सामाजिक नागरिक संस्थाओं के समक्ष चुनौतियां- अंतिम किस्त
सचिन कुमार जैन
यह वक्त की जरूरत है कि सामाजिक नागरिक संस्थाएं आत्मावलोकन के लिए अपने आप को तैयार करें। यह समझना अजरूरी है कि ऐसे कौन से पक्ष हैं, जिन्होंने संस्थाओं की पहचान को चुनौती दी है। यह स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए कि जनता के हकों के लिए सड़कों से लेकर व्यवस्था के गलियारों तक बेहद आत्मविश्वास और तैयारी के साथ संघर्ष करने वाली सामाजिक नागरिक संस्थाएं उस वक्त संगठित होकर खड़ी नहीं हो पाईं, जब उन्हें अपने पक्ष को तथ्यों और तर्कों के साथ समाज के सामने रखना था।
विदेशी अनुदान का अनछुआ पक्ष
सामाजिक नागरिक संस्थाओं को विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम के तहत विदेशों से मिलने वाली आर्थिक सहायता पर बहुत बहस होती रही है। संस्थाओं की पहचान, उनकी मंशा और चरित्र पर सवाल खड़े करने के लिए इसका ज्यादा उपयोग हुआ है। बीच बहस बस इतना सवाल पूछते रहना होगा कि आखिर कारण क्या हैं? भारत में कुल 50111 संस्थाओं को इस अधनियम के तहत पंजीकृत किया गया है। इस अधिनियम के दो प्रावधानों का सन्दर्भ लेना बहुत जरूरी है। एक प्रावधान यह कहता है कि जो संस्थाएं नियमित रूप से वार्षिक विवरणी (रिटर्न) जमा नहीं करेंगी, उनका पंजीयन रद्द किया जा सकता है। जिन 20679 संस्थाओं का पंजीयन रद्द किया गया है, उनमें से 95 प्रतिशत से ज्यादा का पंजीयन वार्षिक विवरणी जमा नहीं करने के कारण ही रद्द हुआ है।
वास्तविकता यह है कि हज़ारों संस्थाओं ने विदेशी अंशदान अधिनियम में पंजीयन तो करवा लिया, लेकिन उनमें इतनी क्षमताएं और कौशल नहीं था कि वे अंशदान प्राप्त कर पातीं। जब कोई अनुदान या अंशदान मिला ही नहीं, तो उन्होंने वार्षिक विवरणी जमा नहीं की। यह क़ानून के प्रावधान का उल्लंघन हो सकता है, किन्तु राष्ट्रद्रोह या व्यवस्था के खिलाफ कोई षड्यंत्र तो नहीं ही माना जा सकता है।
अधिनियम का दूसरा प्रावधान यह है कि हर 5 वर्ष में विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम में दर्ज संस्थाओं को पंजीयन का नवीनीकरण करवाना होगा। यहाँ भी ऐसा ही हुआ। हज़ारों संस्थाओं को न तो कोई अनुदान मिला, न ही किसी ने उनकी सहायता की कि वे अपने आप को सक्षम बना पातीं। इसके बाद उन्होंने यह पाया कि इस इस क़ानून का अनुपालन बहुत जटिल और चुनौतीपूर्ण काम है। छोटी-मझौली संस्थाएं इतना दबाव झेल पाने की स्थति में नहीं रहीं, और उन्होंने निश्चित समयावधि गुज़र जाने के बाद पंजीयन के नवीनीकरण के लिए आवेदन ही नहीं किया। इस कारण से 12543 संस्थाओं का पंजीयन रद्द हो गया।
ऐसा होना भी किसी षड्यंत्र या अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। इन दो कारणों से रद्द होने वाले पंजीयन और वास्तव में भ्रष्टाचार या आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने के कारण रद्द किये गए पंजीयनों की जानकारी को स्पष्ट नहीं किया गया और सार्वजनिक पटल से लेकर संसद और सर्वोच्च न्यायालय के पटल पर यही कहा गया कि क़ानून के उल्लंघन के कारण 33222 यानी 66 प्रतिशत संस्थाओं के पंजीयन रद्द किये गए। यह नहीं बताया कि ये उल्लंघन किस किस तरह के प्रावधानों के अंतर्गत थे?
