प्रमोद शर्मा
हवाओं में ‘पुरविया‘ हवा को सबसे अच्छी और खुशहाली लाने वाली माना जाता है। इन दिनों देश के उत्तर पूर्व में बसे उत्तर प्रदेश से नाम बदलने वाली पुरविया मध्यप्रदेश तक पहुंच चुकी है। अब हमारे शहर यानी होशंगाबाद का नाम नर्मदापुरम होगा। इसका ऐलान सूबासदर ने नर्मदा जयंती के अवसर पर किया। हालांकि इस बात को लेकर लंबी बहस छिड़ गई है। कुछ लोग चाय की चुस्की लेते हुए शेक्सपियर के अंदाज में बोले- नाम में क्या रखा है? दूसरा मुंह में दबे गुटखे की पीक थूककर तुलसीदास हो गया और बोला- नाम में ही सबकुछ धरा है। नाम का प्रभाव व्यक्ति से अधिक होता है- ‘राम एक तापस त्रिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।‘ लेकिन यह चौपाई उसकी समझ में नहीं आई और उसकी मति नहीं सुधरी। वह अपनी जिद पर अड़ा रहा और बोला- ‘नाम से होता क्या है? तो दूसरे ने भी नहले पर दहला मारा- ‘तो एक बार अपना नाम बदलकर देखो, पता चल जाएगा? बहस चलती रही।
वैसे, नाम को लेकर पुरातनकाल से ही बड़ा झंझट रहा है। बच्चे के पैदा होते ही सबसे पहला बखेड़ा नाम को लेकर ही खड़ा होता है। दादा-दादी से लेकर नाना-नानी और अन्य रिश्तेदारों में इस बात को लेकर बहस छिड़ जाती है कि आखिर बच्चे का नाम कौन रखेगा और क्या रखा जाए? हमारे गांव में नाम को ‘नाव‘ भी कहते हैं। कई बार तो घर के लोगों के अलावा अलाने-फलाने और अमके-ढिमके तक इस ‘नाव‘ में अपने अनुभव और ज्ञान के चप्पू लेकर सवार हो जाते हैं।
गांव के एक-दो ऐसे खुर्राट किस्म के बुजुर्ग होते ही थे, जो खांसते हुए आते और औंटले पर बैठते ही पूछते- ‘काय फलनवा मोड़ा को नाव का धरौ?‘ जवाब में जब कोई कहता कि- ‘कक्का अभी कछु समझ में नईं आ रओ। तब ऐसे स्वयंभू कक्का अपने अधकचरे ज्ञान का खजाना खोलते और कहते कि- ‘फागुन कौ महीना है तो फागराम ही धर दो।‘ ऐसे नामकरण संस्कार पूरा हो जाता था। वैसे कई बार तो बिना पूछे ही वे अपनी मर्जी से कोई भी नाम धर देते थे। ऐसे नामों की फेहरिस्त काफी लंबी है।
हालांकि कई बार घूंघट की ओट से विद्रोह की चिंगारी सुलगती दिखती, लेकिन कक्का के अहसान में दबे गुलाम मानसिकता के मुखिया के कारण चिंगारी का दम टूट जाता। कक्का का रुतबा इतना गालिब था कि मजाल है कोई कान भी हिला सके, सो हो गई नामधराई। ऐसी ‘नामधराई‘ बाद में गांव के लोगों के लिए मसखरी का पक्का इंतजाम बनती और बच्चे के लिए भारी सिरदर्द। बाद में जब ये नामधरामई जंगहंसाई बन गई तो लोगों को लगा कि इसे बदलना चाहिए। धीरे-धीरे यह परंपरा फलने-फूलने लगी और ऐसे नामों को इतिहास बनाने का अभियान ही चलन में आ गया।
ऐसा इसलिए भी संभव हुआ क्योंकि तब तक स्वयंभू कक्का इस फानी दुनिया को अलविदा कहकर जा चुके होते थे और उनके अनावश्यक दबाव में जकड़े घर के मुखिया का ताज भी छिन चुका होता था। हालांकि कुछ ऐसे लोग अभी भी हैं, जो ऐसे बदनाम और बेतुके नामों को ढो रहे हैं। वैसे हमारे सनातन में नाम की बड़ी महिमा कही गई है। लोक व्यवहार में भी नाम का बड़ा महत्व रहा है। नाम को लेकर दर्जनों मुहावरे और कहावतें भी प्रचलित हैं।
यूं देखा जाए तो नाम ही व्यक्ति की असल पहचान है। जब कोई अपने नाम से कम पहचाना जाए या भ्रम की स्थिति हो तो पिताजी का नाम साथ में जोड़ दिया जाता है। उससे व्यक्ति की पहचान और प्रभाव बढ़ जाता है। रामचरित मानस में धनुष भंग के समय जब परशुराम आ धमकते हैं तो उनके कोप से भयभीत राजाओं को नाम की वैतरणी ने ही पार लगाया- ‘पितु समेत कह निज-निज नामा।‘ यह नाम का प्रताप था कि वे परशुराम के कोप से बच सके। परशुरामजी भी अपने नाम के प्रभाव से लक्ष्मणजी को डराने का प्रयास करते हैं। हमारे धर्मग्रंथ नाम की महिमा से भरे पड़े हैं। कहा जाता है कि जीवन में नाम का विशेष प्रभाव पड़ता है।
हमारे गांव में एक कहावत बहुत प्रचलित है-‘सरनाम बनिया, बदनाम चोर।‘ अर्थात बनिया नाम वाला यानी प्रतिष्ठित होना चाहिए। उसके नाम से ही ग्राहक उसकी दुकान पर आते हैं। जबकि चोर बदनाम नहीं होना चाहिए क्योंकि शहर में कहीं भी चोरी होने पर पुलिस सबसे पहले उसे ही दबोचती है। हमारे देश में कई सरनाम दुकानें हैं, लेकिन अब वे नाममात्र की ही बची हैं। सरनाम बनिए तो अब बचे नहीं। आदर्श और सिद्धांत भी उन्हीं के साथ चले गए। ‘सरनाम‘ के नाम पर सिर्फ बोर्ड ही लटकता बाकी रह गया है। उसमें भी जंग लग चुकी है।
वैसे, नाम से बड़े-बड़े काम बन जाते हैं। व्यक्ति मिट जाता है, लेकिन उसका नाम अमर रहता है। नाम बदलने के बाद व्यक्ति की चाल, चरित्र और चेहरा नहीं बदला तो नाम बदलने का कोई मतलब नहीं रह जाता। यदि स्थिति वही रहनी है तो फिर ठनठनपाल ही ठीक है भैया। स्थिति बदलती है अपनी करनी से। नाम तो बदल गया अब हमें अपनी करनी बदलनी होगी। नहीं तो फिर वही ढाक के तीन पात वाली बात होगी और नाम के नाम पर वोटों की लूट के साथ इसका पटाक्षेप हो जाएगा। क्योंकि वह कहानी तो हम सबने सुनी ही है कि-
अमरसिंह को मरते देखा, हर हांके धनपाल।
कंडा बीनत लक्ष्मी देखी, भला है ठनठनपाल।।