देश में लोगों की जान ले लेने वाले अपराधों की चर्चा तो बहुत होती है। लेकिन जान दे देने वालों की चर्चा अपेक्षाकृत उतनी गंभीरता से नहीं होती। किसी की जान ले लेने की वारदात के कारणों का जिस तरह से पता लगाया जाता है उतनी गहराई से जान देने वाली घटना का नहीं…
ऐसा शायद इसलिए होता है क्योंकि किसी व्यक्ति की या सामूहिक हत्या में सनसनी का तत्व शामिल होता है, जबकि आत्महत्या में वैसी सनसनी नहीं होती। आत्महत्या की घटना और उसके कारणों पर ज्यादातर उसी स्थिति में चर्चा होती है जब केस हाईप्रोफाइल हो या किसी वर्ग अथवा समूह से ताल्लुक रखता हो।
हाल ही में जारी नैशनल हैल्थ प्रोफाइल-2018 के आंकड़े इस मामले में नई रोशनी डालने के साथ ही आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या पर समाज और सरकार से गंभीरता से सोचने की मांग करते हैं। इसके साथ ही उन कारणों के निदान के प्रति भी सचेत करते हैं जिनके कारण खुदकुशी की घटनाएं बढ़ रही हैं।
यह रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2000 से 2015 के बीच देश में आत्महत्या की घटनाओं में 23 फीसदी का इजाफा हुआ है। इसमें भी गंभीर बात यह है कि खुदकुशी करने वालों में सबसे ज्यादा 30 से 45 वर्ष की उम्र के लोग हैं। उनके बाद 18 से 30 वर्ष के आयुवर्ग का नंबर आता है।
भारत में वर्ष 2015 में 133623 लोगों ने आत्महत्या की। जबकि 2002 में अपनी जान देने वालों की संख्या 108593 थी। 2015 में खुदकुशी करने वालों में से 44593 यानी करीब 33 फीसदी लोग 30 से 45 वर्ष की उम्र के थे। जबकि 18 से 30 वर्ष की आयु वर्ग के 43852 युवाओं ने मौत को गले लगा लिया। यह कुल आत्महत्याओं का 32.8 फीसद होता है।
इस लिहाज से देखें तो वर्ष 2015 में दोनों आयु वर्गों यानी 18 से 45 वर्ष तक के लोगों द्वारा आत्महत्या करने का प्रतिशत 66 था। अन्य आयु वर्गों की बात करें तो 14 से कम और 14 से 18 वर्ष के आयुवर्ग वाले बच्चों की आत्महत्याओं का प्रतिशत क्रमश: एक और 6 रहा। जबकि 45 से 60 और 60 से ऊपर आयुवर्ग का आत्महत्या प्रतिशत 7.8 था।
जिस कालखंड के ये आंकड़े हैं वह कालखंड देश में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से काफी उठापटक वाला रहा है। इस कालखंड के दौरान भारत ने यूपीए का दो टर्म वाला शासनकाल भी देखा और मोदी सरकार का करीब डेढ़ साल। इस दौरान घपलों घोटालों से लेकर सामाजिक और सांप्रदायिक उन्माद की कई घटनाएं देश में हुईं।
हालांकि इस तरह का कोई विशेषीकृत अध्ययन तो मुझे कहीं नजर नहीं आया लेकिन इस कालखंड और खुदकुशी करने वाले लोगों के आयु वर्ग को यदि बारीकी से देखा जाए तो बहुत सी बातें उभर कर आती हैं, जो देश की दशा और दिशा के लिहाज से विचारणीय हैं।
खुद से जान देने वालों में 66 प्रतिशत लोग यदि 18 से 45 वर्ष के बीच के हैं तो इसका मतलब है कि अपनी स्कूली शिक्षा खत्म करने के बाद से ही युवाओं को विपरीत परिस्थितियां तनाव ग्रस्त बना रही हैं। जबकि 45 वर्ष तक की आयु जीवन की वह स्थिति है जब व्यक्ति युवावस्था और वृद्धावस्था के संधिकाल पर होता है।
