थोड़ा अलाउद्दीन खिलजी के बारे में भी जान लें

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विजयमनोहर तिवारी मध्‍यप्रदेश के वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। उन्‍होंने पद्मावती विवाद पर दो लंबे पत्र लिखे हैं। अपनी ताजा पोस्‍ट में उन्‍होंने अलाउद्दीन खिलजी के बारे में कई तथ्‍य उजागर किए हैं। पूरा ब्‍योरा विजयमनोहर तिवारी की फेसबुक पोस्‍ट से साभार-

अलाउद्दीन खिलजी के बारे में दो बातें

पद्मावती में खिलजी का किरदार निभा रहे रणवीरसिंह ने कल सोशल मीडिया पर एक्टर मैलकम मैकडॉवेल और हीथ लीजर के ऐसे चेहरे पेश किए, जो अपनी अलग-अलग फिल्माें में बेहद डरावने किरदार में हैं। रणवीर ने पद्मावती में अपने किरदार का चेहरा नुमाया करते हुए जाहिर किया कि अलाउद्दीन का किरदार भी ऐसा ही डरावना था। आज आपसे अलाउद्दीन खिलजी के बारे में बात करता हूं। इसके बाद हम पद्मावती प्रसंग को यहीं विराम देंगे और भंसाली की फिल्म का इंतजार करेंगे।

सबसे पहले, जो लोग अलाउद्दीन खिलजी जैसे शासकों को मजहबी नजरिए से देखते हैं, उन्हें जानना चाहिए कि इस्लाम वह करने की इजाजत नहीं देता, जो खिलजी जैसों ने सदियों तक भारत में किया। इस्लाम अमन का पैगाम देता है। पड़ोसी भूखा हो तो आपको अपना पेट भरने के पहले सोचने की हिदायत है। दुनिया के तमाम धर्मों ने जो चंद याद रखने लायक बातें कहीं हैं, यह वाक्य उनमें कोहिनूर की तरह है। ऐसे इस्लाम का कट्टर अनुयायी बताकर खिलजी जैसे बर्बर लुटेरे कातिल भारत काे रौंदने में फख्र मानते रहे। इसलिए इनके कारनामों को पहले जानें, फिर कोई राय कायम करें।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में साठ के दशक में हुए एक शानदार काम पर गौर कीजिए। अतहर अब्बास रिजवी ने भारत में मुस्लिम शासन के लेखकों के अरबी-फारसी के दस्तावेजों का हिंदी में अनुवाद कराया। मैं बहुत जिम्मेदारी से कहना चाहता हूं कि इतिहास में रुचि न भी हो तो ये दस्तावेज हर लाइब्रेरी में होना चाहिए। उनके समय के लेखकों ने हरेक सुलतान को इस्लामी शासक कहकर जमकर तारीफें की हैं। दिल्ली पर कब्जे के बाद बंगाल से लेकर गुजरात तक, मालवा से लेकर दक्षिण भारत तक सदियों तक चले हमलों, लूट, कत्लेआम के रोंगटे खड़े कर देने वाले ब्यौरे हैं। वे अपनी फौजों को भी इस्लाम की फौजें कहते हैं। अभी पद्मावती के कारण अलाउद्दीन खिलजी चर्चा में है इसलिए यहां मैं अपनी बात सिर्फ खिलजी वंश के इसी सुलतान पर केंद्रित रहूंगा। खिलजी वंश का दूसरा सुलतान था अलाउद्दीन, जिसने 1296 से 1316 तक राज किया।

वह 1296 में अपने चाचा-ससुर जलालुद्दीन खिलजी को धोखे से कत्ल करके दिल्ली पर कब्जा करने आया। इसके पहले बूढ़े जलालुद्दीन ने उसे इलाहाबाद के पास कढ़ा का हाकिम बनाया था। कढ़ा की जागीर में रहते हुए दिल्ली के सुलतान जलालुद्दीन की इजाजत के बिना उसने पहली बार लूट के इरादे से विदिशा पर हमला किया। मंदिर तोड़े और जमकर लूट की। विदिशा में ही उसे किसी ने देवगिरी का पता यह कहकर बताया कि यहां तो कुछ भी नहीं है। माल तो देवगिरी में है। दूसरी दफा वह जलालुद्दीन को बरगलाकर देवगिरि को लूटने में कामयाब हुआ। रामदेव वहां के राजा थे। नृशंस तौरतरीकों से हासिल फतह पर खिलजी का यशगान करते हुए जियाउद्दीन बरनी जैसे लेखक लिखते हैं कि देवगिरि में इसके पहले यहां किसी ने इस्लामी फौजों का मुकाबला किया ही नहीं था। खिलजी को देवगिरि से बेहिसाब दौलत मिली। सदियों का संचित खजाना हाथ लगा। दस्तावेजों में हर लूट के हिसाब हैं कि कहां से क्या मिला।

