अनिल यादव
उस दोपहर मैं अलसाया सा आराम से झपकी लेने की फिराक में था कि अचानक ‘वो’ आ धमकी बहुत ही खामोशी से। मैं भी चुपचाप अधखुली आँखों से देखने लगा कि आखिर इसका मेरे बैडरूम में यूं आने के पीछे इरादा क्या है? फिर वो आहिस्ता से मेरे सिरहाने बैठ गई और नजर आना बंद हो गई। मैं एकदम हड़बड़ा कर उठ बैठा यह देखने कि वह कहाँ गई?
फिर वो मुझे दिखी ठीक वहाँ, जहाँ मेरा तकिया रखा होता था। वह चंचला, एक पल भी स्थिर नहीं हो रही थी, लगता था उसे कुछ तलाश थी। फिर उसने वो जगह पा ली जिसकी उसको तलाश थी, कुछ देर उसने वहाँ जाँच-पड़ताल की और उड़ गई।
वो एक ततैया थी और अब आगे जो मैं देखने वाला था वो आपको सुनाने लायक है। थोड़ी ही देर बाद वो ततैया लौटी और मेरे इर्द-गिर्द कुछ चक्कर काटे और मेरा रिएक्शन न मिलने पर वो उसी जगह जा पहुँची जिसकी उसने कुछ ही देर पहले जाँच-पड़ताल की थी। मैंने गद्दे का एक सिरा आहिस्ता से उठाया, अब मैं उसे अच्छी तरह से देख सकता था।
उसके मुँह में एक ‘मिटटी की गेंद सी’ फँसी हुई थी, बिल्कुल गोल और गीली। मैं आश्चर्य से देख रहा था, उसने गेंद के गीले ‘गारे’ को, गद्दे की सतह पर फैलाना शुरू कर दिया, लेकिन हैरान कर देने वाली एक दूसरी घटना भी इसी के साथ शुरू हो गई, मेरे कानों में संगीत की स्वर लहरियां सी बहने लगीं।
हल्की गुनगुनाहट की सी इन लहरियों के आरोह-अवरोह में, मैं फर्क ही नहीं कर पाता यदि यह सब मैं दूर से देख रहा होता या वहाँ कोई शोर हो रहा होता तो। फिर वह उड़ गई, मुझे ज्यादा इन्तजार नहीं करना पड़ा और कुछ ही पल में वो फिर वैसी ही गीली मिट्टी की एक गेंद लिए हुए लौट आई। अब उसने मिट्टी की पहली परत पर, वैसे ही गुनगुनाते हुए उस गेंद के गारे से दूसरी परत बिछानी शुरू कर दी।
उसकी गुनगुनाहट सुनकर उस समय मुझे वैसी फीलिंग हो रही थी जैसी तब होती है जब कोई बेफिक्र नववधु घर में काम करते हुए अकेली गुनगुनाती है। (वैसे ततैया गाती नहीं हैं, शायद भौंरों की सी ये गुनगुनाहट उसके पंखों या उदर की मांस पेशियों की रगड़ से पैदा होती हैं। इस ततैया के काम की रफ्तार भी जैस-जैसे बढती जाती थी, गुनगुनाहट भी उतनी ही तेज होती जाती थी।) फिर उस ततैया का गारा खत्म हो गया और फिर वह कमरे से बाहर उड़ गई।
यह घटनाक्रम देख कर मेरा बचपन जैसे लौट आया था। किसी फिल्म के फ्लैशबैक की तरह एक साथ कई नजारे आँखों के सामने घूमने लगे। गर्मियों में लाल-पीली बर्रैयों को घड़ों से रिसता पानी पीते देखने के, उन्हें पकड़ कर माचिस की डिबियों में बंद करने के, बर्रों-ततैयों की पतली कमर में धागा बाँध कर उड़ाने के।