सामाजिक नागरिक संस्थाओं की यही सबसे बड़ी कमजोरी और अकर्मण्यता है कि वे अपने क्षेत्र, समाज और उससे सम्बंधित नीतिगत-राजनैतिक स्थितियों का विश्लेषण नहीं करते हैं और अपना पक्ष रख पाने में कमज़ोर हैं। उक्त संस्थाएं यह तर्क रखने में नाकाम रहीं कि किसी भी आचरण के लिए सामाजिक नागरिक संस्थाओं को भी उतना ही दोषी माना जा सकता है, जितना की क़ानून परिभाषित करता है। संस्थाओं के वजूद को ख़तम कर देने की मंशा न तो नैतिक है और न ही संवैधानिक।
व्यापक आर्थिक-राजनीतिक नज़रिए से बढ़ती दूरी
नये सन्दर्भों में एक तरफ तो स्वतंत्र आर्थिक संसाधन सीमित हुए हैं, लेकिन दूसरी तरफ कॉरपोरेट नियंत्रित संसाधनों का दायरा और फैलाव बहुत बढ़ा है। इसका प्रभाव यह हुआ है कि संस्थाओं से “व्यवस्थागत अपेक्षाएं और तात्कालिक उपलब्धियों” को केंद्र में रखने का दबाव बढ़ता गया है। अब तो सामाजिक क्षेत्र में “लाभकारी संस्थाएं” भी सक्रिय भूमिका में आ रही हैं। यह नया पारिस्थितिकी तंत्र है।
किसी भी सामाजिक-आर्थिक बदलाव का लक्ष्य राजनैतिक नज़रिया और रणनीतियां अपनाए बिना हासिल नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि सामाजिक नागरिक संस्थाएं दलीय राजनीति का हिस्सा बने बगैर जनतांत्रिक माध्यमों का इस्तेमाल करके वंचित तबकों की आवाज़ को बुलंद करती रही हैं। लेकिन नया कानूनी तंत्र सामाजिक नागरिक संस्थाओं की इस रणनीति को ‘आपराधिक”’ करार देता है। नया राज्य तंत्र यह चाहता है कि सामाजिक नागरिक संस्थाएं राज्य व्यवस्था/सरकार की एक अतिरिक्त भुजा बन कर काम करें। इन संस्थाओं को केवल “सेवा और करुणा” से सम्बंधित काम करना चाहिए। संस्थाओं को कभी भी एक तबके की आवाज़ को समाज की आवाज़ बनाने की कोशिश नहीं करना चाहिए। कुल मिलाकर सामाजिक नागरिक संस्थाओं को समाज की समस्याओं के मूल कारणों पर बहस और पहल नहीं करना चाहिए। उनसे केवल इतनी ही अपेक्षा है कि वे (संस्थाएं) घावों की मरहम पट्टी करती रहें, लेकिन घाव क्यों हुआ, उस घटना और परिस्थिति को सतह पर न लायें।
वर्तमान स्थिति के आकलन से पता चलता है कि अब छोटी-मझोली और आंचलिक संस्थाओं के सामने अपने अस्तित्व को बचाने चुनौती है क्योंकि जिस तरह की कानूनी व्यवस्थाएं बनायी जा रही हैं और तकनीकी कौशल की अपेक्षा की जा रही है, उन्हें देखते हुए यह तय है कि अब आर्थिक संसाधनों और साझेदारी के लिए बड़े आकार की संगठित और प्रबंधन में सक्षम संस्थाओं को ज्यादा तवज्जो दी जाने लगी है। इसके कारण छोटी और मझौली संस्थाओं का काम करना बहुत कठिन होता जाएगा।
आत्म-विश्लेषण से संकोच
इसमें दो राय नहीं कि भारत में संस्थाओं को अब अपने संगठन, अपनी व्यवस्था और अपनी आवाज़ को मज़बूत बनाने की पहल करने की जरूरत है। जब तक संस्थाओं का समुदाय अपने लिए नैतिक व्यवस्थागत मानक तैयार नहीं करेगा, तब तक राज्य व्यवस्था का दबाव बढ़ना स्वाभाविक ही है। वास्तव में अब प्रबंधन की व्यवस्थाओं को ढांचागत रूप देने, संस्थाओं की टीमों की क्षमता वृद्धि करने और समाज से ज्यादा से ज्यादा जुड़ाव बनाने की पहल करने जरूरत है।
