राकेश अचल
मुझे पता है कि मेरा लिखा ये आलेख चीन के राष्ट्रपति या कोई दूसरा चीनी नागरिक नहीं पढ़ पायेगा, क्योंकि मेरा चीनियों से दूर का भी रिश्ता नहीं है, सिवाय इसके कि मैंने चीन में एक पखवाड़ा बिताया है, चीन की दीवार पर चढ़ाई की है और वहां के वामपंथी शासन की झलक भी देखी है। वामपंथी होना बुरा नहीं है लेकिन वामपंथ की आड़ में तानाशाही लाद देना बुरा है। चीन में शायद ये बुराई सर से पैर तक घर कर गयी है।
चीन की संसद ने हाल ही में इसी तानाशाही प्रवृत्ति से प्रेरित होकर हांगकांग के लिए नया जनप्रतिनिधित्व क़ानून बनाया है जिसके तहत अब केवल ‘देशभक्त’ ही चुनाव लड़ पाएंगे और देश भक्त कौन है इसका निर्धारण चीन की सरकार करेगी। चीन में क्या होता है इसकी खबर दीन-दुनिया को तभी मिलती है जबकि चीन चाहे। वहां के लोकतंत्र की दीवारें चीन की दीवार की ही तरह ऊंची हैं। इनके बाहर सिर्फ वो ही खबर निकल सकती है जिसके पास सरकार का गेटपास हो। चीन की दीवार ऊंची ही नहीं है, ऊंचा सुनती भी है। उसे उतना ही सुनाई देता है जितना वो सुनना चाहती है।
चीन की दीवार को फांदकर ताजा खबर आयी है कि चीन ने हांगकांग की चुनावी प्रक्रिया में बड़ा बदलाव करते हुए तय किया है कि अब सिर्फ बीजिंग के प्रति भक्ति रखने वाले लोगों को ही चुनाव लड़ने की अनुमति होगी। इस आदेश से दुनिया का ‘फाइनेंशियल हब’ कहे जाने वाले हांगकांग पर चीन की दादागीरी बढ़ जाएगी। मंगलवार को ही राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हांगकांग में चुनाव सुधार के प्लान पर साइन किए हैं। चीन के सरकारी मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक हांगकांग की व्यवस्था में इस बड़े बदलाव की वजह यह है कि देशभक्त लोगों के जरिए ही स्थानीय निकायों का संचालन हो सके। इसके जरिए शहर की गवर्नेंस में खामियों को दूर किया जाएगा।
बताया जाता है कि मार्च की शुरुआत में ही चीन की संसद नेशनल पीपुल्स कांग्रेस ने चुनाव सुधार के प्लान को मंजूरी दी थी। चीन की सरकारी एजेंसी शिन्हुआ की रिपोर्ट के मुताबिक एनपीसी स्टैंडिंग कमेटी ने बहुमत से प्रस्ताव को पारित किया है। इस नए कानून के तहत हांगकांग के संविधान में संशोधन हो जाएगा। नए कानून के मुताबिक हांगकांग में चुनाव लड़ने वाले किसी भी शख्स की उम्मीदवारी की समीक्षा एक कमेटी की ओर से की जाएगी। इसके लिए इलेक्शन कमेटी बनाई जाएगी। यह कमेटी उम्मीदवारों की मॉनिटरिंग करेगी और नेशनल सिक्योरिटी अथॉरिटीज के साथ मिलकर काम करेगी ताकि देशभक्त उम्मीदवारों का चयन हो सके।
देशभक्ति क्या है ये हमें आजतक पता नहीं क्योंकि इसका कोई स्वरूप नहीं है। ये अदेह है, हवा की तरह है, सांस की तरह है, धड़कन की तरह है, इसे दिखाया नहीं जा सकता, इसे केवल अनुभव किया जा सकता है। हाँ इसके प्रमाणपत्र अब जरूर बनाए जाने लगे हैं। पहले ऐसा नहीं होता था। जब हमें हिंदी व्याकरण पढ़ाई जाती थी तब पहली बार देशभक्ति शब्द देकर हमसे सवाल किया गया कि था देशभक्ति शब्द में कौन सा समास है? देशभक्ति शब्द दो शब्दों देश और भक्ति से मिलकर बना है। इसको देश की भक्ति के रूप में पढ़ा जायेगा, इससे पता चलता है कि इसमें भक्ति शब्द की प्रधानता ज्यादा है, इसलिए यहाँ तत्पुरुष समास होगा। देशभक्ति शब्द में तत्पुरुष समास है।
