सोमवार को मध्यप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ की ‘मीट द प्रेस’ थी। रोजमर्रा की अखबारी व्यस्तताओं के कारण आमतौर पर मुझे अब किसी प्रेस कान्फ्रेंस या ऐसे अन्य आयोजनों में जाने का समय ही नहीं मिल पाता। लेकिन सोमवार को मैं ‘मीट द प्रेस’ में यह सोचकर चला गया कि वहां के माहौल को देखकर लिखने अथवा संदर्भ के लिए कुछ सामग्री मिल सकेगी।
वैसे भी अब ऐसे अवसर मेरे लिए कम ही आते हैं कि किसी आयोजन या प्रेस कान्फ्रेंस की रिपोर्टिंग करूं। लेकिन कमलनाथ का मामला इसलिए भी अलग था क्योंकि उन्होंने अभी अभी प्रदेश कांग्रेस की बागडोर संभाली है। उधर हवा में ये बातें तैर रही हैं कि छह महीने बाद मध्यप्रदेश में होने जा रहे राज्य विधानसभा के चुनाव में भाजपा की मैदानी हालत ठीक नहीं है।
चूंकि मध्यप्रदेश की राजनीति में पिछले कई सालों से भाजपा और कांग्रेस ये दो ही पार्टियां चुनाव के दौरान मुख्य मुकाबले में रहती हैं, इसलिए जब यह बात चलाई जा रही हो कि सत्तारूढ़ भाजपा की हालत ठीक नहीं है, तो नए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को सुनना और उनकी बॉडी लैंग्वेज को देखना अपने आप में महत्वपूर्ण है। उससे कई बातों का पता चल जाता है और आपको स्थितियों का विश्लेषण करने में मदद मिलती है।
मैं वहां करीब एक घंटा बैठा। मामला चूंकि लंबा खिंच रहा था इसलिए चला आया। पर जितनी भी देर मैंने कमलनाथ को सुना उससे मुझे लगा कि भाजपा की राह भले ही मुश्किल हो, लेकिन कांग्रेस की डगर आसान नहीं है। कमलनाथ राजनीति के बहुत पुराने खिलाड़ी है और ऐसा लगता है कि या तो उन्होंने खुद रीछ का पांव पकड़ लिया है या फिर उन्हें पकड़ा दिया गया है।
अपनी बात ही उन्होंने एक सफाई से शुरू की। इसमें बातचीत न करने के मुद्दे पर मीडिया की उनसे नाराजगी का संदर्भ था। कमलनाथ ने कहा- ‘’मैंने मीडिया से बात करने से कभी इनकार नहीं किया लेकिन मेरे पास समय कम है और मुझे चुनाव के संदर्भ में बहुत सारे काम देखने है इसलिए मैं चाहूंगा कि आप मेरी बाध्यताएं समझें।‘’
अपनी सफाई देते हुए कमलनाथ ने सोशल मीडिया पर पिछले 24 घंटों के दौरान चले कुछ संदेशों का जिक्र किया और कहा कि इन संदेशों के जरिए मेरे बारे में भ्रम फैलाने की कोशिश हुई। जबकि मेरा आशय वो कतई नहीं था जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है। मै यहीं रहने वाला हूं, एक दिन में गायब नहीं होने वाला। आप अपने प्रोफेशन के सम्मान की भी रक्षा करें।
इस सफाई को सुनकर मुझे लग गया कि कमलनाथ कि राह कितनी मुश्किल है। दरअसल यह छोटी सी बानगी थी, उस बात की कि आने वाले दिनों में कमलनाथ को किस तरह के हालात और चुनौतियों का सामना करना है। वो एक गाना है ना- ‘अभी तो पार्टी शुरू हुई है…’ उसी तर्ज पे अभी तो सोशल मीडिया का खेल शुरू ही हुआ है, आगे आगे देखिए वो क्या क्या रंग दिखाता है।
