अजय बोकिल
लाल किले जैसी अप्रतिम ऐतिहासिक और राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीक वास्तुशिल्प को ठेके पर देना कुछ उसी तरह का फैसला है कि कोई अपने कुलशील को कबाड़ी के यहां गिरवी रख दे। मानकर कि पुराना माल है, वहीं ठीक रहेगा। मोदी सरकार का यह फैसला कितना ही‘व्यावहारिक’ और सांस्कृतिक चिंताओं से भरा क्यों न हो, उससे देश का मन आशंकित ज्यादा है बजाए आश्वस्त होने के। पिछले साल 27 सितंबर को विश्व पर्यटन दिवस पर ‘पर्यटन पर्व’ के तहत जो ‘एडाप्ट टू मान्युमेंट’ स्कीम (हिंदी में ‘अपनी धरोहर/अपनी पहचान’) राष्ट्रपति के हाथों लांच करवाई गई थी, तब ज्यादातर लोगों को ठीक ठीक अंदाजा नहीं था कि आगे क्या होने वाला है?
देश में पर्यटन किस दिशा और सोच के साथ आगे बढ़ने वाला है? इतिहास का चश्मदीद गवाह रहा आगरे का ताजमहल और कोणार्क का सूर्य मंदिर अब किन हाथों में खेलने वाला है? भारतीय संस्कृति के इन ब्रांड एम्बेसेडरों को अब कंपनियों के प्रचारक का रोल भी अदा करना होगा?
हालांकि केन्द्रीय पर्यटन मंत्री महेश शर्मा इन आशंकाओं को बेबुनियाद बताते हैं। उनके मुताबिक ये सभी चुनिंदा स्मारक निजी और सार्वजनिक कंपनियों के हाथों में इसलिए दिए जा रहे हैं ताकि वहां पर्यटन के अनुकूल माहौल बनाया जा सके, विश्व स्तर की बुनियादी नागरिक सुविधाएं मुहैया कराई जा सकें, सुरक्षित पर्यावरण सहेजा जा सके। सरकार इसे पर्यटन का ‘सर्वसमावेशी’ वातावरण कहती है। यह सारा काम भी केन्द्रीय पर्यटन विभाग और पुरातत्व संरक्षण विभाग के सहयोग से ही होगा।
यह भी कहा गया कि पूरी योजना ‘लाभ’ कमाने के लिए नहीं बल्कि पुरासंपदाओं के संरक्षण में निजी क्षेत्र की रचनात्मक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए है। सरकार इसे ऐतिहासिक ‘स्मारकों की सेवा’ में निजी क्षेत्र का योगदान मानती है। वहां कोई भी बदलाव या काट-छांट भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण और पर्यटन विभाग की अनुमति के बगैर नहीं होगी।
इसी योजना के तहत देश के 93 ख्यातिप्राप्त स्मारक ठेके पर दिए जा रहे हैं। इनमें दिल्ली के लाल किले के अलावा कुतुब मीनार व जंतर मंतर, आगरे का ताजमहल, कोणार्क का सूर्य मंदिर, अंजता की गुफाएं और दक्षिण के हिंदू राज्य विजयनगर की प्राचीन राजधानी हंपी भी शामिल है। दिल्ली में मुगल बादशाह शाहजहां द्वारा 1638 से 1648 के बीच बनवाए गए लाल किले के मेंटेनेस और ऑपरेट करने का जिम्मा निजी कंपनी डालमिया भारत 25 करोड़ में संभालेगी।
कंपनी ने यह करार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के साथ किया है। ठेका पांच साल के लिए है। इस दौरान कंपनी अपनी ब्रांडिंग भी कर सकेगी। यह खबर आते ही राजनीतिक बवाल मचा। कांग्रेस और आरजेडी ने सरकार के इस फैसले की आलोचना करते हुए सवाल किया कि आखिर सरकार सरकारी इमारतों को निजी हाथों में कैसे सौंप सकती है?