इन संस्थाओं को अपने काम के नज़रिए को विस्तार देने, अपने विषय और उसके आयामों को गहराई से समझने के लिए व्यवस्थित पहल करने और उस बदलाव के बारे में खुलकर बात करने की जरूरत है, जो वे लाना चाहते हैं। बदलाव ऐसा होना चाहिए, जिसे मापा भी जा सके और महसूस भी किया जा सके। इस सन्दर्भ में सामाजिक नागरिक संस्थाओं को अपने दावों की समीक्षा के लिए भी तैयार रहना होगा।
उक्त संस्थाओं की स्वीकार्यता तभी स्थापित होगी, जब संस्था के हर सदस्य की समझ विकसित होगी। हमें यह तो मानना ही होगा कि अभी संस्था की पहचान और वजूद एक-दो व्यक्तियों की समझ और प्रस्तुति पर टिके होते हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अब तथ्यों, आंकड़ों और प्रमाणों को बहुत जरूरी माना जाने लगा है। उक्त संस्थाओं को अब अपने विषय, अपने कार्यक्रम और अपने विचार से सम्बंधित जानकारियों, नीतियों के विश्लेषण और आंकड़ों के रखरखाव और मानक वित्तीय प्रबंधन की व्यवस्था अनिवार्य रूप से बना लेनी चाहिए।
समुदाय और समाज का मतलब क्या है; यह भी खंगाला जाना चाहिए। जब यह कहा जाता है कि सामाजिक नागरिक संस्थाएं “समुदाय” में या समुदाय के साथ काम करती हैं, तब वास्तव में वहां व्यापक समुदाय की बात नहीं होती, बल्कि समुदाय के कुछ ख़ास वर्गों और परिवारों की बात होती है। अगर संस्थाएं 50-100 गांवों में या 10-15 बस्तियों में काम करती हैं, तब वास्तव में उनके कार्यक्रम का दायरा उन गांवों या बस्तियों का एक ख़ास समूह या कुछ तयशुदा परिवार होते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उन पर “तुरत-फुरत” बदलाव लाने का दबाव होता है। उन्हें बदलाव के आंकड़े देने होते हैं, बदलाव की कहानियां सुनानी होती हैं।
सामाजिक संस्थाएं विभिन्न क्षेत्रों में रचनात्मक भूमिकाएं निभा रही हैं। लेकिन इसके बाद भी समाज और व्यवस्था में उनके बारे में बना हुआ कथानक नकारात्मक ही है। इसके पीछे का कारण है, उनके द्वारा समाज और व्यवस्था के विभिन्न समूहों से निरंतर संवाद नहीं किया जाना। जब संवाद नहीं होता है तो परिचय नहीं हो पाता है। और जब परिचय नहीं हो पाता है तो रिश्ते नहीं बन पाते हैं। ऐसे में सामाजिक संस्थाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बारे में निराधार नकारात्मक धारणाएं बनने लगती हैं। यह जरूरी है कि सामाजिक संस्थाएं और सामाजिक कार्यकर्ता अपने लक्षित समूहों या हितग्राहियों से अलग होकर भी अन्य समूहों से संवाद करें। मसलन मीडिया के प्रतिनिधियों से, सरकार के प्रतिनिधियों से, सामुदायिक संस्थाओं/संगठनों से, प्रोफेसरों, छात्रों और युवाओं से।
सामाजिक संस्थाओं को यह समझना होगा कि समाज में छवि का निर्माण कैसे होता है? संस्थाओं या कार्यकर्ताओं के बारे में सामान्य समझ या धारणाएं कैसे बनती हैं? यह समझना भी जरूरी है कि सामाजिक संस्थाएं अपनी छवि का निर्माण खुद कैसे कर सकती हैं? और इस पहल में संचार-संवाद की बेहद अहम् भूमिका है।
सामाजिक नागरिक संस्थाएं और वित्तीय संसाधन
