, भले ही यह अपने राजनीतिक शत्रु पर तंज के रूप में ही क्यों न हो! (मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
—————-
नोट- मध्यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्यमत की क्रेडिट लाइन अवश्य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected] पर प्रेषित कर दें।– संपादक