कुछ नहीं बदला सिवाय मुख्यमंत्री के

राकेश अचल 

आगामी 30 जून को मध्यप्रदेश में सत्ता परिवर्तन के सौ दिन पूरे हो जायेंगे लेकिन अभी तक प्रदेश में सिवाय मुख्यमंत्री के कुछ नहीं बदला है। मुख्यमंत्री के पद पर कमलनाथ के स्थान पर शिवराजसिंह चौहान के आने से सूबे की तस्वीर में रत्ती भर भी तब्दीली नहीं हुई है। जो अनिश्चय का वातावरण 22 मार्च तक था वो ही आज भी बरकरार है और लगता है कि जब तक 24 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव नहीं हो जाते तब तक बरकरार रहेगा।

कोरोनाकाल में कांग्रेस सरकार का तख्ता पलट कर मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान अभी एक सांकेतिक मंत्रिमंडल के सहारे प्रदेश की सरकार चला रहे हैं, वे बस सरकार चला रहे हैं, प्रदेश नहीं। प्रदेश में पिछले 93 दिनों में अगर कुछ हुआ है तो केवल पहले की तरह तबादले हुए हैं। एक-दो वर्चुअल चुनावी रैलियां हो गयी हैं। केंद्र सरकार की एक साल की उपलब्धियों के प्रचारात्मक पर्चे बंटे हैं और कुछ नहीं। ज्यादा से ज्यादा कोरोना के कारण महानगरों से वापस लौटे कुछ मजूरों को सांकेतिक रोजगार इस सरकार ने दिया है।

कोरोना की ढाल लेकर सरकार चला रहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान प्रदेश में अपनी पुरानी छवि को बहाल करने में अभी तक कामयाब नहीं हुए हैं। अभी लोगों को ये लग ही नहीं रहा है कि शिवराजसिंह चौहान दोबारा मुख्यमंत्री बन गए हैं, क्योंकि उनके ऊपर कभी डॉ. नरोत्तम मिश्रा की छाया दिखाई देती है तो कभी नरेंद्र सिंह तोमर की। तीन माह की सरकार की एकमात्र उपलब्धि कांग्रेस के बाग़ी ज्योतिरादित्य सिंधिया को राज्य सभा के लिए चुनकर भेजा जाना है। पार्टी के विधायकों ने असंतोष के बावजूद सिंधिया के पक्ष में चुपचाप मतदान कर दिया।

तीन माहा सरकार के सामने अब सबसे बड़ी चुनौती प्रदेश में ठप्प पड़े प्रशासन को दोबारा ज़िंदा करना है। 70 दिन से ज्यादा लम्बे लॉकडाउन के बाद अनलॉक-1 के बाद भी अभी न जन-जीवन सामान्य हुआ है और न प्रशासन। जनसमस्याओं के निवारण के लिये होने वाली जन सुनवाई अभी भी स्थगित है। सरकारी दफ्तरों में कामकाज अभी तक बहाल नहीं हो पाया है। यानि सब कुछ पटरी पर लाने की चुनौती बरकरार है। सरकार के पास एकमात्र काम कोरोना की रोकथाम है, जबकि कोरोना के अलावा जनता के गम और भी हैं।

मध्यप्रदेश की बिडम्‍बना ये है कि यहाँ अभी सरकार भाजपा की है या नहीं, इसका भरोसा खुद भाजपा को नहीं है। भाजपा जब तक सभी उपचुनाव नहीं जीत लेती, तब तक उसके ऊपर अनिश्चय की तलवार लटकती ही रहेगी। उप चुनाव को लेकर भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा के साथ मुख्यमंत्री का तालमेल वैसा नहीं है जैसा पूर्व अध्यक्ष के साथ था। इसलिए पार्टी में बागियों के मुद्दे पर सामंजस्य बैठा पाना एक बड़ी चुनौती है। आम धारणा तो ये है कि अब चौहान के संकटमोचक ही उनकी सबसे बड़ी समस्या हैं। यानि पहले वाली स्थिति बिलकुल नहीं है।

उप चुनावों से पहले मुख्यमंत्री को विधानसभा का पावस सत्र भी झेलना है। इस संक्षिप्त सत्र में जरूरी कामकाज तो हो जाएगा लेकिन कांग्रेस जिस तरह से भाजपा को घेरने की तैयारी कर रही है, उसका मुकाबला कैसे किया जाएगा यही तय नहीं है। भाजपा ने हालांकि इन तीन महीने में बसपा के अलावा एक अन्य विधायक पर भी डोरे डाले हैं लेकिन ये कब तक भाजपा के साथ रहेंगे कहा नहीं जा सकता। बाग़ी पूर्व विधायकों को उपचुनावों में जितवाना और बाद में उनका पुनर्वास करना भी किसी चुनौती से कम नहीं है।

मुझे लगता है कि ये तमाम बातें जब तक ठीक नहीं हो जातीं तब तक प्रदेश में सरकार चलती दिखाई नहीं देगी और जब तक सरकार चलती हुई दिखाई नहीं देगी तब तक जनता का कल्याण भी नहीं होगा। प्रदेश सरकार को डेढ़ माह बाद ही 15 अगस्त को जनता के सामने अपना अर्धवार्षिक रिपोर्ट कार्ड भी पेश करना है। लेकिन इस रिपोर्ट कार्ड में लिखने के लिए फिलहाल कुछ है ही नहीं।

किसान, युवा और व्यापारी सब के सब सरकार के ऊपर टकटकी लगाए बैठे हैं। 61 साल के शिवराज सिंह चौहान के लिए ये उनके राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा संक्रमणकाल है। आने वाले दिनों में उन्हें उन्हीं महाराज के साथ मिलकर काम करना है जिनको वे डेढ़ साल पहले धकिया चुके थे। बहरहाल हम शिवराज सरकार को उसके सौ दिन पूरे होने के एक हफ्ते पहले ही अपनी शुभकामनाएं देते हैं।

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टीम मध्‍यमत

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