17 वीं लोकसभा का चुनाव जैसे-जैसे परवान चढ़ रहा है वह राजनीति के चरित्र में गिरावट के नए-नए कीर्तिमान रचने के साथ-साथ देश के संघीय ढांचे के लिए भी खतरनाक होता जा रहा है। चुनाव में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता कोई नई बात नहीं है। यह हमेशा से रहती आई है। लेकिन पिछले कुछ सालों के दौरान यह प्रतिद्वंद्विता पहले आपसी कटुता में बदली और अब निजी दुश्मनी में तब्दील होती जा रही है।
नेता पहले कहा करते थे कि मतभेद भले ही हों, लेकिन मनभेद नहीं होना चाहिए। लेकिन धीरे-धीरे यह शब्दावली पुरानी पड़ गई और राजनीतिक दुश्मनी के निजी दुश्मनी में बदल जाने को सहज स्वीकार्य मान लिया गया। पर बात यदि निजी दुश्मनी तक भी सीमित रहती तो भी चलता पर अब तो इस निजी दुश्मनी की लपटें जनता को झुलसाने लगी हैं।
चुनाव के दौरान केंद्र व राज्य में अलग-अलग दलों की सरकारें पहले भी रही हैं और एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का दौर पहले भी चलता रहा है, लेकिन इन आरोप प्रत्यारोप में वैसा तेजाब कभी नहीं घुला था जैसा इस बार के चुनाव में घोला जा रहा है। ताजा उदाहरण फोनी तूफान का है जिसने उड़ीसा से लेकर बंगाल तक को प्रभावित किया।
देश में जब-जब भयंकर प्राकृतिक आपदाएं आई हैं, राजनीतिक दलबंदी से ऊपर उठकर पीडि़तों की मदद के लिए चारों तरफ से हाथ उठे हैं। देश के लोगों ने भी ऐसे मौकों पर प्रभावितों को हरसंभव मदद देने की पेशकश की है और केंद्र में रही सरकारों ने राज्यों को विशेष पैकेज दिए हैं, ताकि सीमित संसाधनों वाली राज्य सरकारें राहत और बचाव कार्य के साथ-साथ प्राकृतिक आपदा से हुए नुकसान को ठीक कर सकें।
पर फोनी तूफान के मामले में गजब की राजनीति चल रही है। सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनावी सभाओं में जो कहा, यदि वह अक्षरश: सच है तो स्थितियां इस बात के संकेत दे रही हैं कि इस बार की चुनावी राजनीति देश के संघीय ढांचे पर बहुत भारी पड़ने वाली है। ऐसा लगता है कि भारत नाम का गणराज्य, जिसका एक संविधान है, फिर से देशी रियासतों के काल में लौट रहा है।
पश्चिम बंगाल के तामलुक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी सभा को संबोधित करते हुए खुलासा किया कि ‘’मैं अभी, ओडिशा से फोनी (तूफान) से हुए नुकसान का जायजा लेकर यहां आया हूं। पश्चिम बंगाल में भी जो हालात बने हैं, उससे मैं भली-भांति परिचित हूं। जिन साथियों ने इस आपदा में अपनों को खोया है, मैं उनके प्रति अपनी संवेदना व्यक्त करता हूं…।‘’
इसके बाद मोदी ने जो कहा उस पर ध्यान दीजिए- ‘’यहां की स्पीड ब्रेकर दीदी ने इस चक्रवात पर भी राजनीति करने की कोशिश की है। चक्रवात से पहले मैंने ममता दीदी से फोन पर बात करने की कोशिश की, लेकिन दीदी का अहंकार इतना ज्यादा है, कि उन्होंने मुझसे बात नहीं की। मैं इंतजार करता रहा कि शायद दीदी वापस मुझे फोन करें, लेकिन उन्होंने नहीं किया। मैंने उन्हें दोबारा फोन किया, मैं पश्चिम बंगाल के लोगों के लिए चिंता में था, इसलिए ममता दीदी से बात करना चाहता था, लेकिन दीदी ने दूसरी बार भी मुझसे बात नहीं की…’
