श्रद्धांजलि लता जी
गिरीश उपाध्याय
आप चली गईं लता जी… जाना तो होता ही है सभी को एक न एक दिन। हम लाख दुआ कर लें, मन्नतें मांग लें, यज्ञ हवन कर लें या मंदिर में महामृत्युंजय का जाप करवा लें… पर हम जानते हैं कि ये सब मन समझाने वाली बाते हैं… अमर होकर तो कोई नही आता…
लेकिन आप शायद अमर होने के लिए ही इस दुनिया में आई थीं। आपका जिस्म भले चला गया हो, लेकिन आपकी रूह हमेशा यहीं रहेगी, जाने कितने लोगों की रूह में गीत-संगीत बनकर… युगों युगों तक…
मुझे नहीं पता कि कभी ऐसी कोशिश हुई है या नहीं, लेकिन नहीं हुई तो होनी चाहिए… हम किसी कलाकार की कृति या कला का तात्कालिक मूल्यांकन तो कर लेते हैं, उसकी कला से रसवंत तो हो जाते हैं, लेकिन हम नहीं जान पाते कि उस कलाकार की कला ने आखिर कितने लोगों के मरुथल को उपवन बनाया है। किस किस रूप में लोगों को जिंदगी, सांसें या उम्मीद दी है…
अब हम कहेंगे, लता जी ने इतने हजार गाने गाए… हम याद कर लेंगे उनमें से उनके कुछ सदाबहार गानों को, और शायद उनके ही गाए कालजयी गीत की तरह आंखों में आंसू भी भर लेंगे। लेकिन लता जी, शायद आपको भी अंदाजा नहीं होगा… और आपको ही क्यों, दुनिया में किसी को अंदाजा नहीं होगा कि आपके गीतों ने जाने-अनजाने, कितने लाख या कि कितने करोड़ लोगों को जीने का हौसला दिया है, आस बंधाई है, उनमें प्रेम और स्नेह जगाया है। जाने कितनों को रुलाया, कितनों को हंसाया है…
हम फिल्मी गीतों को अकसर बहुत कम आंक लेते हैं। मान लेते हैं कि उनकी दुनिया सिर्फ चार पांच मिनिट तक ही सिमटी हुई है, लेकिन हममें से कोई नहीं जानता और न ही किसी ने आज तक इस बात का मनोवैज्ञानिक आकलन या विश्लेषण करने की कोशिश की है कि हमारे फिल्मी गीतों ने कितने लोगों को अवसाद से उबारा है… रोते हुओं के चेहरे पर मुसकुराहट बिखेरी है… और यदि हमदर्दी की जरूरत भी रही है तो जाने कितनों के आंसुओं के साथ वे खुद बहे हैं… इस बात का आकलन शायद ही कभी कोई कर पाए कि लता, आशा, रफी, मुकेश या किशोर (यह सूची बहुत लंबी है) आदि न आए होते तो हमारी दुनिया कैसी होती…
जो लोग संचार के क्षेत्र में हैं वे इन दिनों ज्यादातर उसके तकनीकी पक्ष को ही देख रहे हैं लेकिन लता जी ने जो संचार किया वो ‘मन से मन’ का संचार था। जावेद अख्तर बहुत सही कहते हैं कि लता जी ने शब्दों को साध लिया था और शब्दों से अधिक उनके भावों को। यानी ‘मुलायम’ शब्द आप किसी और मुंह के सुनें और वही शब्द लता जी के मुंह से सुनें तो आपको उस शब्द की मुलायमियत का अहसास होगा। शब्दों को उनके भावों के साथ अपने संगीत के जरिये लोगों तक पहुंचाना, यह उनका अद्वितीय योगदान था। और शायद यही कारण है कि आज करोड़ों की संख्या में ऐसे लोग होंगे जो उनके गीत संगीत की टाइमलाइन के बारे में बात भले न कर पाएं, लेकिन उनके गाए गीतों को गुनगुना कर उन्हें याद कर रहे होंगे।
कुछ समय पहले एक फिल्म आई थी ‘वेकअप सिड’ उस फिल्म में एक संवाद है जिसमें नए और पुराने गानों के बारे में नायक और नायिका बात करते हैं। नायक नए जमाने के गानों का प्रशसंक है तो नायिका पुराने गानों की। ऐसे में नायक नायिका से पूछता है कि आखिर ऐसा क्या है पुराने गानों में… और नायिका जवाब देती है कि ‘ हम कम से कम उन्हें गुनगुना तो सकते हैं…’ यह जो गुनगुनाना है ना, यही किसी संगीत या गीत की सार्थकता है।