रमजान के दिनों में इफ्तारी के वक्त चचा का कत्ल:
देवगिरि से लौटते हुए उसने दिल्ली का सुलतान बनने का ख्वाब देखा। तब तक जलालुद्दीन को भी अपने धोखेबाज भतीजे के इरादों का अंदाजा हो गया था। फिर भी उसे भरोसा था कि उसका दामाद अलाउद्दीन, जो उसका सगा भतीजा भी है, हुकूमत के लालच में उसकी हत्या की हद तक नहीं जाएगा। मान जाएगा। वह उसे प्यार से अला कहता था। दोनों के बीच समझौते की बातचीत गंगा नदी के किनारे एक शिविर में तय हुई। अलाउद्दीन घात लगाए ही था। जो लोग अलाउद्दीन में एक मुसलमान देखते हैं, उन्हें जानना चाहिए कि उसने बूढ़े और निहत्थे जलालुद्दीन का कत्ल धोखे से रमजान महीने में इफ्तारी के वक्त किया। बेरहमी से उसका सिर काटकर अलग किया गया और कढ़ा-मानिकपुर के अलावा अवध में भी घुमाया गया। वह संवाद बड़े मार्मिक हैं जब वृद्ध जलालुद्दीन सामने आया तो कहता है-मुझसे क्यों डरता है अला। तुझे याद है तू बहुत छोटा था। मेेरे सिर पर चढ़ जाता था। मेरे कपड़ों पर पेशाब कर देता था…। अला उसकी एक नहीं सुनता। पीठ में खंजर घोप देता है…

उस दौर में दुश्मनों के सिर काटकर इस तरह बेइज्जत करना कोई बड़ी बात नहीं थी मगर जिस चाचा ने उसकी बचपन से परवरिश की और अपनी भी बेटी दी, सिर्फ दिल्ली पर कब्जे की जल्दबाजी में उसके इस तरह कत्ल किए जाने पर कई लेखकों ने भी अलाउद्दीन को बुरा-भला कहा। दिल्ली में भी लोग उसके खिलाफ थे। मशहूर जियाउद्दीन बरनी का चचा अलाउलमुल्क अलाउद्दीन के समय दिल्ली का कोतवाल था। बरनी के पास अलाउद्दीन के सबसे विश्वसनीय ब्यौरे हैं। उसने इस घटना का ब्यौरा विस्तार से लिखा है। अलाउद्दीन यहीं नहीं रुका। उसने जलालुद्दीन के दो बेटों यानी अपने चचेरे भाइयों अरकली खां और रुकनुद्दीन को अंधा करने के बाद कत्ल किया। ऐसा शख्स मुसलमान नहीं हो सकता।

देवगिरि की लूट रिश्वत में लुटाई:
जब अलाउद्दीन दिल्ली में दाखिल हुआ तो उसे मालूम था कि दरबार के ताकतवर लोग सुलतान की हत्या से बेहद नाराज हैं। अलाउद्दीन ने अपना जलवा दिखाने के लिए देवगिरि से लूटा गया सोना और जवाहरात सड़कों पर लुटाए। इस बात के रिकॉर्ड हैं कि उसने कड़ा-मानिकपुर से दिल्ली तक हर पड़ाव पर हर दिन पांच मन सोने के सितारे लुटवाए। जलालुद्दीन के सारे भरोसेमंद दरबारियों को मुंह बंद रखने की मोटी कीमत चुकाई। सबको बीस-बीस मन सोना दिया गया। सबने उसकी सरपरस्ती चाहे-अनचाहे कुबूल की। इस तरह वह दिल्ली का सुलतान बना।