और फिर वे भी, जब किशोरों की छेड़छाड़ से तंग आईं बर्रैयाँ जहाँ मौक़ा मिलता था वहाँ हमारी ‘पुच्ची’ ले लेतीं थीं और पीछे छोड़ जाती थीं तीखा दर्द। फिर बर्रैयों के डंक से सूजे और लाल गाल, गरदन, हाथ-पाँव सभी चिल्ला चिल्ला कर गवाही देते थे, बर्र-ततैयों से किशोरों के प्यार के और बर्र-ततैयों के ऐसे इजहार के।
मैं ही क्या तब मेरे जैसे कई किशोर ढूंढते फिरते थे, उस दर्द की दवा जो बर्र-ततैयों के इश्क में मिलता था। जो कोई अनुभवी किशोर, चूना या लोहा घिस कर ‘पुच्ची’ वाली जगह पर लगाने की सलाह के रूप में देता था। लेकिन जब इस प्यार भरी ‘पुच्ची’ से पैदा हुई सूजन उतरती थी तो उसी स्थान पर मीठी सी, दर्द भरी खुजली चलने लगती थी, जो खुजलाने पर तेज दर्द में बदल जाती थी।
‘’हम बंद किये आँख तसव्वुर में पड़े हैं जिसके,
ऐसे में वही छम्म से आ जाये तो क्या हो’’
बिल्कुल ऐसा ही हुआ तब, जब मैं जिसके खयालों में खोया हुआ था, वही फिर से कमरे में आ गई थी, छम्म किये बगैर, और मेरी तंद्रा टूट गई। अब एक बार फिर वह ततैया मुझ से बेपरवाह गाते-गुनगुनाते हुए उसी पुरानी जगह गारे का नया लेप चढ़ा रही थी।
ततैया की एकाग्र कोशिश से उसका घोंसला धीरे-धीरे आकार लेने लगा। हर बार वो जब भी जाती थी कुछ ही पलों में मिट्टी की नई गीली गेंद लेकर हाजिर हो जाती थी। करीब दो घंटे में उस प्रसवातुर ततैया ने अपना घोंसला लगभग तैयार कर लिया था और मुझे भी तभी जरूरी काम से जाना पड़ा। देर शाम को लौटा तो मिट्टी का वह घोंसला बहुत ही खूबसूरत नजर आ रहा था और मैं अनुमान लगा सकता था कि उस घोंसले के अंदर क्या-क्या हो सकता था।
‘मेरे दिल में एक बच्चा तो छिपा है’ लेकिन वह कोई पागल-वागल या दीवाना-वीवाना नहीं है, इसलिए खतरा भांपते हुए मैंने अपने सिरहाने पर बने ततैया के उस घोंसले को वहाँ से हटाने का फैसला ले लिया और जब मैं घोंसला हटा रहा था तो वह टूट गया।
तब घोंसले में मुझे नजर आईं आठ मृत मकड़ियाँ। ततैया ने उन्हें अपने उन बच्चों के लंच-डिनर के लिए घोंसले में लाकर रख दिया था जो उस घोंसले में दिए ततैया के अण्डों से निकलते। सोचिये कितना अजीब था ततैया का ये व्यवहार?
लेकिन क्या सचमुच? नहीं, ये बिलकुल भी अजीब नहीं था, ये एक ‘ततैया माँ’ की सहज वृत्ति थी। अपने बच्चों को सुरक्षित जन्म देने और उसके बाद उनके भोजन का पक्का प्रबंध करने की। यह सब करने के लिए ‘ततैया माँ’ इतने ही जतन करती है। ऐसा वो ततैया करती है जिसके बच्चे, उसे बुढ़ापे में सहारा देने की बात तो अलग, शायद कभी मिलेंगे भी नहीं।
अब जरा हम इंसानों से ततैया के इस व्यवहार की तुलना कीजिये जो अपनी संतानों के लिए कुछ भी करते समय यह जरूर सोचते हैं कि बुढापे में यही बच्चे हमारा सहारा बनेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और पर्यावरण से जुड़े विषयों पर खूब लिखते हैं)
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टीम मध्यमत