रमेश रंजन त्रिपाठी
पुजारी जी मंदिर के पट बंद करने ही वाले थे कि कुछ अफसरनुमा लोग आ धमके। उन्होंने पुजारी जी को रोक लिया- ‘पूजा के लिए साहब आनेवाले हैं। आपको रुकना पड़ेगा।’
‘देवता तो विश्राम करने जा रहे हैं।’ पुजारी जी अचकचाए- ‘पट बंद हो रहे हैं।’
‘कुछ देर मंदिर को और खुला रखें।’ एक लंबे-तगड़े व्यक्ति ने पुजारी जी को इशारा किया- ‘इस समय अधिक भीड़ भी नहीं है इसलिए सबकुछ आसानी से हो जाएगा।’
‘देवता की दिनचर्या में व्यवधान उत्पन्न होगा।’ पुजारी जी ने समझाने का एक और प्रयास किया- ‘इसे धृष्टता कहते हैं। फिर, पूजा की सामग्री भी जुटानी होगी। कैसी पूजा करना चाहते हैं आपके साहब? छोटी, बड़ी या मझोली?’
‘न छोटी, न बड़ी, हमारे साहब वीआईपी पूजा करेंगे।’ अफसर ने वार्तालाप को संक्षिप्त करने का प्रयास किया-‘पूजन सामग्री साहब साथ में ला रहे हैं। आप केवल मंदिर खोल दें। और हां, साहब को मंदिर में अतिविशिष्ट का रुतबा भी देवताओं ने ही दिलाया है।’
उसी की भाषा में समझाई गई बात तत्काल पुजारी के गले उतर गई। ‘पूजा कौन कराएगा?’ पुजारी जी को अपनी दक्षिणा की चिंता सताने लगी।
‘आप कराएंगे।’ अफसर ने आश्वस्त किया- ‘बस इतना ध्यान रखें कि पूजा दस मिनट में संपन्न हो जाए। साहब के पास ज्यादा समय नहीं रहेगा। चढ़ावे और दक्षिणा की चिंता न करें। ओवरटाइम का ध्यान रखा जाएगा।’
‘बात पैसों की नहीं है।’ पुजारी जी अचकचाए- ‘पूजा विधिपूर्वक हो तो अच्छा है।’
‘आप निश्चिंत रहें।’ अफसर बोला- ‘पूजन सामग्री की उत्तम गुणवत्ता का पूरा ध्यान रखा गया है।’
‘ऐसी हड़बड़ी क्या है कि मंदिर के पट खुलने का इंतजार नहीं हो सकता?’ पुजारी जी पता नहीं किस धुन में बोल गए।
‘अनेक काम ऐसे हैं जो टाले नहीं जा सकते।’ अफसर ने पुजारी जी की जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास किया- ‘पूजा-पाठ के बिना इन कामों में सफलता नहीं मिलेगी। इसलिए आपको असमय कष्ट दे रहे हैं। वैसे, साहब जानते हैं कि देवी-देवताओं का नाम लेने के लिए सभी समय शुभ और अनुकूल होता है। देवता केवल मंदिर में ही नहीं सर्वत्र होते हैं। भजन-पूजन तो मन की बात है। जब मन करे तब नाम ले लो कल्याण होता है।’
‘तो वे अपने मन में पूजा क्यों नहीं कर लेते?’ शब्दों के मुंह से निकलते ही पुजारी जी को भूल का अहसास हो गया।
‘मनमंदिर की पूजा को कौन देखेगा?’ अफसर बोला- ‘धार्मिक उत्सव का माहौल कैसे निर्मित होगा? धर्मप्राण जनता जय जयकार कैसे करेगी? लोगों के मन में भक्तिभाव का उदय कैसे होगा?’
‘साहब को भक्तों की फौज क्यों चाहिए?’ पुजारी जी को समझ में नहीं आ रहा था- ‘उन्हें तो समर्थक या अधीनस्थ की दरकार होती होगी न!’
‘भक्त इन दोनों से भी आगे की श्रेणी है।’ इस बार लंबा-तगड़ा व्यक्ति बोला- ‘अनुयायी, समर्थक या अधीनस्थ तो कभी विचलित हो सकते हैं, किंतु भक्त को अपने मार्ग से डिगाना अत्यंत कठिन है। रही सही कसर पूरी करने के लिए भक्तों को नवधा भक्ति में लगा दीजिए। वे पूरी तरह आपके होकर रहेंगे।’
‘भला इस बात की सच्चाई एक मंदिर के पुजारी से अधिक कौन जानता होगा!’ पुजारी जी मुस्कुराए- ‘लेकिन इस समय भक्त आएंगे कहां से?’
‘साहब के साथ समर्थकों की फौज है जो यहां से लौटते समय भक्तों में तब्दील हो चुकी होगी।’ अफसर हंसा।
मंदिर के सिंहद्वार पर साइरन की आवाज आने लगी थी।