डॉ. अजय खेमरिया
भारत के नभमंडल में जिस वक्त फ्रांस से आये लड़ाकू विमान राफेल की गर्जना गुंजायमान हो रही थी उसी वक्त केंद्र की मोदी सरकार 34 साल बाद नई शिक्षा नीति की घोषणा कर रही थी। इसे आप एक संयोग मात्र मत समझिये। यह प्रतीकों के जरिये भारत के भविष्य और इरादों की संभावनाओं की उद्घोषणा भी है। हमने फ्रांस से राफेल विमान इसलिए मंगाए हैं क्योंकि 70 साल में तकनीकी के क्षेत्र में शोध और नवोन्मेष पर बुनियादी रूप से प्रमाणिक प्रतिबद्धता की कमी रही है।
नई शिक्षा नीति असल में नए भारत की आवश्यकता और स्वाभाविक उत्कर्ष को प्रतिबिंबित करती है। भारत की मूलचेतना, जन्मजात प्रतिभा और निष्णात तत्व के अधिकतम अनुप्रयोग को सुनिश्चित करने वाली नई शिक्षा नीति का स्वागत किया जा रहा है। इसे जिस समावेशी मानसिकता और स्थानीय धरातल पर तैयार किया गया है वह अपने आप में मिसाल है। आलोचकों के लिए आलोचना के इसमें बहुत ज्यादा तत्व नहीं मिल रहे है, क्योंकि यह उदारता के साथ भारतीय बहुलतावाद का भी प्रतिनिधित्व करती है। इसीलिये अभी तक इसके विरुद्ध भगवाकरण जैसे स्थाई जुमले विपक्ष या वाम बस्तियों की तरफ से सुनाई नहीं दिए हैं।
जिस नई नीति को प्रस्तुत किया गया है उसके जमीनी क्रियान्वयन में ईमानदारी सभी स्तरों पर सुनिश्चित हो जाये तो भारत अगले कुछ दशक में उन सभी लक्ष्यों को हासिल कर सकता है जो उसके लिए स्वाभाविक हैं लेकिन गलत नीतियों के चलते अभी भी कठिन बने हुए है। सवाल यह है कि क्या नई नीति को लागू करने के लिए वैसी ही प्रतिबद्धता भारत के प्रशासनिक तंत्र में दिखाई देगी। असल समस्या सियासी श्रेय और यथास्थितिवाद पर अडिग भारतीय अफसरशाही की है जिसे बदलना आज भी सबसे बड़ी चुनौती है।
नई नीति शालेय शिक्षा को मातृभाषा और प्रादेशिक भाषाओं में देने की वकालत करती है साथ ही उच्च शिक्षा को व्यावहारिक बनाने पर जोर देती है। मौजूदा नीति केवल रट्टा लगाकर विहित परीक्षा पास करने का अनुसरण करती है, यह केवल अंक सूची संधारित करती है, कोई निपुणता नहीं देती, न ही कौशल उन्नयन को छूती है। सीखने का कोई तत्व इसमें नहीं है। नई नीति जिज्ञासा केंद्रित है, सब कुछ किताबी लिखा पढ़ने की जगह जीवन भर सीखने की बात करती है।
अलग अलग संकायों में बंटी पॉलिसी की जगह पाठ्यक्रम से बाहर हर रुचिकर ज्ञान और कौशल को सीखने का तत्व ही वास्तविक रूप से शिक्षा का उद्देश्य होता है। इसी तत्व पर यह नई नीति अवलंबित है। प्लेटो ने अपनी शिक्षा नीति में कहा है कि उच्च शिक्षा सभी के लिए एक जैसी नहीं हो सकती है, इसके वर्गीकरण को उन्होंने कौशल और रुचि के आधार पर आगे बढ़ाने की बात कही है। वे कहते हैं कि संगीत भी शिक्षा का अभिन्न हिस्सा होना चाहिये क्योंकि अच्छा संगीत मन की भावनाओं को परिष्कृत करता है।
जाहिर है बीएससी या बीकॉम करने वाला कोई विद्यार्थी अगर अच्छा संगीतज्ञ या चित्रकार बनना चाहता है तो उसे उसकी विहित स्नातक शिक्षा इसकी इजाजत नहीं देती है। कोई खेल में कॅरियर बनाना चाहता है तो उसे अलग से बीपीएड की पढ़ाई करनी होगी जो उसकी खिलाड़ी बनने की उम्र को खत्म कर देती है। नई नीति इस बन्धन को खत्म करती है क्योंकि यह बहुविषयक पढ़ाई की बात करती है। दिल्ली विवि में ही 30 फीसदी बच्चे अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं, इसके पीछे आर्थिक कारण भी होते हैं। ऐसे में, स्नातक की साल दो साल की गई पढ़ाई बेकार चली जाती है। जबकि हम सैद्धान्तिक रूप से कहते हैं कि पढ़ाई जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है।
नई नीति इसे दुरुस्त करती है और स्नातक डिग्री को डिप्लोमा, सर्टिफिकेट और डिग्री में बदलती है। यह नागरिक के लिए आजादी और अधिकार की बेहतरीन गारंटी है। असल में हमारी डिग्रियाँ केवल नौकरियों के लिए एक कागजी पुर्जा भर हैं, इसीलिए इन्हें इस तरह बनाया गया है। जबकि उच्च शिक्षा का ढांचा स्थानीय उद्योगों, स्टार्टअप की जरूरतों से सयुंक्त होना चाहिए। भारत की प्राचीन आर्थिकी में जिन 64 स्थानीय कलाओं को प्रतिष्ठित किया गया था वे श्रम और कौशल को आत्मनिर्भरता से जोड़ती थीं लेकिन औपनिवेशिक शासन ने इस सशक्त आर्थिकी को खत्म कर व्हाइट कॉलर बाबू का जो आदर्श स्थापित किया उसने भारत के स्वत्व को ही खत्म करने का काम किया।
