बजट मध्यप्रदेश
गिरीश उपाध्याय
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1 फरवरी को जब संसद में वित्त वर्ष 2021-22 का बजट पेश किया था तो उस समय बजट के सबसे प्रमुख बिंदु में यह बात सामने आई थी कि सरकार की कुल आय का 36 प्रतिशत हिस्सा उधार और अन्य देनदारियों से आता है और कुल खर्च का 20 फीसदी हिस्सा ब्याज और अन्य देनदारियों पर खर्च होता है। यानी हमारी सरकार की जेब भी ज्यादातर उधार के पैसे से भरती है और खाली भी उधारी चुकाने में होती है।
मंगलवार को मध्यप्रदेश विधानसभा में प्रस्तुत वर्ष 2021-21 के बजट की कहानी भी इससे अलग नहीं है। वित्त मंत्री जगदीश देवड़ा ने अगले वित्त वर्ष का 2,41,375 करोड़ रुपये का बजट प्रस्तुत करते हुए बताया कि राज्य का कुल राजकोषीय घाटा 50 हजार 938 करोड़ रुपये अनुमानित है। इस साल सरकार को कुल बजट की 12.72 फीसदी राशि कर्ज का ब्याज देने में खर्च करना पड़ेगी। हालांकि अच्छी बात यह है कि वित्त मंत्री ने नए बजट में न तो कोई नया कर लगाया है और न ही करों की दरों में कोई बदलाव किया है।
चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें। उनका कर्ज की अर्थव्यवस्था पर इस तरह लगातार आश्रित होते जाना भविष्य के लिए गंभीर खतरे का संकेत है। एक ओर यह हमारे आर्थिक संसाधनों की तंगी की तरफ इंगित करता है वहीं दूसरी ओर यह भी बताता है कि आर्थिक संसाधन विकसित करने के मामले में हम अब भी नए तरीके से नहीं सोच पा रहे हैं। ऋणं कृत्वा घृतम पीवेत के सदियों पुराने दर्शन को आज भी एकमात्र उपाय के रूप में देखा जा रहा है।
आश्चर्यजनक बात यह है कि सरकारें कर्ज को एक नकारात्मक प्रवृत्ति के तौरपर देखने के बजाय उसे एक उपलब्धि के तौर पर देखने और प्रस्तुत करने की आदी होती जा रही हैं। कुछ सालों से यह ट्रेंड बन गया है कि कर्ज लेने की मजबूरी (या अपराध?) को आर्थिक सक्षमता की निशानी बताया जाने लगा है। बजट में कर्ज की बढ़ती हिस्सेदारी पर जब भी सवाल होता है यही कहा जाता है कि कर्ज उसे ही मिलता है जो उसे चुकाने की क्षमता रखता हो। और कर्ज के औचित्य को साबित करने के लिए यह बात भी नत्थी कर दी जाती है कि इस राशि से सरकार विकास के कार्य करेगी। यानी सरकार के अपने स्रोतों से होने वाली ज्यादातर आय अब विकास कार्यों में लगने के बजाय उसके रोजमर्रा के खर्चों में ही जाया हो रही है।
कर्ज पर लगातार बढ़ रही निर्भरता की ये स्थितियां जो गड्ढा पैदा कर रही हैं उसे भर पाना शायद सरकारों के लिए कभी मुमकिन न हो। और एक दिन ऐसा आए जब कर्ज का यह जाल सरकारों को छटपटाने के लिए मजबूर कर दे। मध्यप्रदेश के ताजा बजट को ‘आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश’ की परिकल्पना साकार करने वाला बताया गया है। लेकिन प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाने से पहले और ज्यादा जरूरी है कि हम अपने बजट को आत्मनिर्भर बनाने पर ध्यान दें। बजट जब खुद ही आत्मनिर्भर नहीं होगा, उसे अपनी सांसों के लिए हवा भी उधार लेनी पड़ेगी तो शरीर कैसे लंबे समय तक चल सकेगा।
कोरोना महामारी के चलते जो परिस्थितियां पैदा हुई हैं उनके कारण यह स्वाभाविक ही था कि प्रदेश के विकास की गति रुकती और वैसा ही हुआ है। आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि वर्ष 2019-20 में प्रदेश की प्रति व्यक्ति सालना औसत आय 103228 रुपये थी जो वर्ष 2020-21 यानी कोरोना काल में घटकर 98418 रुपये रह गई। यानी प्रतिव्यक्ति सालाना आय में 4870 रुपये की कमी आई है। इसी तरह वर्ष 19-20 की तुलना में वर्ष 20-21 में प्रदेश की आर्थिक विकास दर में भी 3.37 फीसदी की कमी का अनुमान है। हालांकि यह अस्वाभाविक नहीं है। जो परिस्थितियां बनी थीं उनके चलते ऐसा होना ही था।
