वहां हमें ‘जादू की झप्‍पी’ देने वाला कोई नहीं था…

एक पखवाड़ा मौत के साथ-3

जहां हम खड़े थे वह राजधानी का सबसे बड़ा सरकारी अस्‍पताल था। भोपाल के अलावा आसपास के कई जिलों से आने वाले मरीजों की उम्‍मीद का केंद्र। लेकिन हमें वहां नाउम्‍मीदी के सिवा कुछ नजर नहीं आ रहा था। जब ड्यूटी पर मौजूद डॉक्‍टरों ने सीएमओ की बात लगभग अनसुनी कर दी तो उन्‍होंने कुछ कर्मचारियों को बुलाकर ममता को ऊपर मेडिकल वार्ड में भिजवा दिया।

उधर परिवार के लोग स्‍ट्रेचर पर लेटी ममता को लेकर ऊपर मेडिकल वार्ड में थे और इधर मैं परिवार के हितैषी मित्र के साथ सीएमओ के कमरे में। थोड़ी देर में ऊपर से परिवार के एक सदस्‍य का फोन आया कि वार्ड वाले ममता को अंदर लेने से भी मना कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस मरीज को हम यहां बाकी मरीजों के साथ नहीं रख सकते। हमारे पास अलग से कोई जगह नहीं है।

नीचे मैंने सीएमओ को यह स्थिति बताते हुए उनसे गुजारिश की कि वे कुछ तो करें…। जब वे असहाय से दिखे तो मैंने दुबारा अस्‍पताल अधीक्षक डॉ. दीपक मरावी को फोन लगा लिया। उन्‍होंने टका सा जवाब देते हुए कहा- ‘’मिस्‍टर उपाध्‍याय मुझे जो कहना था मैं सीएमओ को बता चुका हूं, आप अब उनसे ही बात करें।‘’मरावी की खीज भरी आवाज की टोन से साफ था कि मेरा दुबारा फोन करना उन्‍हें बहुत नागवार गुजरा है।

बड़े अफसर की तरफ से नाउम्‍मीदी के बाद हमारी उम्‍मीदें फिर एक बार सीएमओ पर टिक गईं। सीएमओ ने अपने सामने बैठे ड्यूटी डॉक्‍टर से फिर कहा कि वो जाकर कुछ व्‍यवस्‍था करे। जवाब में उस डॉक्‍टर ने, जो शायद जूनियर रेसीडेंट ही रहा होगा, जो जवाब दिया उसने हमें सन्‍न कर दिया। हमारी तरफ मुखातिब होते हुए वह बोला- ‘’रेबीज का मरीज बचता नहीं है, आप लोग बेकार कोशिश कर रहे हैं, इसे भरती करने का कोई मतलब नहीं है, हम भरती करके भी क्‍या करेंगे, आप तो इसे घर ले जाओ…’’

कई बार सुना तो जरूर था कि मरीजों का इलाज करते करते डॉक्‍टरों की संवेदनाएं खत्‍म हो जाती हैं, लेकिन इतनी गहराई से उस बात का अहसास पहली बार हुआ। उस डॉक्‍टर ने जो कहा उसका सीधा सीधा मतलब यह था कि दर्द से कराहते अपने पेशेंट को हम यूं ही तड़पते हुए घर ले जाकर उसके मरने का इंतजार करें… उस परिसर में हमें राहत भरी ‘जादू की झप्‍पी’ देने वाला कोई नहीं था…

उधर सीएमओ डॉ. संजीव जैन अपने स्‍तर पर कोशिश जारी रखे हुए थे। केवल वे ही थे जिनसे हमें कुछ उम्‍मीद दिखाई दे रही थी। जब मेडिकल वार्ड वालों ने हमारे पेशेंट को वार्ड में दाखिल करने से इनकार कर दिया तो डॉ. जैन ने इधर उधर बात करने के बाद हमें सूचित किया कि यहां तो नहीं पर कमला नेहरू अस्‍पताल में वे एक कमरे में पलंग डलवाकर टेम्‍परेरी व्‍यवस्‍था की कोशिश कर रहे हैं।

