गिरीश उपाध्याय
पश्चिम बंगाल में हुए चुनाव का सबसे चर्चित नारा था ‘खेला होबे’… राज्य में चुनाव हो चुका है और ममता बैनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस ने भाजपा की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए भारी बहुमत से एक बार फिर सरकार बनाने का जनादेश हासिल कर लिया है। लेकिन यह मान लेना भूल होगी कि चुनाव खत्म होने के साथ चुनाव का चर्चित नारा ‘खेला होबे’ भी खत्म हो गया है। दरअसल टीएमसी और भाजपा के बीच असली खेला तो अब शुरू होगा। और चुनाव के विपरीत इस बार आमने सामने दो राजनीतिक दल नहीं बल्कि दो सरकारें होंगी।
बंगाल चुनाव के दौरान जो कुछ भी घटा है उसने भारत में लोकतंत्र से लेकर संविधान तक के सामने कई सवाल खड़े किए हैं। एक राज्य का चुनाव दो पार्टियों के बीच कम और दो सरकारों के बीच शक्ति परीक्षण का अखाड़ा ज्यादा बन गया था। एक तरफ ममता के नेतृत्व वाली पश्चिम बंगाल की तृणमूल सरकार थी तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार। दोनों ने चुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी और हर पैंतरा और हथकंडा अपनाया था। इस दौरान जायज और नाजायज जैसे सवाल दरकिनार हो गए थे। लक्ष्य किसी भी तरह युद्ध जीतना था और इसके लिए जिसे जो ठीक लगा उसने उचित अनुचित की परवाह किए बिना उस तरीके को इस्तेमाल किया।
इसलिए अब जब चुनाव नतीजे आ गए हैं तो इस युद्ध को समाप्त समझने के बजाय केंद्र व राज्य सरकार के बीच एक नए युद्ध और एक नए टकराव की शुरुआत समझा जाना चाहिए। बंगाल का चुनाव न तो खेल भावना से लड़ा गया था और न ही खेल भावना से खत्म हुआ है। वह खालिस दुश्मनी के अंदाज में, और एक दूसरे को निपटाने के लिए आरपार की लड़ाई के तौर पर लड़ा गया। ऐसे में यह मानना भूल होगी कि चुनाव के बाद बंगाल में राजनीतिक और अराजनीतिक माहौल की गरमी खत्म हो जाएगी। दोनों मोर्चों पर नए ज्वालामुखी तैयार हैं जो निश्चित रूप से फटेंगे भी और दुश्मनी के इस लावे से प्रदेश और देश को झुलसाएंगे भी।
बंगाल की ममता सरकार और केंद्र की मोदी सरकार के बीच वैसे भी टकराव कोई नया नहीं है। चुनाव से काफी पहले से ही दोनों सरकारें अलग अलग मोर्चों और मौकों पर एक दूसरे से टकराती और एक दूसरे की सत्ता को चुनौती देती आई हैं। ममता ने कई मौकों पर केंद्र की सुप्रीमेसी को अंगूठा दिखाने की कोशिश की है फिर चाहे वह प्रधानमंत्री की सत्ता को मानने से इनकार करने वाला मामला हो, केंद्रीय एजेंसियों को राज्य में न घुसने देने का मामला हो या फिर अपने यहां काम करने वाले अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को केंद्र द्वारा तबल किए जाने पर उन्हें न भेजने का मामला हो। ममता ने केंद्र से कई मोर्चों पर सीधा टकराव मोल लिया है।
अब जबकि चुनाव में वे एक बार फिर प्रचंड बहुमत से सरकार में आ गई हैं, उनका बल और मनोबल आसमान छू रहा होगा। ऐसे में वे अब केंद्र सरकार से दो-दो हाथ करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देंगी। चूंकि उन्होंने इस चुनाव को बंगाल की अस्मिता का पर्याय बना दिया था, इसलिए अब जब भी केंद्र की मोदी सरकार और राज्य की ममता सरकार के बीच टकराव का कोई भी मुद्दा उठेगा, दीदी उसे सीधे बंगाल की अस्मिता पर चोट करने वाला हमला साबित करने से पीछे नहीं हटेंगी। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि ममता साधारण राजनेता नहीं हैं। वे एक लड़ाका राजनेता हैं और उनकी राजनीति आक्रामकता की राजनीति है। उनकी इसी आक्रामकता ने बंगाल के लोगों को उनका दीवाना बनाया है। ऐसे में वे ऐसा कोई मौका हाथ से नहीं जाने देंगी जहां उन्हें बंगाल और बंगालियत के नाम पर आक्रामक होने की गुंजाइश नजर आए।
