बलात्कार के कानूनों को जेंडर न्यूट्रल बनाना समय की जरूरत

आदर्श गुप्ता

क्या केरल हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीश जस्टिस ए. मोहम्मद मुश्ताक़ का यह कहना कि भारत में बलात्कार (आईपीसी की धारा 376) से जुड़े कानून लिंग तटस्थ (जेंडर न्यूट्रल) नहीं है, सही है? बलात्कार से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता में बलात्कार के लिए तय कानून महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग हैं जबकि ऐसा नही होना चाहिए। उन्होंने कहा कि कानून के अनुसार कोई स्त्री शादी का झांसा देकर अपने पुरुष साथी को धोखा देती है तो उस स्त्री पर कोई कार्रवाई नहीं होती, लेकिन जब यही काम पुरुष करता है तो उसे इसके लिए सजा दी जा सकती है, जबकि कायदे से यह अपराध लिंग तटस्थ होना चाहिए।

कानून की जिस खामी की तरफ जस्टिस मुश्ताक़ ने इशारा किया है उसे सरकार से लेकर समाज तक मानता तो है, लेकिन 21 वीं सदी के भारत की इस सच्चाई को कबूल करके आईपीसी में संशोधन कोई करना नही चाहता है। बलात्कार से जुड़े कानूनों का इतिहास जानने से पहले यह जानें कि बलात्कार होता क्या है।

स्त्री प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक पुरुष द्वारा बलात्कार की शिकार होती आ रही है, समाजशास्त्रियों ने पुरुष की इस बलात्कारी प्रवृत्ति को वर्गीय कुंठा, जातीय ठसक, न बुझने वाली वासना की हवस, और अपनी लिंगीय ताकत के प्रदर्शन से जोड़ा है। सदियों से औरतें तलवार के बल पर या तो जीती जाती रही हैं या राजा-महाराज और सम्पन्न लोग उन्हें उपहार में देते रहे हैं। स्त्री से अपनी यौन पिपासा मिटाने के लिए पुरुष ने क्या-क्या नहीं किया। पौराणिक ग्रन्थ से लेकर इतिहास की किताबें इन कहानियों से भरी पड़ी हैं।

प्रकृति ने अपने विस्तार के लिए जो व्यवस्थायें बनाईं उनमें जानवर तक संयमित जीवन जीते हैं। मादा पशु जब पुकारती है नर पशु तभी उससे संसर्ग करता है लेकिन नर मानव 24 घण्टे 365 दिन अपनी नर स्त्री की सहमति असहमति जैसी किसी भी बात की परवाह किए बिना हर समय राजी से या जबरन, छल कपट, मारपीट किसी भी तरह उससे अपनी वासना की भूख मिटाने को तत्पर रहता है। मानव नर की इस अदम्य काम भूख ने ही बलात्कार को जन्म दिया। नर ने मादा को हासिल कैसे किया यह सवाल बेमानी हो गया। देवता तक इसके शिकार हुए और मानव तो आज भी इससे छूट नही पाया है। अभी इस पल जब आप यह पढ़ रहे हैं भारत में कोई 2 स्त्रियां बलात्कार की शिकार बन चुकी होंगी।

भारत में बलात्कार से जुड़े कानून 1860 से लागू हुए। अंग्रेज सरकार ने आईपीसी में धारा 375 को जोड़ा। इसमें प्रावधान किया गया कि जब कोई पुरुष किसी महिला के साथ उसकी इच्‍छा के विरुद्ध, उसकी सहमति के बगैर सम्भोग करता है तो उसे बलात्कार या बलात्संग माना जाएगा। महिला की सहमति यदि डरा-धमका कर ली गई तो भी यही माना जायेगा कि बलात्कार हुआ है। 18 वर्ष से कम आयु की स्त्री की सहमति को भी मान्य नहीं किया गया। लेकिन यदि विवाहित स्त्री जिसकी आयु 15 साल से अधिक है, तो उसके पति द्वारा उसके साथ किये गए जबरदस्ती के सम्भोग को कानून में बलात्कार नहीं माना गया।