परिस्थितिजन्य घटनाओं और जानकारियों के विश्लेषण से अनुमान लगाया जा सकता है कि स्कूली पढ़ाई खत्म करते करते बच्चे पर अपने भविष्य को लेकर तनाव के बादल घिरने लगते हैं। 18 वर्ष की उम्र वही समय है जब उसे नौकरी आदि के लिहाज से अपनी उच्च शिक्षा की दिशा भी तय करनी होती है।
दूसरी तरफ 30 से 45 वर्ष की आयु वर्ग के लोगों के साथ दो तरह के तनाव पनपने लगते हैं। इस समय तक उसके साथ अपना खुद का परिवार तो होता ही है साथ ही वह अपनी नौकरी में भी युवावस्था की ऊर्जा को खो चुका होता है और एक तरह से ठहराव की ओर बढ़ने लगता है।
यानी सामाजिक और रोजगारजन्य तनावों और परिस्थितियों को इस आयु वर्ग के लोगों की आत्महत्याओं के लिए बड़ा जिम्मेदार माना जा सकता है। हमारा सामाजिक ढांचा जिस तरह से नया आकार ले रहा है उसमें 30 से 45 वर्ष की उम्र के ज्यादातर लोगों के साथ अब उनके माता पिता या परिवार के अन्य बुजुर्ग नहीं रहते।
परिवार में किसी बुजुर्ग या अनुभवी व्यक्ति की कमी के चलते तनाव के क्षणों में व्यक्ति को पति या पत्नी पर निर्भर रहना होता है जिनके पास स्वयं ही उतना अनुभव नहीं होता कि ऐसी परिस्थितियों से कैसे निपटा जाए। परिवार में किसी बड़े-बूढ़े की मौजूदगी चूंकि इन लोगों को बोझ लगती है इसलिए वे उन्हें साथ रखने से परहेज करते हैं।
ऐसे में जब आप किसी संकट से घिर जाएं या आपके सामने समस्याओं का चक्रव्यूह खड़ा हो जाए तो सलाह देने वाला या आपके तनाव को कम करने वाला कोई व्यक्ति या जरिया नहीं होता। अवसाद ज्यादा बढ़ने पर व्यक्ति आत्मघाती कदम उठा लेता है।
जानकारों का कहना है की युवाओं में आत्महत्या करने के सबसे बड़े कारणों में सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे, भेदभाव और मोटी तनख्वाह वाली नौकरियों को लेकर होने वाली गला काट प्रतिस्पर्धा शामिल है। भारत में व्यक्ति की औसत जीवन आयु 68.35 वर्ष है। ऐसे में 18 से 45 वर्ष की उम्र के लोगों में बढ़ता आत्महत्या का चलन देश के विकास में लगने वाले मानव संसाधन की बहुत बड़ी हानि है।
रिपोर्ट में एक और चौंकाने वाली बात सामने आई है। आमतौर पर यह माना जाता है कि पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक संवेदनशील और भावुक होती हैं, लिहाजा वे तनाव या अवसाद का जल्दी शिकार हो जाती हैं। लेकिन आत्महत्या के आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक पुरुषों में आत्महत्या का प्रतिशत अधिक है। वर्ष 2015 में आत्महत्या करने वालों में 91528 पुरुष थे। जबकि 2005 में यह संख्या 66032 और 2010 में 87180 थी। इसकी तुलना में महिलाओं की संख्या आधी से भी कम है।
कुल मिलाकर आत्महत्या एक ऐसा मामला है जिसके कारणों पर गंभीरता से सोचने और उनका निदान करने की जरूरत है। ऐसे ज्यादातर मामलों को समझाइश या काउंसलिंग से सुलझाया जा सकता है। लेकिन दुर्भाग्य से किसी मनुष्य की जान बचाने लायक समय भी समाज नहीं निकाल पा रहा…