चूंकि बंगाल के चुनाव एक तरह से ममता बनाम मोदी हो गए थे इसलिए ऐसे हर संभावित टकराव के दौरान ममता को एक फायदा मोदी के खिलाफ देश में होने वाली विपक्षी राजनीति के समर्थन का भी मिलेगा। ममता के रूप में विपक्ष को मोदी को चुनौती देने वाली एक नेता मिली है। ममता ने विपक्षी राजनीति को साधने के प्रयास पहले भी किए थे लेकिन उस समय उन्हें उतनी सफलता नहीं मिली थी। लेकिन इस बार जिस तरह बंगाल का चुनाव हुआ है और जिस तरह ममता बैनर्जी ने उसे अकेले अपने दम पर जीता है उससे विपक्ष की राजनीति में उनका कद अपने आप बहुत ऊंचा हुआ है। ऐसे में जब भी वे केंद्र की मोदी सरकार से कोई टकराव मोल लेंगी और जो कि वे लेंगी ही, तो उनके साथ गैर भाजपा और गैर एनडीए सरकारों के अलावा बाकी विपक्षी दल भी खड़े नजर आएंगे।
एक गंभीर मुद्दा बंगाल में होने वाली संभावित हिंसा का भी है। आने वाले दिनों में बंगाल में राजनीतिक हिंसा का एक भयानक दौर देखने को मिल सकता है। वैसे भी पिछले दो चार सालों में राज्य में भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच हुई हिंसा की घटना में दर्जनों लोग मारे जा चुके हैं और कई इलाके दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के सीधे टकराव के टापू बन चुके हैं। चुनाव के बाद कई जगहों पर भाजपा कार्यालय में हुई आगजनी और हमले इस बात का संकेत है कि चुनाव भले ही खत्म हो गए हों लेकिन यह हिंसा खत्म होने वाली नहीं है।
जब तक चुनाव संपन्न नहीं हुए थे या चल रहे थे तब तक तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के मन में संभवत: थोड़ा बहुत यह डर रहा होगा कि यदि भाजपा की सरकार बन गई तो उनके लिए मुसीबत खड़ी हो सकती है। लेकिन अब जबकि फिर से तृणमूल ही सरकार बनाने जा रही है तो उसके कार्यकर्ता ‘भयमुक्त’ होकर या यूं कहें कि सरकार से मिलने वाले संरक्षण के प्रति आश्वस्त होकर ऐसी गतिविधि को अंजाम देने से नहीं चूकेंगे जिसे ‘बदले की राजनीति’ कहा जाता है। उधर भाजपा भले ही राज्य में मुख्य विपक्षी दल के तौर पर उभरी हो, लेकिन उसके लिए, सरकारी संरक्षण में सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं द्वारा की जाने वाली किसी भी हिंसक गतिविधि से अपने कार्यकर्ताओं को बचाना आसान नहीं होगा।
कुल मिलाकर आने वाले दिनों में जहां हम बंगाल में केंद्र व राज्य सरकार के बीच नए-नए टकराव और संवैधानिक संकट की स्थिति को देखेंगे वहीं हिंसा का वह दौर भी देखने को मिल सकता है जिसकी नींव चुनाव का युद्ध लड़ते हुए दोनों दलों ने पहले ही रख दी है। अब इस पर खड़ी होने वाली राजनीतिक हिंसा की इमारत किस किस से क्या क्या कीमत वसूलेगी कहना मुश्किल है। क्योंकि बंगाल की राजनीति में संयम और समझदारी जैसे शब्द फिलहाल तो शब्दकोश से गायब ही नजर आ रहे हैं। (मध्यमत)
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