राकेश अचल
भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल की मांग करते-करते राजनीति के दलदल में फंस रही टीम अन्ना में बिखराव के बाद एकीकरण का कोई रास्ता नहीं खुला। आपको याद होगा कि टीम अन्ना से सबसे पहले एकता परिषद के पी.वही.राजगोपाल और मेगासेसे पुरस्कार विजेता राजेन्द्र सिंह अलग हुए थे। इससे पहले स्वर्गीय स्वामी अग्निवेश का टीम अन्ना से रिश्ता दरक ही चुका था, लेकिन जनसमर्थन के कथित नशे में डूबे टीम अन्ना के बाकी सदस्यों को और खुद अन्ना को इसकी फ़िक्र नहीं रही। टीम अन्ना यह भूल गयी है कि भ्रष्टाचार केवल कांग्रेस की देन नहीं है और न यह कांग्रेस तक सीमित है।
भ्रष्टाचार एक सर्वव्यापी समस्या है और इसके लिए व्यापक संघर्ष की जरूरत है। टीम अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष को कांग्रेस तक सीमित कर दिया था। भाजपा के खिलाफ खड़े होने का साहस ये टीम दिखा नहीं सकी। पिछले दो लोकसभा चुनाव में “बिल्ली के भाग्य से छींका टूट गया।” कांग्रेस को जीतना ही नहीं था, लेकिन टीम अन्ना को लगा कि कांग्रेस उनकी अपील कि वजह से हार गयी।
यही एक ऐसी खुशफहमी है जो टीम अन्ना को भटका रही है। टीम अन्ना के इस भटकाव पर पूरे देश की नजर है। टीम अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगाने के वजाय राजनीति में सक्रिय हो गयी है। वह देश को यह समझाने में लगी है कि जनलोकपाल ही भ्रष्टाचार को समाप्त करने का एकमात्र उपाय है और कांग्रेस यह उपाय करने नहीं दे रही। अब भाजपा भी तो कांग्रेस की राह पर है।
हम कांग्रेस के अनुयायी नहीं हैं, किन्तु हमें टीम अन्ना कि यह सोच भ्रामक लगती है। टीम अन्ना यदि सचमुच भ्रष्टाचार के खिलाफ जन जागरण में यकीन रखती है तो उसे उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ नहीं, योगी आदित्यनाथ के कथित रामराज और मायावती के भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करना चाहिए। लेकिन हम जानते हैं कि टीम अन्ना के पास ऐसा करने का साहस नहीं है। टीम अन्ना जानती है कि यू.पी. में योगी जी के खिलाफ मुंह खोलने का मतलब आफत मोल लेना है। अब लगने लगा है कि जैसे टीम अन्ना के सदस्य सीधे देवलोक से आये हैं और उनसे ज्यादा पाक-साफ़ तथा सद्चरित्र अब देश में कोई दूसरा बचा ही नहीं है।
बिखराव का शिकार बनी टीम अन्ना को सबसे पहले अपने उन लोगों का विश्वास जीतना चाहिए जो बेचारे दिल्ली में अन्ना के आन्दोलन के लिए कथित रूप से की जा रही चंदा वसूली का विरोध कर रहे थे। वे सब अब कहां हैं। टीम अन्ना इन लोगों को भी अब सिरफिरा कहने में संकोच नहीं कर रही। अपने साथियों के लिए अघोषित रूप से धृतराष्ट्र बन रहे अन्ना भी हकीकत नहीं समझ पाए। दूसरों को मान-अपमान की परवाह न करने की सीख देने वाले अन्ना कभी अरविन्द केजरीवाल के ऊपर चप्पल फेंके जाने से विचलित हो जाते थे, केजरीवाल के लिए वे गोली खाने के लिए तैयार रहते थे। आज केजरीवाल अन्ना का नाम तक नहीं लेते। वे सत्तानुरागी हैं। कुछ भाजपा के साथ हैं।
टीम अन्ना अब सियासत में पूरी तरह रम चुकी है, जिसे जहां जगह मिली वहां उसने शरण ले ली है। जिन मुद्दों को लेकर अन्ना और उनकी टीम ने रण किया था वे जस के तस है। बल्कि और जटिल हो गये हैं। जैसे भाजपा के पास मोदी, कांग्रेस के पास राहुल का कोई विकल्प नहीं है ठीक वैसे ही सामाजिक आंदोलनों के पास फिलहाल दूसरा अन्ना नहीं है। 84 साल के अन्ना से अब कोई आस करना उनके साथ अन्याय होगा। संभवामि युगे, युगे की तर्ज पर देश में नया जेपी, नया अन्ना कहां जन्म ले चुका है, किसी को पता नहीं, किंतु घोर आस्था और विश्वास की मारी जनता कहां? अन्ना को नया लेना ही पड़ेगा। (मध्यमत)
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