मान लें कि सरकार इन अत्यंत महत्वपूर्ण धरोहरों के बेहतर रखरखाव की दृष्टि से ऐसा कर रही हो और इसके लिए इन्हें निजी हाथों में ठेके पर देने से बेहतर कोई और व्यावहारिक उपाय उसे न सूझा हो। लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि क्या ठेके पर देना ही इन अनमोल पुरासंपदाओं के संरक्षण का अंतिम उपाय है? क्योंकि इन स्मारकों के रखरखाव के लिए ठेकेदार कंपनियां (करार के मुताबिक) जो कुछ करने वाली हैं, वह तो अभी भी किए ही जा रहे हैं।
क्या ताजमहल में झाड़ू नहीं लगती? क्या लाल किले में टॉयलेट नहीं हैं? क्या अजंता में लाइट नहीं है? क्या इनकी सुरक्षा में पुलिस तैनात नहीं है? फिर ऐसा कौन सा काम है, जो इनके ठेके पर जाने से होने लगेगा? लाल किले की बात करें तो डालमिया ने इसके रखरखाव का जिम्मा जिस 25 करोड़ में लिया है, उसकी चार गुना वसूली वह अलग-अलग तरीकों से पांच साल में नहीं करेगा, इसकी क्या गारंटी है? अगर वहऐसा नहीं करेगा तो 25 करोड़ लगाएगा क्यों? कहा जा रहा है कि यह सब सीएसआर फंड से होगा। अगर डालमिया को स्मारकों से इतना ही प्रेम है तो एएसआई को इतना पैसा दान में ही क्यों नहीं दे देता?
जाहिर है कि डालमिया ने यह ठेका केवल लाल किले को पूजने के लिए नहीं लिया है। वह इस ऐतिहासिक धरोहर के साथ अपनी ब्रांडिंग भी करेगा। यह दिखाने की भरपूर कोशिश होगी कि भई लाल किला भी अब हमारे भरोसे है। जब हम लाल किला बचा सकते हैं तो हमारे कंपनी की सीमेंट भी आपके आशियाने को लाल किले की तरह मजबूती देगी।
अगर इसे ‘गिव एंड टेक’ भी मान लें तो जो सवाल इस पुरातात्विक ठेकेदारी से उभर रहे हैं, उनमें सबसे बड़ा तो यह है कि जो स्मारक‘मॉन्युमेंट मित्रों’ को सौंपे जाने हैं, वे महज पर्यटन या मनोरंजन स्थल न होकर भारत की राष्ट्रीय अस्मिता के अमूल्य और अमिट प्रतीक हैं। ये हमारी संस्कृति और सभ्यता के विकास के मील के पत्थर हैं। इन्होंने इतिहास बनते हुए देखा है और आज भी उसकी एंकरिंग कर रहे हैं। ये हमारे स्वाभिमान का प्रतीक हैं। चूंकि ये हमारी विरासत के पहरेदार भी हैं, इसलिए इनका संरक्षण, सुरक्षा, रखरखाव करना सीधा सरकार का कर्तव्य है। उस सरकार का, जिसे जनता चुनती है। जिसे अपना विश्वास सौंपती है।
अभी तो यह शुरुआत है। अगर ये मुनाफे का धंधा साबित हुआ तो कल को बकौल कांग्रेस संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, सुप्रीम कोर्ट, हमारे तीर्थ स्थल भी ठेके पर होंगे। ठेके पर देने के लिए एक शहद भीगा शब्द ‘गोद’ लेना भी है। सरकारी भाषा में ये स्मारक निजी कंपनियों को गोद दिए जा रहे हैं। इस गोद की पवित्रता और इन कंपनियों की राष्ट्रभक्ति पर सवाल न उठाएं तो भी अपने और इतिहास के अवचेतन में यह आशंका कुलबुलाती रहेगी कि लाल किले की प्राचीर से होने वाला प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन भी कल को ठेके पर यह कहकर न दे दिया जाए कि इससे जनतंत्र और मजबूत होगा। तब लाल किले की आत्मा क्या सोचेगी?