क्या भूलें, क्या याद करें
क्या दिन थे वो भी जब सिनेमा के इतिहास में ‘जुबली’ शब्द का जलवा हुआ करता था। 25 सप्ताह तक चलने वाली फिल्मों की सिल्वर जुबली, 50 तक चलने वाली की गोल्डन जुबली और 75 सप्ताह तक चलने वाली फिल्मों की प्लेटिनम जुबली मनाई जाती थी। हालांकि देश में ऐसी फिल्में भी बनी हैं जो 100 सप्ताह से भी काफी अधिक समय तक चली हैं जिनमें 1943 में बनी फिल्म ‘किस्मत’, 1975 में बनी ‘शोले’ और 1994 में बनी ‘हम आपके हैं कौन’जैसी फिल्में शामिल हैं। यह सूची बहुत लंबी है।
धन्य हो जाती थी वो फिल्म और उसके कलाकार जिन्हें गोल्डन या प्लेटिनम जुबली मनाने का मौका मिलता था। अभिनेता राजेंद्र कुमार को तो उनकी सर्वाधिक फिल्में जुबली श्रेणी में आ जाने के कारण ‘जुबली कुमार’ ही कहा जाने लगा था। कुल मिलाकर उस जुबली का जलवा ही कुछ और था…
लेकिन वे दिन अब हवा हो गए हैं। न तो फिल्मों में अब जुबली का दौर है और न राजनीति में। संयोग देखिए कि फिल्मों की सफलता अब इस बात से आंकी जाती है कि कौनसी फिल्म ने पहले दिन कितनी कमाई की, पहले सप्ताह में कितनी कमाई की और महीने भर में अधिक से अधिक कितने नोट उसकी अंटी में आए। अब कमाई में होने वाली नोटों की बारिश के हिसाब से फिल्मों के क्लब भी बन गए हैं जैसे 100 करोड़ का क्लब, 200 करोड़ का क्लब, 300 करोड़ का क्लब इत्यादि…
हममें से ज्यादतार लोगों ने बचपन में ‘साहित्य और समाज’, ‘सिनेमा और समाज’ जैसे विषयों पर निबंध लिखे होंगे। सिनेमा और समाज की विषयवस्तु ही यह होती थी कि सिनेमा किस तरह हमारे समाज को प्रभावित कर रहा है। निबंध का वो विषय भले ही पुराना पड़ गया हो लेकिन उसकी विषयवस्तु अब भी प्रासंगिक है और शायद यही कारण है कि हमारा समाज और समाज के गमले में अंकुरित होने वाली राजनीति आज भी सिनेमा से प्रभावित होती है।
जिस तरह सिनेमा में जुबली का युग चला गया, आज उसी तरह राजनीति से भी जुबली का युग जा रहा है, खासतौर से प्लेटिनम जुबली का। भाजपा इस लाइन पर चल रही है कि 75 साल यानी जीवन की ‘प्लेटिनम जुबली’ मना चुके नेताओं को अब चुनाव का टिकट नहीं दिया जाएगा। पार्टी के इस फैसले से कई ‘जुबली श्रीमान’ और ‘जुबली श्रीमतियां’ खफा हैं। उनका कहना है कि उनकी वजह से इतने सालों तक पार्टी की फिलिम चलती रही, उन्होंने अपने अथक परिश्रम से पार्टी के लिए ‘वोट दर्शक’ जुटाए और आज इसका इनाम उन्हें ‘ऑफस्क्रीन’ पटक कर दिया जा रहा है।
इस बार के लोकसभा चुनाव में राजनीति के इस ‘जुबली इफेक्ट’ से जो नेता प्रभावित हुए हैं उनमें भाजपा के दिग्गज लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी से लेकर 16वीं लोकसभा की अध्यक्ष और अपने इंदौर की सांसद सुमित्रा महाजन भी शामिल हैं। इनमें से जोशी और महाजन तो पार्टी के इस फैसले पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से अपनी नाराजी भी सार्वजनिक कर चुके हैं।
सिनेमा और राजनीति में एक फर्क ये भी है कि सिनेमा में जुबली उम्र प्राप्त कर चुके या करने जा रहे कलाकारों के लिए ‘कैरेक्टर रोल’ की गुंजाइश रहती है। समय ठीक हो और दुकान चल जाए तो कोई खलनायक भी ‘चरित्र’ अभिनेता बनकर अच्छी खासी लोकप्रियता और पैसा कूट लेता है। आपको मशहूर अभिनेता प्राण और ‘उपकार’ फिल्म में उनका रोल तो याद होगा ही।
लेकिन राजनीति में ऐसी गुंजाइशें कम होती जा रही हैं। यहां बुजुर्गों के रोल पर लगातार कैंची चल रही है। किसी बड़ी फिलिम में ‘मार्गदर्शक’ टाइप का रोल मिल भी जाए तो, अव्वल तो कैमरा उस कैरेक्टर पर फोकस ही नहीं करता, और खुदा न खास्ता यदि एक दो सीन उसके बन भी जाएं तो फिलिम रिलीज करने से पहले फाइनल प्रिंट में उन्हें काट दिया जाता है।
फिल्मों और राजनीति में एक समानता यह है कि व्यक्ति को इसका एक बार चस्का लग जाए तो वह जिंदगी भर नहीं छूटता। हीरो जिंदगी भर खुद को टीनएज ही समझता रहता है, भले ही वह ‘जुबली एज’ को पार कर गया हो। उसी तरह नेता भी कभी नहीं मानता कि वह रिटायरमेंट की एज में पहुंच गया है। दोनों हर समय हीरो का रोल करने को तैयार या लालायित रहते हैं।
मजे की बात देखिए कि जुबली और बॉक्स आफिस सफलता के पुराने फिल्मी अंदाज की तरह राजनीति में भी माहौल बिलकुल बदल गया है फिर भी राजनीति ने फिल्मों से प्रेरणा लेना बंद नहीं किया है। जैसे फिल्मों में अब जुबली क्लब नहीं बल्कि 100, 200, 300 करोड़ क्लब चलते हैं वैसे ही राजनीति में भी ये क्लब स्थापित हो गए हैं।
जैसे फिल्म की कथावस्तु और कलाकारों का अभिनय इत्यादि भले कितना ही कूड़ा हो, लेकिन उसकी सफलता इस बात से आंकी जाती है कि उसने पहले दिन, पहले हफ्ते या पहले माह (यदि इतने दिन चल गई तो) में कितनी कमाई की। ठीक इसी तरह राजनेता की सफलता भी इस बात से तौली जाती है कि उसने जनप्रतिनिधि बनने के पहले साल से लेकर पांच तक की अवधि में कितना माल कूटा। जिसने जितनी ज्यादा कमाई की वह उतना ही बड़ा, उतना ही सफल नेता।
पिछले दिनों मशहूर टीवी कॉमेडियन कपिल शर्मा के शो पर बॉलीवुड की तीन जानी-मानी अभिनेत्रियां आई थीं। ये तीनों- वहीदा रहमान (81), हेलन (80) और आशा पारेख (76) जुबली एज को पार कर चुकी हैं। कपिल से बातचीत के दौरान इन्होंने एक किस्सा सुनाया कि उनके जमाने में शूटिंग प्लेस पर शौचालय तक की व्यवस्था नहीं होती थी। समय का फेर देखिए कि आज की राजनीति शौचालय बनवाकर वोट और नोट दोनों बटोर रही है।