गिरीश उपाध्याय
मध्य प्रदेश की राजनीति में इन दिनों ‘गद्दारी कांड’ छाया हुआ है। इस कांड में एक-दूसरे के छिलके उतारे जा रहे हैं और ज्यों-ज्यों छिलके उतर रहे हैं राजनीति और ज्यादा निर्वस्त्र होती जा रही है। मामला राजा दिग्विजय सिंह और महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया का है, इसलिए प्रदेश की राजनीति भी इस घमासान को बहुत दिलचस्पी से देख रही है। पहले दोनों नेताओं और अब उनके समर्थकों/प्रवक्ताओं के बीच हो रही जुबानी जंग ने मर्यादा और लिहाज की सारी सीमाएं तोड़ दी हैं। इस तरह की कड़वाहट के नजारे मध्यप्रदेश की राजनीति में बहुत कम देखने को मिले हैं।
दरअसल, केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह दोनों ही पहले एक पार्टी यानी कांग्रेस में रह चुके हैं। पार्टी पॉलिटिक्स से अलग भी दोनों के बीच एक और रिश्ता रहा है, जो सिंधिया राजशाही से जुड़ता है। एक समय दिग्विजयसिंह की रियासत राघोगढ़, सिंधिया राज्य का ही हिस्सा रही है और दिग्विजय सिंह एक रियासतदार के नाते सिंधिया दरबार में जाते रहे हैं। वैसे दोनों नेताओं के बीच रिश्तों की खटर पटर नई नहीं है, लेकिन मध्यप्रदेश में 2018 में कांग्रेस की सरकार बनने और उसके बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ व दिग्विजय सिंह के गठजोड़ के चलते दरकिनार कर दिए जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले जाने के बाद से दोनों के रिश्ते और ज्यादा कड़वे हुए हैं। सिंधिया का मानना रहा है कि कांग्रेस में उन्हें अलग-थलग करने या नीचा दिखाने में दिग्विजय सिंह की प्रमुख भूमिका थी। वहीं दिग्विजयसिंह सिंधिया के भाजपा से हाथ मिला लेने के बाद राज्य में कांग्रेस की सरकार के पतन से खफा हैं।
दिग्विजयसिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच शुरू हुए ताजा घमासान के कारणों को जानना भी कम दिलचस्प नहीं है। दरअसल बात उस समय शुरू हुई, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में आने व मंत्री बनने के बाद 4 दिसंबर को पहली बार दिग्विजय सिंह के गृहनगर राघोगढ़ पहुंचे। वहां उन्होंने सार्वजनिक सभा में कहा कि अब तक तो मैं संकोचवश राघोगढ़ आने से परहेज करता था, लेकिन अब बार-बार आऊंगा। कांग्रेस में अपने साथ हुए छल का परोक्ष रूप से जिक्र करते हुए उन्होंने दिग्विजय सिंह के गढ़ में कहा- एक तरफ हम हैं, जो कहते हैं कि प्राण जाए पर वचन न जाए। वहीं एक पार्टी का कहना है कि वचन तो जाए, पर प्राण न जाए।
बात सिंधिया के राघोगढ़ दौरे और जनसभा तक सीमित रहती तो भी ठीक था, लेकिन सिंधिया ने दिग्विजय सिंह को एक तरह से उनके ही घर में चिढ़ाते हुए दिग्विजय के करीबी रहे कांग्रेस नेता और पूर्व विधायक मूलसिंह के बेटे हीरेंद्रसिंह को भाजपा की सदस्यता भी दिलवा दी। हीरेंद्र सैकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए। और शायद यही कारण था जिसने दिग्विजय सिंह को तिलमिला दिया।
संयोग से जिस समय सिंधिया राघोगढ़ के दौरे पर थे, उसी समय दिग्विजय सिंह भी गुना जिले के ही मधुसूदनगढ़ में मौजूद थे। और वहीं उन्होंने राघोगढ़ की घटना और सिंधिया की टिप्पणियों पर पलटवार करते हुए वो बयान दिया जो ताजा ‘गद्दारी कांड’ की वजह बना। दिग्विजयसिंह ने कहा-“कांग्रेस की सरकार तो बन गई थी। सिंधिया जी छोड़कर चले गए और 25-25 करोड़ रुपए ले गए एक-एक विधायक का। कांग्रेस के साथ धोखा कर गए, इसका मैं क्या करूं। किसने सोचा था। जनता ने तो कांग्रेस की सरकार बनवा दी थी। इतिहास गवाह है कि एक व्यक्ति गद्दारी करता है, तो उसकी पीढ़ियां भी गद्दारी करती हैं।”
बस इसके बाद से ही दोनों पक्षों में तलवारें खिंच गईं। उसके बाद सिंधिया ने खुद तो ज्यादा कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके सिपहसालारों ने दिग्विजय सिंह पर हमला बोलते हुए इस विवाद में कई गड़े मुर्दे उखाड़ कर खड़े कर दिए। दोनों नेताओं के इस बयान युद्ध में पहली बार भाजपा ने भी खुलकर हस्तक्षेप किया और पार्टी ने बाकायदा सिंधिया के समर्थन में अपने मुख्यालय पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करवाई।
