कमलनाथ और दिग्विजय सिंह भी तो राजनीति ही कर रहे हैं

सतीश जोशी

देश में सबसे अधिक राज करने वाली कांग्रेस लाख भाजपा पर राजनीति करने का आरोप लगाए, आरोप सही भी हों, पर इतिहास में उसने भी राम मंदिर के मामले में अपनी राजनीति चमकाने का कोई अवसर नहीं छोड़ा। इतिहास गवाह है कि गोविन्दवल्लभ पंत ने राजनीति की नब्ज या देश की बहुसंख्यक जनता की भावना को समझकर जो किया वह ही 5 जुलाई के शिलान्यास की बुनियाद है। कल जब नरेन्द्र मोदी चांदी की शिला रखेंगे तो गोविन्दवल्लभ पंत की आभा उस चांदी की चमक में होगी। जैसे सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार में सरदार वल्लभभाई पटेल और राजेन्द्र प्रसाद ने बहुसंख्यक जनता की भावना का मान रखा था। पंडित जवाहरलाल नेहरू भले ही आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में हमारी श्रद्धा केन्द्र हैं पर उनको बहुसंख्यक जनता की भावना को कुचलने के लिए भी याद किया जाएगा।

उपचुनाव के लिए
कमलनाथ आज राजेन्द्र प्रसाद के भाव के उत्तराधिकारी बनना चाहते हैं तो दिग्विजयसिह अपने को नेहरू से इतर नहीं दिखाना चाहते। दोनों ही राजनीति कर रहे हैं। एक बहुसंख्यक पट्टी की जनसभाओं में वोट के लिए निकला है तो दूसरा 5 अगस्त के शिलान्यास से आहत लोगों को तुष्ट करने की राजनीति कर रहा है। क्या नेहरू युग में भी यही राजनीति की लकीर खींची जा रही थी। नहीं,  यह मानना या निष्कर्ष निकालना सही नहीं होगा। आज की राजनीति में तुष्टीकरण के देवताओं की भरमार है, कांग्रेस में भी भाजपा में भी। देश की सांस्कृतिक विरासत के अपमान की लडाई लड़ना और जीतना, राजनीति होते हुए भी राजनीति नहीं लगती, क्योंकि आज तो अधिकांश देशवासी उसके पीछे खड़े हैं।

तो प्रमाणित हुआ
बावजूद इसके अयोध्या विवाद पर माननीय उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय के बाद ये प्रमाणित हो गया कि संत समाज, करोड़ों रामभक्तों व विभिन्न संगठनों के साथ भारतीय जनता पार्टी के संघर्ष के फलस्वरूप ही श्री राम जन्मभूमि विवाद निर्णायक मोड़ पर पहुंच सका। यह अयोध्या में रामलला का एक भव्य मंदिर बनाने के लिए किए गए अथक संघर्ष का एक पक्ष है, लेकिन दूसरे पक्ष का अवलोकन भी जरूरी है।

कांग्रेस का रोल
दूसरा पक्ष यह कि जिस राजनीतिक दल का देश की सत्ता पर सबसे लंबे समय तक शासन रहा, आखिर उसकी तरफ से अयोध्या विवाद के समाधान के लिए कितने और किस तरह के प्रयास किए गए। 1947 के बाद देश बड़ी आशा से प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की तरफ देख रहा था। देश को विश्वास था कि सदियों से मुगल-ब्रिटिश आक्रांताओं की दास्तां सहते हुए जीर्ण-शीर्ण हुई भारत की 5000 साल से भी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरों का पुनरुद्धार, उनकी पुनर्स्थापना का कार्य प्रारंभ होगा। सोमनाथ मंदिर के पुनरुद्धार के लिए तो वरिष्ठ मंत्री के.एम. मुंशी और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने प्रयास शुरू भी कर दिए थे।
नेहरू इस पर असहमति व्यक्त करेंगे, इसकी किसी को अपेक्षा नहीं थी। नेहरू ने सरदार पटेल से भी अप्रसन्नता व्यक्त की और इतना ही नहीं, उन्होंने राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को भी मंदिर में लिंगम के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में जाने से मना करना चाहा। जिस नेतृत्व पर, जिस दल पर, देश की सांस्कृतिक विरासत और धरोहरों को सजाने-संवारने और संरक्षित करने का दायित्व था, क्या उससे हिंदुओं की आस्था की उपेक्षा अपेक्षित थी?