आईपीसी में धारा 354 से इसकी शुरुआत होती है जो आमतौर पर यौन हिंसा से जुड़ी है। इसमें कई संशोधन हुए जिन्हें 354 A , 354 B, 354C और 354 D से परिभाषित किया गया है। एक अन्य धारा 375 भी इसी से जुड़ी है लेकिन इन सब धाराओं में एक समानता है कि ये सभी स्त्री को ही संरक्षित करती हैं। पुरुषों के संरक्षण का इसमें कोई प्रावधान नहीं है। उसके लिए धारा 377 की व्यवस्था थी, लेकिन वह भी पुरुष से पुरुष तक एक लिंगीय थी, उसे भी माननीय उच्चतम न्यायालय ने 2019 में हटा दिया।

1860 में लागू किये गए बलात्कार कानून से पहले इस तरह के अपराध से स्त्रियों को संरक्षित करने का कोई प्रावधान नहीं था, क्योंकि उस समय के समाज में स्त्री दोयम दर्जे की नागरिक मानी जाती थी। अमीर या गरीब हर स्तर की स्त्री एक यौन वस्तु मानी जाती थी जिसे बलात्कार का शिकार, उसके मालिक को नीचा दिखाने के लिए बनाया जाता था। स्त्री को लेकर पुरुष समाज की यह मानसिकता आज भी बदली नहीं है। कानून के डर से पुरुष की इस प्रवृत्ति  पर थोड़ा अंकुश जरूर लगा है। 1860 में बने बलात्कार कानून में पहला संशोधन 123 साल बाद 1983 में किया गया।

महाराष्ट्र के एक पुलिस थाने में मथुरा नाम की एक आदिवासी युवती के साथ कुछ पुलिसकर्मियों ने उस समय बलात्कार किया जब वह अपने परिवारजनों के साथ किसी घटना की रिपोर्ट लिखाने आई थी। मामले ने तूल पकड़ा तो पुलिस वालों के खिलाफ बलात्कार का मुकदमा दर्ज हुआ, लेकिन सेशन कोर्ट ने उन्हें बलात्कार के आरोप से यह कह कर बरी कर दिया कि थाने में मथुरा के साथ जो हुआ वह उसकी सहमति से हुआ, क्योंकि हादसे के बाद जांच में मथुरा और उसके कथित बलात्कारी पुलिस वालों के शरीर पर संघर्ष के कोई चिन्ह नहीं मिले थे।

इसे मथुरा की सम्भोग के लिए सहमति माना गया। बम्बई उच्च न्यायालय ने इस फैसले को गलत माना और पुलिस वालों को सजा सुना दी। मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो वहां सेशन कोर्ट के फैसले को सही ठहराया गया और सभी पुलिस वाले बरी हो गए। 1972 की इस घटना का फैसला 1978 में हुआ जिसका व्यापक विरोध हुआ। मजबूरन 1983 में केंद्र सरकार ने साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 में संशोधन करके उसमें 114 ए बढ़ाई जिसमे प्रावधान किया गया कि यदि कोई महिला यह कहती है कि उसके साथ बलात्कार हुआ, जिसमें उसकी कोई सहमति नहीं थी, तो यह मान लिया जाएगा कि उसके साथ बलात्कार बिना उसकी सहमति के हुआ।

इसके साथ धारा 228 में प्रावधान किया गया कि बलात्कार की शिकार महिला की पहचान जाहिर करना अपराध माना जाएगा। इसमें एक नई धारा जोड़ कर यह प्रावधान किया गया कि महिला के चरित्र पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं किया जाएगा। 1983 के इस पहले संशोधन के 30 साल बाद 2013 में दिल्ली में हुए निर्भया कांड के बाद बलात्कार कानूनों में वर्मा आयोग की सिफारिश पर कई बड़े संशोधन हुए और इसमें मृत्यु दंड तक की सजा का प्रावधान कर दिया गया, लेकिन रहा यह महिलाओं के प्रति पुरुषों का यौन हमला ही, लैंगिक असमानता दूर करने की जरूरत किसी ने नहीं समझी।