प्रदेश भाजपा के दो प्रवक्ताओं पंकज चतुर्वेदी और दुर्गेश केसवानी ने इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में आरोप लगाया कि गद्दार तो दिग्विजयसिंह का खानदान है। उन्होंने अपनी बात के समर्थन में मीडिया को कुछ दस्तावेज भी बांटे, जो कथित रूप से दिग्विजय सिंह के पिता बलभद्रसिंह के समय के हैं। इन दस्तावेजों में इस बात का जिक्र है कि 1939 में बलभद्र सिंह ने न सिर्फ चिट्ठी लिखकर अंग्रेजों का साथ देने की पेशकश की थी, बल्कि उसके एवज में अपने लिए कुछ अधिकार और विशेष सुविधाओं की मांग भी की थी। सिंधिया समर्थक पंकज चतुर्वेदी का दावा है कि ये सारे दस्तावेज प्रमाणित हैं और उस इतिहास का हिस्सा हैं, जो अभी तक छिपाया जाता रहा है।
दरअसल, दिग्विजय सिंह पर आरोप तो पहले भी कई तरह के लगते रहे हैं और उनके पिता की हिन्दू महासभा/जनसंघ से नजदीकी की बात भी उठती रही है, लेकिन राघोगढ़ रियासतदारों की अंग्रेजों से मिलीभगत और उनसे कथित लाभ लेने की बात इतनी जोरदारी से कभी नहीं उठाई गई। उलटे अब तक दिग्विजय सिंह ही स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी से लेकर गोडसे व सावरकर जैसे मुद्दे उठाकर भाजपा और आरएसएस को घेरते रहे हैं। यह पहली बार है जब उनके परिवार के अतीत पर उंगली उठी है।
ताजा विवाद की जड़ में दिग्विजय और सिंधिया की आपसी खुन्नस के अलावा एक और एंगल भी है। वास्तव में दिग्विजय इन दिनों खुद से ज्यादा अपने बेटे जयवर्धन सिंह की चिंता कर रहे हैं। उम्र के तकाजे के चलते दिग्विजय सिंह (74) की राजनीति अब ढलान पर है, लेकिन 35 साल के जयवर्धन को तो राजनीति में काफी लंबा चलना है। ऐसे में पिता के रहते पुत्र की जड़ें राजनीति में जितनी गहरी जमा दी जाएं, उतना ही उसे भविष्य में फायदा होगा।
दिग्विजय का यह पुत्र मोह प्रदेश ने 2018 में कमलनाथ सरकार के गठन के समय भी देखा था, जब यह चर्चा आम थी कि काफी जूनियर होने के बावजूद अपने बेटे को सीधे केबिनेट मंत्री बनवाने के लिए दिग्गी राजा ने कमलनाथ पर दबाव बना कर मंत्रिमंडल में सारे ही मंत्रियों को केबिनेट का दर्जा दिलवा दिया। ऐसा पहली बार हुआ था जब प्रदेश में सारे के सारे केबिनेट मंत्रियों ने ही शपथ ली थी।
कांग्रेस में अपने साथ हुए व्यवहार और उसके पीछे दिग्विजय सिंह को बड़ा कारण मानते हुए सिंधिया ने जैसे ही राघोगढ़ की तरफ कूच किया, दिग्विजय सिंह को खुद से ज्यादा अपने बेटे के लिए खतरा नजर आया। संभवत: उन्हें लग रहा है कि यदि सिंधिया राघोगढ़ विधानसभा क्षेत्र में सक्रिय होते हैं और अपनी पैठ बना लेते हैं तो जयवर्धन सिंह के लिए चुनावी राजनीति की राह बहुत मुश्किल हो जाएगी। गद्दार वाला बयान देने के पीछे दिग्विजय सिंह की मंशा शायद यह भी रही होगी कि खानदान की छीछालेदर होने से बचने के लिए सिंधिया राघोगढ़ से किनारा कर लेंगे।
लेकिन, दूसरी तरफ सिंधिया के तेवर कुछ और ही संकेत कर रहे हैं। जब वे कहते हैं कि अब तक तो वे संकोच के चलते राघोगढ़ नहीं आते थे पर अब बार-बार आएंगे, तो इसका सीधा मतलब है कि वे दिग्विजय सिंह को उन्हीं के घर में सबक सिखाना चाहते हैं और उन्होंने सीधे उस तोते पर निशाना साधा है, जिसमें दिग्गी की जान बसी है। सिंधिया का निशाना जयवर्धन सिंह हैं, इस बात का संकेत राघोगढ़ की सभा में सिंधिया के बहुत करीबी और प्रदेश के पंचायत मंत्री महेंद्रसिंह सिसोदिया का यह बयान है कि- ”राघोगढ़ में चमचों और दलालों का साम्राज्य है। जो चमचे हैं वो किले पर पहुंच जाते हैं, बाकी जनता तो लाइनों में धक्के खाती है। जयवर्धन सिंह पर हमला बोलते हुए महेंद्रसिंह ने कहा- ”बाबा साहब आप पहले 48 हजार से जीते थे, अब आप 48000 वोटों से चुनाव हारोगे।”
अपने पिता पर लगाए गए संगीन आरोप पर दिग्विजय सिंह का कोई बयान अभी तक नहीं आया है, लेकिन जाहिर है जब मामला व्यक्तिगत खुन्नस और बदला लेने का हो तो गद्दारी के छिलके उतारने और गड़े मुर्दों को जिंदा करने का यह सिलसिला जल्दी थमने वाला नहीं है। (मध्यमत)
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