अनेक अध्ययन यह प्रमाणित कर चुके हैं कि विश्व में सीखने के लिहाज से भारतीय बच्चे किसी भी विकसित देश से जन्मना बेहतर हैं। अमेरिका में सर्वाधिक कुशाग्र ‘भारतीय अमेरिकियों’ को गिना जाता है। क्या भारत के इस डीएनए का हम 70 साल में बेहतरी के लिए उपयोग कर पाएं है? पीसा जो यूरोपियन मानक है उसके द्वारा किये गए एक अध्ययन में भारतीय स्कूलों की गुणवत्ता को 110 देशों में नीचे से दूसरे स्थान पर रैंकिंग दी गई है। जाहिर है हमारी शालेय शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह चौपट है।
नई नीति में इसके शमन की सोच नजर आती है। यह लर्निंग आउटपुट के साथ सम्पूर्ण विकास की बात करती है। अरली चाइल्डहुड केयर एंड एजुकेशन को लेकर सरकार की प्राथमिकता शिक्षा के बुनियादी बदलाव को सशक्त बनाने की है। छठी कक्षा से ही वोकेशनल स्किल को पकड़ने का प्रावधान असल में उस बड़े लक्ष्य को पकड़ने के लिए ही है जिसके जरिये चीन और साउथ कोरिया जैसे मुल्कों ने दुनिया में अपनी आर्थिक हैसियत को कम समय में हासिल किया है।
भारत की नई नीति चीन और कोरियाई मॉडल की तरह ही कौशल उन्नयन को सुनिश्चित करती है। दोनों देशों में ‘स्टीम’ सिस्टम (यानी साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, आर्ट्स और मैथ्स) के तहत शालेय शिक्षा दी जाती है। कुछ महीने पहले ही मप्र में कमलनाथ सरकार ने इस मॉडल को मप्र में लागू करने की योजना को स्वीकृति दी थी। जाहिर है स्कूलों के लिए यह मॉडल स्किल डेवलपमेंट के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता है।
उच्च शिक्षा को शोध एवं विकास (आर एंड डी) उन्मुख बनाने के लिए नई नीति में जो बुनियादी प्रावधान हैं वह असल में भारत की जन्मना प्रतिभा को निखारने का संकल्प ही हैं। चार वर्षीय डिग्री कोर्स उन प्रतिभासंपन्न बच्चों को इस राष्ट्रीय योगदान के लिए चिन्हित करेगा। वैसे भी भारत विश्व की तीसरी बड़ी वैज्ञानिक एवं तकनीकी जनशक्ति वाला देश है। सुपर कम्प्यूटर से लेकर नैनो तकनीकी और सॉफ्टवेयर क्षेत्र में भारत की प्रतिभा को दुनिया ने अधिमान्यता दी है।
सीएसआई, डीआरडीओ, आईसीएआर, इसरो, आईसीएमआर, सीडेक, एनडीआरआई, आईआईएस, आईआईटीज जैसे संस्थानों ने शोध और नवोन्मेष में बहुत ही बेहतरीन काम किया है, लेकिन यह भी तथ्य है कि इन संस्थानों तक आम भारतीय की पहुँच बिरली है। इन संस्थानों का स्वरूप आज भी एलीट क्लास का प्रतिनिधित्व अधिक करता है। देश के शेष विश्वविद्यालय आर एंड डी के मामले में शून्यवत हैं क्योंकि वे उसी डिग्रीमूलक ढर्रे पर चल रहे हैं। यही कारण है कि 1930 में सीवी रमन के बाद कोई शोध हमें नोबेल की लाइन में नजर नहीं आया है।
नई नीति भारत के बिखरे हुए शोधार्थियों को समेकित करने का काम कर सकती है। जिस कोरियाई सफल एजुकेशन मॉडल की हम बात करते हैं वहां आर एन्ड डी पर जीडीपी का 4.2 फीसदी खर्च होता है, चीन में यह आंकड़ा 2.01, इजरायल में 4.2 और अमेरिका में 2.8 है। भारत मे यह केवल 0.6 फीसदी ही है। नई नीति अमेरिका की तर्ज पर नेशनल रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना का प्रावधान करती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान के संग जय अनुसन्धान की बात भी शोधकर्ताओं से कही थी। यह आह्वान जमीन पर उतारने की ईमानदार कोशिश इस नीति में नजर आती है। उच्च शिक्षा के ढांचे से प्रशासनिक उलझाव खत्म कर एकीकृत स्वरूप देने का प्रावधान बहुत लंबे समय से प्रतीक्षित था।
कुल मिलाकर शिक्षा के जरिये भारत को सांगोपांग महाशक्ति बनाने की प्रबल इच्छा को उद्घाटित करती इस नीति को लेकर देश भर में स्वागत का माहौल है। यह सही अर्थों में शिक्षा को औपनिवेशिक चंगुल से मुक्ति की संकल्पना भी है। यह भारत के स्वत्व और स्वाभाविक सामर्थ्य को साकार करने का भी प्रयास है। आवश्यकता इस बात की है कि इसे राजनीतिक मोहपाश से बचाकर ईमानदारी के साथ जमीन पर उतारने के लिए भी उसी उदारता और समावेशी सोच से काम किया जाए जैसा इसे बनाने में किया गया है।