आज दुनिया इसी देशभक्ति के युग से गुजर रही है जहां देश से ज्यादा भक्ति को प्रधानता दी जा रही है। आजादी के पहले की देशभक्ति और आजादी के बाद की देशभक्ति में जमीन-आसमान का अंतर है। आज की देशभक्ति में प्रमाणपत्र बांटे जाते हैं। देशभक्तों के लिए विशेष प्रावधान किये जाते हैं। चीन वालों ने हांगकांग वालों के लिए जैसा प्रावधान किया है वैसा प्रावधान हमारे यहां भी है। हमारे यहां देशभक्त बिना प्रतियोगी परीक्षा पास किये भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारी बन सकते हैं। मुमकिन है कि यदि चीन के राष्ट्रपति एक-दो बार हमारे देश की यात्रा और कर लें तो यहां भी चुनाव लड़ने के लिए तमाम दस्तावेजों की तरह देशभक्ति का प्रमाणपत्र या शपथपत्र देने की जरूरत पड़ने लगे। देशभक्ति के नमूने अमेरिका में भी देखे गए।
हम भले ही विश्वगुरु हों लेकिन हम विश्व छात्र भी हैं। जहां से जो नया मिलता है फ़ौरन सीख लेते हैं। इसीलिए मुझे आशंका होती है कि हांगकांग के लिए जैसा क़ानून चीन ने बना लिया है वैसा ही क़ानून कहीं हमारे यहां जम्मू-कश्मीर और असम के लिए न बना दिया जाये। आखिर नकल करने में देर कितनी लगती है। हमने क़ानून नहीं बनाया लेकिन कश्मीरियों को सबक सिखाने के लिए कश्मीर के तीन टुकड़े कर दिए। ये क़ानून बनाने से बड़ा काम है। वैसे क़ानून बनाने में भी हमारे यहां रास्ता बड़ा आसान है। संसद में विधेयक लाइए और ध्वनिमत से कानून बना डालिये।
देशभक्त होना बुरी बात कभी न थी और न होगी, लेकिन पिंग और मोदी भक्त होना बुरी बात है और कल भी होगी। आप अपनी पार्टी के भक्त बने रहिये इतना ही काफी है। कांग्रेस में भी यही भक्तिभाव था जो उसे ले ही डूबा। आज कांग्रेस कहाँ है, दुनिया जानती है, कल का क्या पता? कांग्रेस होगी भी या नहीं। मैं तो कहता हूँ कि कांग्रेस को अपने नेताओं को राष्ट्रभक्ति सीखने के लिए नागपुर या बीजिंग भेज देना चाहिए। दोनों जगह के विश्वविद्यालयों का देशभक्ति का पाठ्यक्रम लगभग एक जैसा जान पड़ता है। यानि जो आपके मन की बात सुनकर न झूमे उसे देशद्रोही करार दे दीजिये।
हमारे यहां अभी देशभक्त और देशद्रोहियों के बीच तलवारें खिंची हुई हैं। सरकार का बस नहीं चल रहा अन्यथा अब तक तो देश के तमाम देशद्रोही तड़ीपार कर दिए गए होते। मुश्किल ये भी है कि आजकल हमारा अपने पड़ोसियों से भी छत्तीस का आंकड़ा है इसलिए किसी को तड़ीपार कर भेजा भी आखिर कहाँ जाये? अंग्रेजों ने तो देश के आखरी मुगल बादशाह को आज के म्यांमार यानि कल के बर्मा भेज दिया था।
दुनिया के तमाम देशों में हांगकांग हैं जो देशभक्ति और देशद्रोह के आरोपों की चक्की में पीसे जा रहे हैं। असल मानवाधिकार का हनन यही है लेकिन चूंकि ये सबका आंतरिक मामला है इसलिए कोई इस बारे में सिवाय तबके, जबकि ऐसा करना राजनीतिक मजबूरी न हो, बोलता भी नहीं है। जैसे जम्मू-कश्मीर का मामला न होता तो हमारे पंत प्रधान भी बलूचिस्तान के बारे में न बोलते। हम अब तिब्बत के बारे में कहाँ बोलते हैं। तिब्बत तो छोड़िये हम असम में घुसपैठ पर गुड़ खाकर बैठ जाते हैं, क्योंकि देशभक्त हैं।
देशभक्ति की आड़ में जो जिन पिंग कर रहे हैं वो कोई भी कर सकता है। कर भी रहे हैं लोग। आज भी चोला बदलकर तानाशाही देशभक्ति में लगी हुई है। मेरा मानना है कि देशभक्ति कोई कोरोना की वेक्सीन नहीं है कि जिसे आप अपनी सुविधा से इस्तेमाल कर सकें। देशभक्ति एक जज्बा है जो सबसे ऊपर है। उसे किसी के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है और न ही कोई देशभक्ति का ठेकेदार बनकर सनदें बाँट सकता है।(मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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