तो क्या वाकई में बलात्कार कानूनों में लैंगिक असमानता दूर कर उन्हें लैंगिक तटस्थ बनाये जाने की देश में कोई कोशिश नही हुई? संसद द्वारा गठित 172 वें लॉ कमीशन ने सन 2000 की अपनी रिपोर्ट में बलात्कार कानूनों को लैंगिक तटस्थ बनाए जाने की सिफारिश की थी, लेकिन नारी वादी संग़ठनो से डरी सरकार ने इस सिफारिश को मानने की हिम्मत नहीं दिखाई। 2017 में दिल्ली हाईकोर्ट भी केरल हाईकोर्ट की तरह बलात्कार कानूनों के लैंगिक तटस्थ न होने पर सवाल खड़े कर चुका है। 2019 में प्रसिद्ध वकील और सांसद केटीएस तुलसी ने संसद में इसे लेकर एक विधेयक रखा था, जिसमें कहा गया था कि समाज का संतुलन गड़बड़ा गया है। आज की इस 21वीं सदी में महिला और पुरुष में से कोई भी यौन अपराधी हो सकते हैं, इसलिए बलात्कार और यौन अपराध से जुड़े कानूनों को लैंगिक तटस्थ बनाया जाना जरूरी है। लेकिन यह बिल संसद में पास नहीं हुआ।

18 वीं शताब्‍दी से 21वीं शताब्दी तक के भारतीय समाज में अनेक परिवर्तन हुए हैं। 18 वीं शताव्दी का समय वह था जब स्त्री को चांद तो दिख जाता था, लेकिन पुरुष का चेहरा दिखना उसके लिए असम्भव होता था। ऐसे बन्द समाज में स्त्री का कामकाजी होना अकल्पनीय था। तब स्त्री का भाग्य पुरुष की मूंछ और उसकी तलबार से तय होता था। स्त्री और धरती का भोग वीर करते हैं, यह लोकोक्ति उस काल में बहुलता से प्रचलित थी। यहां तक कि ‘यत्र नार्यस्‍तु पूज्‍यंते रमंते तत्र देवता’ कहने वाले देवताओं और उनके लोक में भी स्त्री की स्थित मृत्यु लोक जैसी ही थी। लेकिन आज ऐसा नहीं है। दुनिया भर में हर क्षेत्र में स्त्री का डंका बज रहा है, उन क्षेत्रों में भी जो कभी पुरुषों के लिए ही बने माने जाते थे। ऐसे समय में स्त्री बलात्कार नहीं कर सकती, यह सोच ठीक नहीं लगती है। और लगती क्या… ठीक है हीं नहीं।

माननीय जस्टिस मुश्ताक़ का यह सवाल आज के हिसाब से बिल्कुल सही है कि शादी का वायदा करके जैसे कोई पुरुष स्त्री को धोखा दे सकता है, वैसे ही स्त्री किसी पुरुष को क्यों नही दे सकती है? प्यार तो पुरुष भी कर सकता है, बल्कि करता भी है। कितने ही पुरुषों ने प्यार में धोखा खाया, लेकिन सजा भी उन्हीं को मिली। कानून ने उनकी एक फरियाद नहीं सुनी। आज की स्त्री जो पुरुष कर्मचारियों की बॉस है, जो अधिकारी है, वह अपने अधीनस्थ पुरुषकर्मी को जबरन अपने साथ हम बिस्तर होने को मजबूर कर सकती है, उसका लैंगिक शोषण कर सकती है क्योंकि उसे पता है कि कानून इसके लिए सिर्फ पुरुष को सजा देगा। स्त्री को तो सिर्फ आंसू भरी आंखों से इतना भर कहना है कि इसने मेरे साथ मेरी मर्जी के बिना जबरदस्ती की है और गया बेचारा आदमी 7 से 14 साल तक के लिए जेल की सलाखों के पीछे बलात्कारी, यौन हिंसक अपराधी जैसे तमगे के साथ।