देवगिरि की पहली लूट का हिसाब:
उसके समकालीन इतिहासकार बताते हैं कि वह निहायत ही अनपढ़ था। उसे कुछ नहीं आता था। मगर वह कट्टर था। उसकी दाढ़ में भारत के राजघरानों की पीढ़ियों से जमा दौलत का खून विदिशा और देवगिरि में लग चुका था। आखिर उसे देवगिरि में मिला क्या था? देवगिरि की उस पहली लूट का हिसाब बरनी ने यह लिखा है- घेरे के 25 वें दिन रामदेव ने 600 मन सोना, सात मन मोती, दो मन जवाहरात, लाल, याकूत, हीरे, पन्ने, एक हजार मन चांदी, चार हजार रेशमी कपड़ों के थान और कई ऐसी चीजें जिन पर अक्ल को भरोसा न आए, अलाउद्दीन को देने का प्रस्ताव रखा!

बतौर सुलतान 1296 से अलाउद्दीन की खुलेआम लूट, हमलों और कत्लेआम का एक ऐसा सिलसिला शुरू होता है, जो 1316 में अलाउद्दीन के कब्र में जाने तक पूरे भारत में लगातार चलता रहा। अलाउद्दीन के करीब 340 साल बाद औरंगजेब ने भी सन् 1656 में ऐसी ही एक खूंरेज लड़ाई में अपने सगे भाइयों का कत्ल और बाप को कैद करके हिंदुस्तान की हुकूमत पर कब्जा किया था। जब आप पहले से कोई राय कायम किए बिना इतिहास के एक निष्पक्ष जिज्ञासु की नजर से तफसील से अलाउद्दीन और आैरंगजेब के इतिहास को पढ़ेंगे तो पाएंगे दोनों एक जैसे धोखेबाज, क्रूर और कट्‌टर थे। औरंगजेब ने 50 साल तक राज किया। अलाउद्दीन ने 20 साल। भारत की तबाही में अलाउद्दीन औरंगजेब से काफी आगे और भारी दिखाई देगा। अलाउद्दीन के हमलों ने भारत की आत्मा तक को आहत किया। हजारों बेकसूरों को एक झटके में कत्ल करा देना, औरतों-बच्चों को भी न छोड़ना, एक दीनदार मुसलमान के ख्याल में भी यह पाशविकता नहीं हो सकती।

सुलतान बनने के बाद उसने एक बार उलुग खां को गुजरात पर हमला करने का हुक्म दिया। तब गुजरात का राजा करण था। करण हार के डर से देवगिरि चला गया। उलुग खां के हाथ करण का खजाना और रानी कमलादी लगी। युद्ध में परााजित गुलामों के साथ कमलादी को दिल्ली लाया गया और सुलतान के सामने पेश किया गया। अब कमलादी सुलतान की संपत्ति थी। कमलादी की दो बेटियां थीं। एक मर चुकी थी अौर छह महीने की दूसरी बेटी गुजरात में ही छूट गई थी। उसका नाम था देवलदी। उसे दिवल रानी भी कहा गया है। एक बार मौका देखकर कमलादी ने सुलतान को खुश करते हुए अपनी बिछुड़ी हुई बेटी से मिलने की ख्वाहिश की। नन्हीं देवलदी को दिल्ली लाया गया। उसकी परवरिश सुलतान के ही महल में कमलादी के साथ हुई।

कौन थी देवलरानी:
जब अलाउद्दीन के महलों में यह सब चल रहा था तब उसका एक बेटा खिज्र खां 11 साल का था। दिल्ली में बड़ी धूमधाम से उसकी शादी अलाउद्दीन खिलजी के ही एक करीबी सिपहसालार अलप खां की बेटी से हो चुकी थी। मगर वह देवलदी को भी चाहता था। दोनों साथ ही पले-बढ़े थे। आखिरकार एक दिन चुपचाप देवलदी से भी उसकी शादी हो गई। न कोई जश्न हुआ। न शादी जैसा कुछ। आप सोचिए-सुलतान अलाउद्दीन ने कमलादी को रखा। उसकी बेटी को अपने बेटे के साथ रख दिया! अमीर खुसरो ने खिज्र खां और देवलदी के बारे में खूब लिखा है! वह भी अपने समय की इन घटनाओं का चश्मदीद था।

