मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने हाल ही में बच्चों को शिक्षा ऋण देने के मामले में बैंकों के रवैये पर नाराजी जाहिर की। उन्होंने विद्या भारती संस्था द्वारा संचालित शिक्षा संस्थाओं की खेल प्रतिभाओं को अपने निवास पर संबोधित करते हुए कहा कि कई बार कोशिश करने के बावजूद बैंकों के रवैये में सुधार नहीं आया है। प्रतिभावान बच्चों को आगे पढ़ाने के लिए मां बाप की चप्पलें घिस जाती हैं।
इसीके साथ शिवराज ने राज्य के अगले वर्ष के बजट में शामिल की गई मुख्यमंत्री मेधावी छात्र प्रोत्साहन योजना की जानकारी देते हुए कहा कि अब सरकार ने ऐसे प्रतिभावान बच्चों की मदद के लिए खुद आगे आने का फैसला किया है। बारहवीं में 75 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले विद्यार्थी इसके पात्र होंगे। हां, उनके पालकों की आय 6 लाख रुपये वार्षिक से अधिक नहीं होना चाहिए। ऐसे विद्यार्थियों का सरकारी मेडिकल,इंजीनियरिंग, प्रबंधन,विधि और निजी क्षेत्र के चिन्हित इंजीनियरिंग, मेडिकल कॉलेज व अन्य शिक्षण संस्थान में प्रवेश होने पर,उनकी फीस सरकार भरेगी।
मध्यप्रदेश सरकार की यह पहल और मुख्यमंत्री की मंशा दोनों सराहनीय हैं। लेकिन खुद मुख्यमंत्री के ही बयान से कुछ ऐसे सवाल खड़े होते हैं, जिनका जवाब सरकार और समाज दोनों को ढूंढना होगा। वे कौंनसी वजहें हैं जिनके कारण एक राज्य के मुख्यमंत्री को बैंकों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हुए, लोककल्याणकारी राज्य की कोशिशों में रुकावट डालने का उलाहना देना पड़ रहा है।
देश की आर्थिक प्रगति में बैंकिंग सिस्टम का बहुत बड़ा योगदान है। 19 जुलाई 1969 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की एक ऐतिहासिक पहल के बाद देश में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। उसके बाद से अब तक करीब 48 सालों में देश का बैंकिंग सिस्टम बहुत आगे बढ़ा है। इस दौरान बैंकों ने कई उतार चढ़ाव भी देखे हैं।
लेकिन पिछले कुछ सालों से बैंकों की साख में लगातार गिरावट देखी जा रही है। वहां होने वाले घोटालों और वित्तीय कुप्रबंधन ने पूरे देश को चिंता में डाला है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई नोटबंदी की घोषणा के बाद, बैंकों और बैंककर्मियों की भूमिका के बारे में जो जानकारियां सार्वजनिक हुई हैं, वे बैंकों की छवि पर बट्टा लगाने वाली हैं।
देश में उच्च शिक्षा व रोजगार के लिए युवाओं को कर्ज देने के मामले में बैंकों की जिम्मेदारी और भूमिका दोनों अहम् हैं। ये दोनों क्षेत्र ऐसे हैं जिनसे किसी भी देश की सामाजिक और आर्थिक स्थिति तय होती है। बैंकों से जब भी कोई कर्ज लेने की बात आती है, तो सबसे बड़ा मुद्दा गारंटी का होता है। बैंक अपना दिया हुआ पैसा डूब न जाए इसकी चिंता करते हैं, वहीं कर्ज लेने वाले अधिकांश युवाओं की माली हालत ऐसी नहीं होती कि वे गारंटी या मार्जिन मनी जैसी शर्तों को पूरा कर सकें।
युवाओं की ऐसी ही समस्याओं को देखते हुए केंद्र व राज्य सरकारों ने कई योजनाएं बनाई हैं जिनमें बैंकों की इन औपचारिकताओं से सरकार के स्तर पर राहत प्रदान की जाती है। लेकिन देखने में आ रहा है कि इसके बावजूद बैंकों में न सिर्फ कर्ज के इच्छुक युवाओं को परेशान होना पड़ता है बल्कि उनसे सीधे सीधे न सही तो घुमा फिराकर गारंटी और कई अन्य चीजें मांगी जाती हैं।
कहने को बैंकों की ओर से प्रचार किया जाता है कि वे चंद मिनटों में कर्ज स्वीकृत कर देते हैं। लेकिन इस दावे को सचाई में तब्दील करवाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं यह कोई भुक्तभोगी ही जानता है। बैंक ही क्यों जिन सरकारी विभागों पर दायित्व होता है कि वे लोक कल्याणकारी योजनाओं के तहत सरकार की ओर से गारंटी उपलब्ध करवाकर युवाओं को कर्ज मुहैया कराने में मदद करें, उन विभागों में भी चप्पलें कम नहीं घिसनी पड़तीं।
ज्यादातर मामलों में कर्ज चाहने वाले युवा सरकारी दफ्तरों व बैंक कार्यालयों के बीच फुटबॉल बने इधर से उधर भटकते रहते हैं। बैंकों व सरकारी अफसरों के बीच कोई तालमेल नहीं होता। न तो सरकारी अफसरों को बैंकों के नियमों की जानकारी होती है और न ही बैंक वालों को सरकारी योजनाओं की। दोनों एक दूसरे की खामियां गिनाते रहते हैं, पिसता है बेचारा कर्ज लेने वाला…
रही बात सरकारी योजनाओं पर अमल की, तो उसके लिए एक उदाहरण ही पर्याप्त है। उत्तरप्रदेश चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने किसानों से वादा किया कि यदि वह सत्ता में आई तो उनका कर्ज माफ कर देगी। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनावी सभाओं में छाती ठोक कर कहा कि हमारी सरकार बनने के बाद कैबिनेट का पहला ही फैसला किसानों की कर्ज माफी का होगा।
लेकिन उत्तरप्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद बैंकों ने क्या कहा? देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने साफ कह दिया कि अकेले उत्तरप्रदेश में इसके लिए बैंकों को 27 हजार 420 करोड़ का भार उठाना होगा, जो बैंकों की हालत पतली कर देगा। यह सीधे सीधे सरकार के लिए संदेश था कि बैंक तो कम से कम उसकी चुनाव घोषणा को पूरा करने की स्थिति में नहीं हैं।
जब देश की सरकार चलाने वाली पार्टी और प्रधानमंत्री के वायदे को बैंक दरकिनार कर सकते हैं, तो फिर बेचारे एक अदने से छात्र की क्या बिसात कि वो इस सिस्टम से जूझ सके… इस सिस्टम को तो विजय माल्या जैसे ही लोग सूट करते हैं, जो उसे लूटते भी हैं और रुलाते भी हैं…