राम मंदिर और नेहरू
सोमनाथ का जीर्णोद्धार शुरू हुआ तो आयोध्या में भारत की आस्था के केंद्र बिंदु रहे भगवान राम का भव्य मंदिर बनाने की भावना भी प्रबल होने लगी। 1949 में श्री रामजन्मभूमि पर बने विवादित ढांचे के गर्भगृह में रामलला की मूर्ति प्रकट हुई। इस पर प्रधानमंत्री नेहरू का रवैया हिंदू समाज को क्षुब्ध करने वाला था। उन्होंने तत्काल मूर्ति को वहां से हटाने का आदेश दे दिया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जी.बी. पंत थे, उन्होंने नेहरू को बताया कि यह मामला राष्ट्रीय है, लेकिन नेहरू के दबाव में श्री राम जन्मभूमि परिसर पर ताला लगा दिया गया।
ये बात अलग है कि स्थानीय अदालत के फैसले के बाद एक पुजारी को वहां रामलला की पूजा करने की अनुमति दे दी गई। नेहरू को यह अच्छा नहीं लगा और उन्होंने फैज़ाबाद जिला मजिस्ट्रेट के.के. नायर को पत्र लिखकर अपनी नाराजगी जाहिर की। श्री नायर इस बात से इतना आहत हुए कि उन्होंने प्रधानमंत्री को जवाब देने की जगह उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव को अपना इस्तीफा भेज दिया। फिर से ढांचे के बाहर ताला लगवा दिया गया। इसके बाद, कांग्रेस ने सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए भगवान राम में जनमानस की आस्था का राजनीतिक इस्तेमाल किया।

कांग्रेस की राजनीति
1985 में शाह बानो के तीन तलाक केस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संसद में अपने संख्याबल का दुरुपयोग करते हुए पलट दिया। वजह स्पष्ट थी कि उन्हें समुदाय विशेष के वोट बैंक की रक्षा करनी थी। फिर जब लगा कि देश का बहुसंख्यक समुदाय इससे व्यथित होगा तो अचानक कांग्रेस का भगवान राम के प्रति अनुराग जाग उठा और विवादित ढांचे के द्वार राजीव गांधी सरकार ने पूजा के लिए खुलवा दिए। लेकिन जब हिंदू संगठनों, संत समाज और देशभर के करोड़ों रामभक्तों ने श्री राम जन्मभूमि पर शिलान्यास का संकल्प लिया तो कांग्रेस की सोच फिर प्रमाणित हो गई। उत्तर प्रदेश में सरकार कांग्रेस की ही थी। राज्य सरकार ने 1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ से हिंदू संगठनों द्वारा प्रस्तावित श्री राम जन्मभूमि स्थल पर शिलान्यास को रोकने की मांग की।

चुनाव के लिए
1989 के लोकसभा चुनाव करीब थे। ऐसे भी प्रसंग हैं कि राजीव गांधी को चुनाव प्रचार की शुरुआत किसी दूसरे राज्य से करनी थी, लेकिन बहुसंख्यक समाज को रिझाने और शाह बानो मामले पर उनके निर्णय से हुई क्षति की भरपाई करने के लिए उनका रथ अयोध्या पहुंच गया। कहीं न कहीं यह कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति से प्रेरित था, क्योंकि कभी इन पौराणिक स्थलों के इतिहास पर कोई विवाद नहीं रहा और यह स्पष्ट था कि पहले मुगलों और बाद में अंग्रेजी हुकूमत के अधीन हिंदू धर्म प्रतीकों को सुनियोजित तरीके से चोट पहुंचाई गई थी।

लटकाने का सिलसिला
श्रीराम मंदिर मामले को अटकाने, लटकाने और उलझाने का कांग्रेस सरकार का सिलसिला जारी था। 1989 में उन्होंने एक और व्यूह रचा जब श्री राम मंदिर के लिए शिलापूजन में करोड़ों लोग शामिल हो रहे थे तब केंद्रीय गृह मंत्री बूटा सिंह ने लोकसभा में शिलान्यास के विरुद्ध एक प्रस्ताव पेश किया, जिसे अधिकतर गैर भाजपा दलों ने स्वीकार कर लिया। हालांकि, जनभावना के आगे सरकार को झुकना पड़ा और भूमि का शिलान्यास तय तिथि को राजीव गाँधी ने संपन्न किया। इतिहास करवट लेता है, कमलनाथ बहुसंख्यक समुदाय को संतुष्ट करने के लिए राजनीति कर रहे हैं और दिग्विजय सिंह का क्या वे तो जो कर रहे हैं वह नेहरू की लकीर पीटकर राजनीति करते ही आए हैं, सो कर रहे हैं।

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