मुझे लगता है कि कमलनाथ को दो मोर्चों पर लड़ने के लिए खुद को तैयार कर लेना चाहिए। मध्यप्रदेश में उनकी पहली लड़ाई भाजपा से होगी और दूसरी मीडिया अथवा सोशल मीडिया से। दुर्भाग्य से जो टीम उनके आसपास है उसमें ऐसे ‘सोशल’ हमलावरों से निपटने वाला कोई सूरमा दिखाई नहीं देता, जबकि भाजपा के पास इसकी पूरी फौज है।
‘मीट द प्रेस’ के एक और प्रसंग ने मुझे हैरान कर दिया। उस प्रसंग का जिक्र करने से पहले मैं साफ कर दूं कि मैं मीडिया की आचार संहिता का उल्लंघन करने का आदी नहीं हूं लेकिन वहां जो हुआ उसमें यह बात साफ नहीं हो पाई कि घटना जिक्र करना मीडिया नैतिकता का उल्लंघन होगा या नहीं। इसलिए मैं संदेह का लाभ लेकर इस तराजू को अपने पक्ष में झुकाते हुए उस घटना का जिक्र कर रहा हूं।
कमलनाथ से सवाल पूछा गया कि जब आपको मध्यप्रदेश की कमान सौंपनी ही थी तो हाईकमान ने इसमें इतनी देरी क्यों कर दी? कमलनाथ ने बहुत हलके फुलके अंदाज में, बचते बचाते वाले ढंग से कहा- ‘’मैं इसका जवाब दूंगा लेकिन छापना मत…’’ उनका इतना कहना था कि पूरे हॉल में ठहाका गूंज गया। यानी वहां मौजूद किसी भी व्यक्ति ने उसे गंभीरता से किया गया अनुरोध नहीं माना।
वैसे भी मैंने ऐसा कभी नहीं देखा कि कोई नेता, और वह भी कमलनाथ जैसा अनुभवी नेता, ‘मीट द प्रेस’ जैसे कार्यक्रम में किसी सवाल का जवाब देते हुए यह कहे कि इसे छापना मत…। जो लोग मीडिया की फितरत जानते हैं वे अच्छी तरह समझते हैं कि ऐसा कहने का असली मतलब होता है- इसे जरूर छापना… वरना आमतौर पर जिस बात को छपवाना नहीं होता उसका जिक्र भी कोई नेता नहीं करता।
और कमलनाथ ने क्या कहा, एक तरह से उन्होंने अपनी नई भूमिका की बुनियाद पर ही हथौड़ा चला दिया। खुद को नई भूमिका सौंपे जाने में हुई इतनी देरी होने पर वे बोले- ‘’दरअसल इसके लिए मैं खुद भी जिम्मेदार हूं। मुझे भी मन बनाने में समय लगा…’’ जैसे ही उनका वाक्य पूरा हुआ, मैं बाहर चला आया क्योंकि मेरे दफ्तर पहुंचने का समय हो गया था।
रास्ते भर मैं सोचता रहा कि वो पार्टी जिसे छह महीने बाद एक ऐसे प्रदेश में चुनाव लड़ना है जहां पिछले 15 सालों से उसकी सरकार नहीं है, वो अव्वल तो अपना अध्यक्ष तय करने में इतना लंबा समय लगाती है और जिसे अध्यक्ष बनाया जा रहा है वो ऐन मौके तक इस ऊहापोह में रहता है कि कमान संभालूं या नहीं… उधर कमान संभालने को तैयार बैठे लोग दरकिनार कर दिए जाते हैं…
हालांकि कमलनाथ ने यह नहीं बताया कि आखिरी मौके तक उनके मन में ऊहापोह किस बात को लेकर थी? कहीं यह ऊहापोह इस बात की तो नहीं थी कि मध्यप्रदेश जाकर मैं फंस तो नहीं जाऊंगा? कहीं चुनाव नतीजों को लेकर मन में कोई संशय तो नहीं था? कहीं उन्हें यह खुटका तो नहीं था कि बाकी सारे लोग उनका सहयोग करेंगे या नहीं… ये सारे सवाल इसलिए हैं क्योंकि इनकी गुंजाइश खुद कमलनाथ ने ही अपने खुलासे से पैदा कर दी है…
पुनश्च- नए अध्यक्ष के लिए मेरे पास एक सुझाव है। वे कोशिश करें कि नई धारा के मीडिया और नए मीडियाकारों को भी पहचानें। क्योंकि अब खबरें उंगलियों से नहीं लिखी जातीं, अंगूठों से चलाई जाती हैं।