मोदी ने जब सार्वजनिक सभा में यह बात कह दी तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी की ओर से उसका जवाब आना स्वाभाविक ही था। वह आया भी, लेकिन ऐसा आया जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक ममता बोलीं- ‘’फोनी तूफान पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कॉल का जवाब मैंने इसलिए नहीं दिया, क्योंकि मैं ’एक्सपायरी-पीएम’ के साथ बात नहीं करना चाहती।‘’
यह जवाब देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में घुल चुके जहर और उसके असर से नीले पड़ते संघीय ढांचे को दर्शाने वाला है। क्या अब कोई मुख्यमंत्री किसी प्रधानमंत्री के फोन का जवाब सिर्फ इसलिए नहीं देगा या देगी कि उनके बीच राजनीतिक दुश्मनी है। और आपको यदि यही रुचता है तो आप पालिये इस दुश्मनी को, लेकिन आपकी निजी अदावत के चक्कर में प्रदेश की जनता का नुकसान क्यों हो?
जब प्राकृतिक आपदाओं के पीडि़तों को राहत या मदद देने का मामला हो तो भाड़ में जाए ऐसी दुश्मनी, किसी भी नेता का, चाहे वह प्रधानमंत्री हो या मुख्यमंत्री, पहला कर्तव्य यही है कि वह सबकुछ भुलाकर आपदा का शिकार हुए लोगों की मदद करे। न तो केंद्र को मदद देने के मामले में राजनीति करनी चाहिए और न राज्य को मदद लेने के मामले में।
और क्या मतलब है इस ‘एक्सपायरी-पीएम’ का। क्या अब देश के प्रधानमंत्री और किसी राज्य के मुख्यमंत्री के बीच लोकसभा या विधानसभा चुनाव के दौरान ‘एक्सपायरी-पीएम’ और ‘एक्सपायरी-सीएम’ जैसे संबोधनों के साथ बात होगी? क्या हम इस स्तर तक गिर गए हैं? भारत के प्रधानमंत्री का पद कोई निजी हैसियत नहीं है, वह देश की सर्वोच्च जनप्रतिनिधि संस्था का प्रतीक है।
लेकिन ऐसा लगता है कि राजनीति का जो स्वरूप हम गढ़ रहे हैं, उसमें न तो जीवित प्रधानमंत्री के लिए कोई सम्मान बचा है और न ही ‘एक्सपायर्ड’ प्रधानमंत्री के लिए। हाल ही में नरेंद्र मोदी ने दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी के लिए जिस भाषा का उपयोग किया वह भी अनुचित थी और ममता ने जो किया वह भी अनुचित है।
हम क्यों भूल रहे हैं कि एक न एक दिन सभी का नाम ‘एक्सपायर्ड’ की सूची में ही दर्ज होना है। लेकिन जब तक हम जिंदा हैं, जब तक राज्य या देश की जनता का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, तब तक हमारी संवेदनाओं और मानवीयता के भी जिंदा रहने का सबूत तो दें। हम अपनी कथनी और करनी से जीते जी क्यों जनता की नजरों में ‘एक्सपायर्ड’ हो जाना चाहते हैं। याद कीजिए लोकसभा में पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी का दिया वो भाषण जिसमें उन्होंने कहा था- ‘’सरकारें आएंगी, जाएंगी, लेकिन यह देश रहना चाहिए, इस देश का लोकतंत्र रहना चाहिए…’’
ऐसा लगता है कि इस वाक्यांश में हमने देश और लोकतंत्र शब्द को हटाकर कुछ यूं कहने की ठान ली है कि- देश और लोकतंत्र जाए भाड़ में, मेरी कुर्सी रहनी चाहिए, मेरा अहंकार रहना चाहिए…