पारंपरिक रूप से उक्त संस्थाएं आम लोगों और समाज के प्रभावशाली संपन्न लोगों के द्वारा दिए जाने वाले योगदान से संचालित होती थीं। लेकिन आज़ादी के बाद इन संस्थाओं को ‘संस्थागत संसाधन” भी हासिल होने लगे। वर्ष 1953 में भारत सरकार ने केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड की स्थापना की। इसका मकसद उक्त संस्थाओं (अशासकीय संस्थाओं) के जरिये समाज कल्याण कार्यक्रमों में जन-सहभागिता बढ़ाना था। आज़ादी के बाद के पहले दशक से ही भारत सरकार का उद्देश्य था कि विकास की योजनाओं का विकेंद्रीकरण के साथ क्रियान्वयन हो। इसी के मद्देनज़र राष्ट्रीय सामुदायिक विकास कार्यक्रम और राष्ट्रीय विस्तार सेवा की शुरुआत हुई। इसके बाद वर्ष 1958 में एसोसियेशन फार वालेंटरी एजेंसीज फार रूरल डेवलपमेंट (अवार्ड) की स्थापना हुई।
1960 का दशक सामाजिक नागरिक संस्थाओं के नए स्वरूप के विकास के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण साबित हुआ। एक तरफ देश ने युद्धों का सामना किया, तो दूसरी तरफ गरीबी की समस्या बड़े पैमाने पर विद्यमान थी। इसी दशक में देश ने दो बेहद गंभीर सूखे सालों का सामना किया। देश में खाद्य उत्पादन की स्थिति खराब थी। तब देश में स्वयं को खाद्य सुरक्षित बनाने के लिए नीतियां बनाना और उन्हें लागू करना शुरू किया। इस काम के लिए “सूखे से राहत और कृषि विकास के लिए तकनीकी सहायता” के नाम पर अंतर्राष्ट्रीय अनुदान संस्थाओं ने भारत में प्रवेश किया। विदेशी अनुदान ने भारत में सामाजिक नागरिक संस्थाओं के स्वरूप को कई मानकों पर बदला।
वर्ष 1974-75 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आन्दोलन के बाद वर्ष 1976 में भारत सरकार ने विदेशी अनुदान विनियमन अधिनियम लागू किया। इसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक दलों और राजनीतिक गतिविधियों के लिए विदेशी अनुदान के उपयोग को रोकना था। इसके साथ ही लोक सेवकों, पत्रकारों न्यायाधीशों को आर्थिक अनुदान लेने से वंचित करना था। इसके बाद भारत में उक्त संस्थाओं के क्षेत्र में विविधता का दौर आया। जब संस्थाएं अलग-अलग भूमिकाएं (शोध, एडवोकेसी, सामुदायिक कार्यक्रम, राहत, प्रशिक्षण आदि) लेने लगीं।
यह समझना जरूरी है कि विगत 50 सालों में लाखों भारतीय इंग्लैण्ड, अमेरिका, कनाडा जैसे संपन्न देशों में जाकर बस गए हैं। इसके साथ ही बड़ी संख्या में लोग वहां रोज़गार के नज़रिए से भी रहते हैं। उनके मन में यह भावना रही है कि वे देश से दूर रहकर भी भारत की समस्याओं के निराकरण में योगदान दे सकें। इसके लिए इन देशों में भारतीयों ने अपने स्वैच्छिक समूह बनाये हैं। ये समूह भारतीय समुदाय और अन्य स्थानीय लोगों से योगदान इकट्ठा करके भारत में काम करने वाली सामाजिक नागरिक संस्थाओं को उपलब्ध करवाते हैं। इसके साथ ही यूरोप का समाज पूरी दुनिया में गरीबी, खाद्य असुरक्षा और पर्यावरण के संकट से निपटने के लिए भी योगदान देता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर यह बात लगातार होती है और इसके लिए बाकायदा अनुबंध भी किये गए हैं कि आर्थिक संसाधनों से संपन्न देश दुनिया के अल्प विकसित और अविकसित देशों की सहायता करें। ऐसी व्यवस्थाओं के तहत यूरोप और अमेरिका की सरकारें भी अंतर्राष्ट्रीय विकास के लिए भारत जैसे देशों की सरकारों और सामाजिक नागरिक संस्थाओं को आर्थिक सहायता प्रदान करती हैं। अतः यह मानना बिलकुल अनुचित है कि भारत में विदेशी सहायता केवल सामाजिक नागरिक संस्थाओं को ही हासिल होती है।