मैंने यूं ही वहां मौजूद अस्‍पताल के लोगों से पूछ लिया कि आखिर यहां आइसोलेशन वार्ड क्‍यों नहीं है, तो मुझे हैरान करने वाली जानकारी देते हुए उन्‍होंने बताया कि चूंकि नई बिल्डिंग बन रही है इसलिए पुराने सारे आइसोलेशन वार्ड तोड़ दिए गए हैं। जब नए बनेंगे तब बनेंगे। मैंने पूछा- लेकिन इस बीच कोई महामारी फैल जाए और लोगों को आइसोलेशन में रखना जरूरी हो तो? …. जाहिर है मुझे कोई जवाब नहीं मिला।

उधर वह ड्यूटी डॉक्‍टर जिसका नाम मैं पता नहीं कर पाया, लगातार ‘सलाह’ दे रहा था, कोई फायदा नहीं है आप तो इसे ले जाओ… मुझे फिल्‍म सारांश का वह सीन याद आ गया जिसमें अनुपम खेर अपने बेटे की अस्थियां लेने एयरपोर्ट पर जाते हैं और कस्‍टम अधिकारी के बेरुखीपूर्ण रवैये पर फट पड़ते हुए कहते हैं- ‘’मैं यहां टीवी लेने नहीं आया, अपने बेटे की अस्थियां लेने आया हूं…’’

एकबारगी मुझे लगा, मैं भी जोर से चिल्‍लाकर कहूं, आपकी नजर में भले ही यह पेशेंट चंद दिनों का मेहमान हो, लेकिन हम उसे चलता फिरता यहां इलाज के लिए लाए हैं। कोई अस्‍पताल इसे रखने को तैयार नहीं तो कहां ले जाएं इसे, वह जीता जागता इंसान है, कोई कूड़ा नहीं जो यूं ही सड़क पर फेंक दें…

लेकिन फिल्‍मों में डायरेक्‍टर के पास कहानी को अपनी सुविधानुसार मोड़ने या संभाल सकने की गुंजाइश होती है, असल जिंदगी में ऐसा नहीं होता। तमाम कोशिशों के बाद भी हमें राजधानी के सबसे बड़े सरकारी अस्‍पताल से नाउम्‍मदी ही मिली। वहां के हालात देखते हुए ममता के पति ने दुख और गुस्‍से से कहा, ‘’ये लोग तो इसे न मरती होगी तो मार देंगे… चलो यहां से कहीं और चलें…’’

और हम ममता को नीचे उतार लाए… फिर एक नए अस्‍पताल की तलाश में… एक ही दिन में हम शहर में यह पांचवां अस्‍पताल ढूंढ रहे थे। मैंने अपने साथ काम कर चुके कई रिपोर्टरों को फोन लगाकर पुछवाया कि क्‍या शहर में किसी अस्‍पताल के पास ऐसे मरीज को आइसोलेशन में रखने की सुविधा है? ज्‍यादातर जगह से जवाब ना में ही मिला।

इस आपबीती में मैं आपको यह बात बार बार याद दिलाता रहूंगा कि हम राजधानी में खड़े थे और ऐसा भी नहीं था कि हमारे संपर्क नहीं थे या कि हम आर्थिक रूप से अपने मरीज का इलाज करवाने में सक्षम नहीं थे। लेकिन उसके बावजूद हम असहाय थे… स्‍ट्रेचर पर पड़ी ममता के पास खड़ा परिवार का हर सदस्‍य यह मन्‍नत मना रहा था कि हे भगवान! कोई अस्‍पताल तो ऐसा मिल जाए जहां हम उसे इलाज के लिए भरती करवा सकें।

अचानक परिवार के एक परिचित ने कहा कि एक अस्‍पताल में उसकी बात हो गई है और वे ममता को एडमिट करने के लिए राजी हो गए हैं। यह सूचना हमारे लिए कितनी बड़ी राहत लेकर आई थी इसका बयान करना मुश्किल है। आनन फानन में हमने फिर एंबुलेंस बुलवाई और चल पड़े उस अस्‍पताल की ओर जो ममता का नया ठिकाना था और जिसका नाम था- सिद्धांता रेडक्रास

कल पढ़े- क्‍या क्‍या सहा परिवार ने सिद्धांता रेडक्रॉस में

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