हवाई और रेल यात्रा के बाद अब सड़क की बारी

राकेश अचल

तमाम जोखिमों के बावजूद सरकार को देश में लम्बे लॉकडाउन के बाद पहले रेल फिर हवाई यात्रा को हरी झंडी देना पड़ी, लेकिन जब तक सड़क पर चलने वाला सार्वजनिक परिवहन शुरू नहीं होता तब तक जन-जीवन को सामान्य नहीं बनाया जा सकता। और यही काम सबसे ज्यादा जोखिम का है। कोरोना वायरस से बचने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग का आवागमन के किसी भी साधन में इंतजाम नहीं है। अदालतें भी इस मामले में आदेश देकर दस दिन के लिए पीछे हट गयीं। अब सब जनता के विवेक पर निर्भर करता है।

सरकार ने जब देश में मजदूरों को उनके घर भेजने के लिए श्रमिक एक्सप्रेस आरम्भ की थीं, तो उनमें भी सोशल डिस्टेंस लागू करना असम्भव हो गया। बाद में 200 यात्री रेलों में भी इसकी व्यवस्था नहीं की जा सकी। 62 दिन बाद शुरू हुई हवाई सेवा में भी सोशल डिस्टेंस को लागू नहीं कराया जा सका। सुप्रीम कोर्ट ने भी हवाई जहाजों में बीच की सीट खाली रखने के आदेश को वापस ले लिया।

हकीकत है कि नए संकट के हिसाब से हमारे पास क्या, दुनिया में किसी के पास सार्वजनिक यात्रा को बदलने की सुविधा नहीं है। हवाई जहाज हों या रेलें या बसें उन्हें सोशल डिस्टेंसिंग के हिसाब से बनाने में जितना समय लगेगा उतने में पूरी दुनिया बदल जाएगी, इसलिए जैसा है वैसे में ही गुजर करना होगी।

रेल और हवाई यात्रा से देश के बहुसंख्यक अवाम को राहत नहीं मिली है। देश में आज भी सड़कें सबसे ज्यादा यात्री ढोती हैं। आपको बता दें कि लॉकडाउन से पहले देश में रोजाना 7 हजार यात्री ट्रेनें चलाई जाती थीं, जो प्रतिदिन 13 मिलियन यात्रियों को यात्रा कराती थीं। इस समय केवल 200 ट्रेनें चल रही हैं, जो ऊँट के मुंह में जीरा जैसी है।

भारत में आज भी 85 फीसदी यात्री सड़क मार्ग से आते-जाते हैं, आज भी 60 फीसदी माल परिवहन सड़क से ही होता है, लेकिन लॉकडाउन ने सब कुछ बंद कर रखा है। कुछ राज्यों में अंतरजिला बस सेवाएं आरम्भ की गई हैं, लेकिन स्थानीय सड़क परिवहन निजी वाहनों के अलावा एकदम बंद है। इससे बड़ी समस्या पैदा हो रही है।

समस्या ये है कि यदि सड़क परिवहन को पूरी छूट दी जाती है तो कोरोना के विस्फोट का खतरा है। और यदि नहीं दी जाती तो जनता का गुस्सा फूट सकता है1 क्योंकि पूरे दो महीने से जो जहाँ है, वहीं अटका है। ई-पास भी केवल पहुँच वालों को मिले हैं। यूं भी ई-पास कोई स्थाई समाधान नहीं है।

मुश्किल ये है कि भारत में सड़क परिवहन, अत्यंत असुरक्षित और असुविधा वाला है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश यात्री वाहन अनफिट हैं और उनमें सवारियों को भेड़-बकरियों की तरह ठूंसा जाता है। यदि ये सब शुरू हो गयीं तो कोरोना चौत्तरफा फ़ैल जाएगा।

सड़कों पर जब तक बसें, ऑटो रिक्शे और मेट्रो के अलावा लोकल ट्रेनें नहीं चलेंगी तब तक व्यवस्था को पटरी पर लाना नामुमकिन है। लेकिन महाराष्ट्र और गुजरात की जो स्थिति है वो इसकी अनुमति नहीं देती। सवाल ये है कि फिर होगा क्या? क्या लोग आवागमन के लिए भटकते फिरेंगे या घरों में कैद बैठे रहेंगे?

कुछ तो करना होगा, क्या करना होगा ये तय करना सरकार का काम है। सूनी सड़कें अर्थव्यवस्था का सन्नाटा भी गहरा कर रही हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि जितने भी आवागमन के साधन दोबारा शुरू किये जा रहे हैं, वे पहले के मुकाबले मंहगे कर दिए गए हैं। जबकि ऐसा करने का कोई ठोस कारण नहीं है, केवल घाटे को पूरा करने के लिए ऐसा किया जाना ठीक नहीं है।

अब सवाल यही है की आखिर सरकारें इस विषय में अंतिम फैसला कब लेंगी। सड़क परिवहन बंद होने का असर चौतरफा पड़ रहा है। जहाँ माल ढुलाई में कमी के कारण सप्लाई चैन ध्वस्त हो रही है, वहीं यात्रियों की असुविधाएं लगातार बढ़ रही हैं। सामाजिक ताना-बाना टूट रहा है। अगले एक-दो सप्ताह में यदि सड़क यातायात बहाल न किया गया तो स्थिति गंभीर और नियंत्रण से बाहर हो सकती है।

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टीम मध्‍यमत

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