पुरुष की मजबूरी क्या है जो वह चुपचाप इस जुल्म को सह रहा है। इसमें बहुत बड़ी भूमिका तो खुद उसकी है। उसके साथ जबरदस्ती हुई या उसे सेक्सुअली यूज किया गया, यह बात वह किसी से कह नहीं सकता। औरत तो फिर भी कह लेती है, लेकिन पुरुष की मर्दानगी उसके आड़े आ जाती है, यह कहते ही उसका हाल औरत से भी बुरा हो जाता है, इसलिए पुरुष बलात्कार या उसके लैंगिक शोषण के बारे में किसी से कुछ नहीं कहता। पुलिस में रिपोर्ट लिखाना तो दूर की बात है, लेकिन उनका शोषण होता है। 2007 में भारत सरकार द्वारा कराए एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि 57.3 प्रतिशत लड़के और 42.7 प्रतिशत लड़कियां यौन शोषण का शिकार बनती हैं।

दिल्ली की एक संस्था के अनुसार उसके एक सर्वे में शामिल 222 पुरुषों में से 18 प्रतिशत ने माना था कि उन्हें जबरदस्ती यौन सम्बन्ध बनाने को मजबूर किया गया और ऐसा करने वालों में 16 प्रतिशत महिलाएं थी जबकि 2 प्रतिशत पुरुष थे। यह इस बात का प्रमाण है कि आज की औरत को भी मर्दाना शौक हो सकते हैं और यह नारी-मर्द या कहें शी मैन, कानून से संरक्षित हो तो फिर कहने ही क्या। इसलिए इस 21 वीं सदी में ‘’मर्द को दर्द नही होता” या अपनी मर्द वाली सोच को बदलने की जरूरत है।

ऐसा नहीं कि पुरुष के साथ बलात्कार से दुनिया अनजान रही है। इंग्लैंड में सन 1533 में ही इसे लेकर बगरी एक्ट बन गया था, लेकिन यह पुरुष के साथ पुरुष द्वारा किये गए बलात्कार पर प्रभावी था। 1828 और 1861 में इसमें कुछ संशोधन हुए। भारत में यह धारा 377 से लागू हुआ, लेकिन इसकी बिडम्बना यह थी कि यदि कोई महिला किसी पुरुष के साथ बलात्कार करती थी तो उस पर 377 का ही अपराध बनता था। पुलिस सबसे ज्यादा इस धारा का उपयोग ट्रांसजेंडर को कानून की पकड़ में लाने के लिए करती थी। सर्वोच्च न्यायालय ने 2019 में इस कानून को रद्द कर दिया।

भारत में कार्यस्थल पर होने वाले यौन शोषण को रोकने को लागू विशाखा कानून में स्त्री और पुरुष दोनों को संरक्षित किया गया है। इसी तरह पॉक्सो एक्ट में 14 साल तक के बच्चे को बिना लिंगीय भेदभाव के संरक्षित किया गया है। यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन यूजीसी ने भी सभी विश्वविद्यालयों में 2015 से समान लैंगिक तटस्थता के नियम लागू कर दिए हैं, लेकिन आईपीसी की धाराओं में आज भी अकेला पुरुष बलात्कारी है और स्त्री पीड़िता है।

बलात्कार के कानूनों को लिंग-तटस्थ बनाना आज की जरूरत है। इससे यौन शोषण के शिकार लोगों को बिना लिंगीय भेदभाव के, कानून से न्याय मिलेगा। यह संविधान की धारा 21 में वर्णित मौलिक अधिकारों के अनुरूप भी होगा।(मध्यमत)
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