दक्षिण भारत की हैरतअंगेज लूट:
भारत को लगातार लूटने की अलाउद्दीन की लगातार बढ़ती गई हवस की अपनी वजहें थीं। 1311 में दक्षिण भारत की लूट का हिसाब देखिए-मलिक नायब 612 हाथी, 20 हजार घोड़े और इन पर लदा 96 हजार मन सोना, मोती और जवाहरात के संदूक लेकर दिल्ली पहुंचा। सीरी के राजमहल में मलिक नायब ने सुलतान के सामने लूट का माल पेश किया। खुश होकर सुलतान ने दो-दो, चार-चार, एक-एक और अाधा-आधा मन सोना मलिकों और अमीरों को बांटा। दिल्ली के तजुर्बेकार लोग इस बात पर एकमत थे कि इतना और तरह-तरह का लूट का सामान इतने हाथी और सोने के साथ दिल्ली आया है, इतना माल इसके पहले किसी समय कभी नहीं आया। अलाउद्दीन खिलजी के हर हमले और लूट के ऐसे ही ब्यौरे हैं। इनमें बेकसूर हिंदुओं की अनगिनत हत्याओं के विवरण रोंगटे खड़े करने वाले हैं, जब नृशंस खिलजी के सैनिक हारे हुए हिंदुओं के कटे हुए सिरों को गेंद बनाकर चौगान खेला करते थे।

अलाउद्दीन खिलजी ने खून से हमेशा रंगी रही तलवार से जो बोया, वह जनवरी 1316 में उसकी मौत के कुछ ही महीनों के भीतर उसकी औलादों ने अपने खून की हर बूंद के साथ काटा। सुलतान के ही भरोसेमंद नायब मलिक काफूर ने हिसाब बराबर किया। खिलजी की फौज को लेकर काफूर ने कई बड़ी दिल दहलाने वाली फतहें हासिल की थीं। सुलतान की मौत के पहले ही मलिक काफूर ने सुलतान के कई भरोसेमंद लोगांे को मरवाना शुरू कर दिया था। इसमें अलप खां भी शामिल था। खिज्र खां को उसने ग्वालियर के किले में कैद किया, जहां देवलदी भी उसके साथ थी।

जब सुलतान मरा ताे मलिक काफूर ने सुंबुल नाम के एक गुलाम को ग्वालियर भेजकर खिज्र खां को अंधा करा दिया। सुलतान के दूसरे बेटे शहाबुद्दीन को भी मरवा दिया गया। शहाबुद्दीन सुलतान अलाउद्दीन खिलजी और देवगिरि के राजा रामदेव की बेटी झिताई का बेटा था। रामदेव को भी उसने कई बार लूटा और बेइज्जत किया था। हालांकि मलिक काफूर सिर्फ 35 दिन जिंदा रह सका, अलाउद्दीन के लोगों ने उसे भी खत्म कर दिया। मलिक काफूर को हजार दीनारी भी कहा जाता है। उसे एक हजार दीनार के बदले खरीदा गया था। कहते हैं कि वह एक हिंदू गुलाम था, जो मुसलमान बन गया था।

दोस्तो, जो लोग मजहबी नजरिए से अलाउद्दीन खिलजी जैसे सुलतानों-बादशाहों को अपने आदर्श पूर्वज के रूप में देखकर विजेता के भाव से खुश होते हैं, उनसे एक गुजारिश करूंगा। वे अपनी वंशावलियों के बारे में जरा सोचें। वे कौन थे, क्या थे, क्या से क्या बना दिए गए थे और थोड़ा उन बदनसीब औरतों का ख्याल करें, जो हर साल हजारों की तादाद में युद्ध में हार के बाद उठा ले जाई जाती थीं। सुलतानों की तरफ से वे जिन महानुभाव विजेताओं में भी तोहफे की तरह बांटी गई होंगी, उनके बच्चे और उनके भी बच्चों के बच्चे हुए होंगे। वे कहां गए?

क्या आपको आज के लखवी-हाफिज-गिलानी-जिलानी-जिन्ना में उन्हीं बेबस बच्चों के चेहरे दिखाई नहीं देते? बस याददाश्त पर जोर डालने भर की दूरी और देरी है। कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि वह दुर्गम दौर हम सबका भोगा-भुगता है। वह हमारी साझी मुसीबत थी, जो सदियों तक देश ने झेली। कोई इसमें खुद को अलग न माने। और इसकी कीमत भी किसी इस या उस तबके ने नहीं चुकाई। इसकी कीमत भारत ने चुकाई। 1947 में तो देश के ही टुकड़े हो गए!

 

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