लेकिन अब सवाल यह है कि अगले बजटों में इन परिस्थितियों को सुधारने के उपाय क्या किए जा सकते हैं। निश्चित रूप से और ज्यादा कर्ज लेना, न तो कोई उपाय हो सकता है और न ऐसा करना हितकर होगा। हमें यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि कोरोना ने जिस तरह बजट की सेहत को बिगाड़ा है उसमें सुधार कोई एक दो बजट से नहीं हो सकता। यदि हम नई सोच और नए स्रोतों की तलाश के बिना, परंपरागत या फिर यथास्थितिवादी तरीके से चलते रहे तो इसके लिए कम से कम चार-पांच बजट का समय लगेगा।
मध्यप्रदेश जैसे राज्यों के साथ एक दिक्कत और है कि उनके पास राजस्व जुटाने के साधनों का संसार भी बहुत छोटा है। यहां न तो बड़े उद्योग हैं और न ही कोई बड़ी निर्माण इकाइयां। आज भी प्रदेश की अर्थव्यवस्था मूल रूप से कृषि और उसे जुड़े कामधंधों पर ही टिकी है। प्रदेश का युवा इसके अलावा थोड़ा बहुत सर्विस सेक्टर में रोजगार पा लेता है। लेकिन इन दोनों ही क्षेत्रों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे बजट को होने वाले इतने बड़े घाटे को संभाल सकें।
इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले कुछ सालों में मध्यप्रदेश के कृषि क्षेत्र ने अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान किया है। प्रदेश की कृषि विकास दर ने आर्थिक विश्लेषकों को भी चौंकाया है। खुद वित्त मंत्री ने बजट प्रस्तुत करते हुए बताया कि कोरोना महामारी के बावजूद वर्ष 20-21 में सरकार ने 15.81 लाख किसानों से एक करोड़ 29 लाख 42 हजार टन गेहूं खरीदा। पर किसानों द्वारा प्रचंड उत्पादन करने और उनसे प्रचंड खरीद कर लेने से ही तो बात नहीं बनती। समग्र विकास के लिए और भी बहुत कुछ चाहिए होता है।
प्रदेश में कृषि उत्पादन तो अच्छा खासा बढ़ा है लेकिन उसको भी कर्ज की अर्थव्यवस्था की तरह अब भी सामान्य लेन-देन की तरह ही देखा जा रहा है। प्रदेश की कृषि को राज्य की अर्थव्यवस्था में गति लाने वाले टूल के रूप में देखने और जोड़ने की दिशा में बहुत कम ध्यान दिया गया है। इसके लिए फूड प्रोसेसिंग जैसे क्षेत्र में संभावनाएं तलाशने और उससे भी ज्यादा उन संभावनाओं पर अमल करने में अपेक्षित तेजी नहीं लाई जा सकी है। प्रदेश की कृषि राज्य की आर्थिक सेहत का आधार हो सकती है, पर उसके लिए कृषि और उद्योग को जोड़ने वाली समन्वित नीति पर काम करना होगा।
मध्यप्रदेश की एक खासियत यहां जमीन और वनों की प्रचुर उपलब्धता है। यह राज्य देश के बीचोंबीच होने के बावजूद आज भी उन गिने चुने प्रदेशों में है जहां का पर्यावरण अपेक्षाकृत उतना दूषित नहीं हुआ है। प्रदेश को एक स्वच्छ पर्यावरण प्रदेश की तरह विकसित करते हुए लोगों को यहां आने और बसने के लिए आमंत्रित किया जा सकता है। इसी तरह पर्यटन क्षेत्र में भी संभावनाओं को और अधिक टटोला जाना चाहिए। वनों का दोहन कर पूंजी जुटाने के बजाय उन्हें पर्यटन का केंद्र बनाकर पूंजी जुटाने की योजनाओं पर और काम होना चाहिए।
मध्यप्रदेश में मानव संसाधन की कमी नहीं है। लेकिन यहां के मानव संसाधन में अपेक्षित कौशल की कमी जरूर है। उन युवाओं को, जो अन्य प्रदेशों के प्रतिस्पर्धी माहौल में स्वयं को टिका नहीं पाते, स्थानीय आवश्यकताओं और संभावनाओं के अनुरूप प्रशिक्षित करके, कुशल बना कर, स्थानीय तौर पर ही रोजगार के संसाधन मुहैया कराए जा सकते हैं। प्रदेश की प्राकृतिक संपदा और कृषि क्षेत्र इसमें बहुत बड़े टूल का काम कर सकते हैं। कुल मिलाकर प्रदेश का नया बजट आत्मनिर्भरता के संकल्प को दर्शाता तो है लेकिन उस लक्ष्य को प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों और मजबूरियों को भी रेखांकित करता है।