जहां तक शब्दों को भाव के साथ गाने का प्रश्न है यह बहुत-बहुत मुश्किल होता है। आप कहीं किसी स्टूडियो में गा रहे हैं, और दूसरी तरफ आपसे शायद सैकड़ों हजारों किमी दूर उस गाने को किसी अभिनेता पर फिल्माया जा रहा है। ऐसे में उस गाने के परिवेश, भाव आदि के साथ साथ, उस व्यक्ति के हाव भाव और व्यक्तित्व को समझकर, उस गाने को वैसा ही गाना, जैसा यदि वह व्यक्ति खुद गाता तो कैसा होता, यह बरसों बरस की साधना और तपस्या से ही आ सकता है और लता जी इस मामले में भारतीय संगीत की अनन्य साधिका थीं।
मुझे याद है एक बार एक रियलिटी शो में कल्याण जी भाई एक नई लड़की के गाने को सुन रहे थे। वह गाना ‘जब जब फूल खिले’ फिल्म का मशहूर गीत था- ‘ये समा, समा है ये प्यार का…’ उस लड़की के गा चुकने के बाद कल्याण जी भाई, जिनकी जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी ने वह गाना कंपोज किया था, कहा- ‘’बेटी तुमने मीटर के हिसाब से तो गाना बहुत ही खूबी से निभाया, लेकिन मेरी एक सलाह है कि तुम घर जाकर उस गाने को दुबारा सुनना, जो लता जी ने गाया है।‘’ फिर खुद ही उस बात को और खोल कर बताते हुए कल्याण जी भाई ने कहा कि उस गाने का प्रभाव उसमें लताजी द्वारा गाने के साथ-साथ घोली गई ‘मादकता’ के कारण है। मीटर के हिसाब से तो उस गाने को कोई और भी गा सकता है, लेकिन उसमें जब तक वह ‘मादकता’ नहीं होगी वह असर पैदा ही नहीं होगा।
और यह जो बात है ना भाव पैदा करने वाली… यह बहुत मुश्किल होता है। कई बार गीत के बोल और सिचुएशन आपको खुद भी बहुत भावुक बना देते हैं। गाते समय आपका खुद का गला रुंध सकता है, लेकिन उसी समय गायक की वह रियाज और साधना काम आती है कि खुद के इमोशन पर काबू रखते हुए अपने गाए हुए गीत में वह इमोशन घोल देना कि वह दूसरों में वही भाव जगा सके। इसका बेहतरीन उदाहरण लताजी का गाया कालजयी गीत- ‘ऐ मेरे वतन के लोगो है…’ उस गीत को गाने की तो छोडि़ये, सुनते समय भी हमारा रोम-रोम संवेदित हो उठता है। यदि हम उसे गाने की कोशिश करें, तो हमारा गला रुंध आता है और आंख में आंसू भर आते हैं। लेकिन लताजी ने इस गाने को चाहे जितनी बार गाया हो, उन्होंने उतने ही सधे हुए अंदाज में उसी भाव और प्रभाव के साथ गाया। उनका यह गीत संचार और संचारक के बीच के अलग तरह के संबंधों को भी उद्घाटित करता है।
लता जी, अब जब-जब भी हम लोग अपनी किसी याद को कुरेदेंगे, चाहे वो खट्टी हो या मीठी, आपका कोई न कोई गीत शायद उसी स्वाद में रसा-पगा होकर हमारे पास चला आएगा। आपने सिर्फ भारतीय फिल्मों को नहीं बल्कि भारत और उसके समाज को जो संगीत का रस दिया है, वो सदियों तक हमारी प्यास बुझाने वाला एक ऐसा अजस्र सोता है जो, हम भारतवासी कह सकते हैं कि, सिर्फ हमारे ही पास है… क्योंकि लताजी हमारी थाती हैं।
लता जी, आप चाहे सशरीर अब हमारे बीच न रही हों, लेकिन हमारी आत्मा के तारों को झंकृत करने वाले अपने संगीत की अमृत-विरासत आप हमें सौंप गई हैं। हम धन्य हुए जो आप इस भारत भूमि पर आईं और अब शायद वह जगह भी धन्य हो जाएगी जहां आप जा रही हैं। उस लोक के वासियों से यही गुजारिश कि हमारे जीवन के इस संगीत को वहां भी संभाल कर रखियेगा… वैसे तो अब कोई दूसरी लता शायद ही हो, लेकिन यदि कोई प्रतिरूप बनाने का ख्याल आ ही जाए तो उनका वहां रहना आपके बहुत काम आएगा…(मध्यमत)
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