ब्रिटेन का डिपार्टमेंट आफ इंटरनेशनल डेवलपमेंट (डीऍफ़आईडी) यू.एस.एड (अमेरिका), जर्मनी, जापान, फ्रांस आदि देशों के विकास अनुदान और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन सरीखी संस्थाएं भारत की सरकार को भी वित्तीय सहायता प्रदान करती रही हैं और सामाजिक नागरिक संस्थाओं को भी। इनमें से कई संस्थाओं का अनुभव रहा है कि सरकार को दिए गए अनुदान या विकास सहायता का अनुत्पादक इस्तेमाल ज्यादा होता है। एक ही स्रोत से भारत की सरकार को भी अनुदान मिलता है और उसी स्रोत से ही इन संस्थाओं को भी अनुदान हासिल होता है। सामाजिक नागरिक संस्थाओं की सक्रिय भूमिका के दबाव में यह कथानक बनाने की कोशिश की गई है कि विदेशी अनुदान के सभी स्रोत और विदेशी अनुदान पाने वाली भारतीय संस्थाएं नकारात्मक भूमिका निभाती हैं।
यही वह दौर था, जब दुनिया के ईसाई समुदाय ने भी दान के माध्यम से भारत के कई कोनों में उक्त संस्थाओं को स्थापित होने में मदद की। मुख्य रूप से इन संस्थाओं ने देश के सबसे वंचित और सुदूर इलाकों में स्वास्थ्य सेवाएँ और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पहुंचाने का काम किया। उनकी इस भूमिका से लाभ पाने वाले समुदाय और लोग ईसाई धर्म से भी प्रभावित हुए और कई लोगों ने ईसाई धर्म को अपना भी लिया।
यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि वर्ष 1976 से ही विदेशी अनुदान पाने वाली सभी संस्थाओं को अपना लेखा जोखा सरकार के पास जमा कराना होता है। यह अनुदान क़ानून की निगरानी में होता है। इसके साथ ही सरकार भी इन संस्थाओं के लिए वित्तीय अनुदान का अहम् स्रोत रही है। केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड भी संस्थाओं को अनुदान देता रहा। इसके साथ ही वर्ष 1986 में भारत में काउंसिल फार एडवांसमेंट आफ पीपुल्स एक्शन एंड रूरल टेक्नोलोजी (कापार्ट) की स्थापना हुई। वर्ष 1990 के दशक में इसमें सामाजिक नागरिक संस्थाओं की ज्यादा भूमिका मानी गई। कापार्ट सामाजिक नागरिक संस्थाओं के लिए अनुदान का बड़ा स्रोत बना।
भारत में राज्य व्यवस्था ने यह तो स्वीकार किया ही है कि विकास को महिलाओं, बच्चों, पर्यावरण, विकलांगता, शासन व्यवस्था में सहभागिता, पारदर्शिता और जवाबदेहिता के नज़रिए से सामाजिक नागरिक संस्थाएं ही देख पाती हैं। इसीलिए उनकी भूमिका की उपेक्षा नहीं करना चाहिए।
आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के दुष्प्रभावों के मद्देनज़र 1990 के दशक से ही सामाजिक नागरिक संस्थाओं ने मानव अधिकारों, जन सहभागिता, संसाधनों के जवाबदेह उपयोग, पारदर्शिता और प्राकृतिक संसधानों के गंभीर शोषण के विषय उठाने शुरू किये। सामाजिक नागरिक संस्थाओं के प्रतिरोध के फलस्वरूप कई योजनाओं और नीतियों का क्रियान्वयन बाधित हुआ। विस्थापन और पर्यावरण के विनाश के मुद्दे गंभीर बहस के मुद्दे बने। तब राज्य ने यह मानना शुरू कर दिया कि सामाजिक नागरिक संस्थाएं भारत के विकास और राज्य व्यवस्था की विरोधी हैं। और तभी से (स्पष्ट रूप से वर्ष 2005-06 से) उक्त संस्थाओं को प्रभावित करने वाले क़ानून कड़े करने शुरू कर दिए गए। इस प्रक्रिया ने वर्ष 2015 में और ज्यादा रफ़्तार पकड़ ली।
आर्थिक विकास के लाभ समाज को मिलें, इसके लिए भारत में वर्ष 2013 में कंपनी अधिनियम के अंतर्गत कॉरपोरेट सोशल रिस्पान्सिबिटी (सीएसआर) का प्रावधान कर दिया गया। इसके अंतर्गत अपने मुनाफे में से कम्पनियों को सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए एक हिस्सा तयशुदा रूप से व्यय करना होता है। कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत होने वाले व्यय का एक बड़ा हिस्सा संस्थाओं के माध्यम से व्यय किया जाता है। यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि आम लोग भी अलग-अलग माध्यमों से सामजिक नागरिक संस्थाओं को योगदान देते हैं।
बहरहाल वर्तमान में यह माना जा रहा है कि इन संस्थाओं को ऐसी कोई भी रणनीतिक गतिविधि नहीं करना चाहिए, जिसके कारण राज्य की नीति और उसकी व्यवस्था पर सवाल खड़े होते हों। आज सरकार मुख्य रूप से यह मानती है कि उक्त संस्थाओं को राजनीतिक गतिविधियों में संलग्न नहीं होना चाहिए। वास्तव में यह दौर संस्थाओं के लिए वित्तीय संसाधनों के नज़रिए से कठिनाइयों से भरा हुआ है।
बाहरी चुनौतियां
अब सरकार ने सामाजिक नागरिक संस्थाओं के “कार्यक्रमों” के प्रभावों और परिणामों के न्यायिक अंकेक्षण (फारेंसिक आडिट) की प्रक्रिया भी शुरू कर दी है। वास्तव में समस्या “फारेंसिक आडिट” में नहीं है। समस्या तो इसके पीछे छिपे मकसद में है। मकसद है उक्त संस्थाओं के वजूद को इतना कमज़ोर कर देना कि वे बेहतर वैकल्पिक स्थायी विकास और बदलाव की वकालत न कर सकें। सामाजिक नागरिक संस्थाओं के “प्रभाव के अंकेक्षण” का मकसद “पराभव” कर देना है।
यह वास्तविकता है कि वर्तमान समाज तकनीक और उपभोग के मामले में तो खुला है, लेकिन मानवीय मूल्यों, परस्पर सौहार्द और सामाजिक खुशहाली के मानकों पर ज्यादा संकुचित हुआ है। अब असहमति, संवाद, बहस और प्रश्न पूछने के लिए स्थान बहुत कम बचा है। असहमति का उत्तर हिंसा से दिया जाने लगा है। ये स्थितियां सामाजिक नागरिक संस्थाओं के लिए बहुत बड़ी चुनौती हैं। ऐतिहासिक रूप से उक्त संस्थाओं ने अपने मानक और व्यवस्थाओं की रूपरेखा स्वयं तय की है, लेकिन अब उन्हें यह स्वतंत्रता नहीं है।
समाज की समस्याओं और विकास के मानक भी बदले हैं। ये संस्थाएं समानता, न्याय, खुशहाली, पर्यावरण की सुरक्षा आदि को विकास और समाज की बेहतरी के पैमाने मानती हैं, लेकिन नीति निर्माता, सरकारें और पूंजी क्षेत्र किसी भी तरह से अर्जित की गयी आय और मुनाफे को सर्वोपरि मानता है। विकास के नज़रियों में यह भेद भी सामाजिक नागरिक संस्थाओं को नये सिरे से अपनी भूमिका और रणनीतियों के बारे में विचार करने के लिए प्रेरित तो करता ही है। (समाप्त)