उपचुनाव मुंगावली
डॉ. अजय खेमरिया
मप्र औऱ यूपी की सीमा पर बसे मुंगावली विधानसभा में उपचुनाव की हवा बहने लगी है। गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे महान सेनानी पत्रकार की कर्मभूमि रहे मुंगावली में आपको सिंधिया परिवार की विरासत को बयां करते हुए सिंधिया गढ़, चंडीगढ़, भोपाल, दिल्ली जैसे गांव भी मिल जायेंगे। महानगरों के नाम पर बसे इन गांवों को सिंधिया स्टेट द्वारा अलग से सहरिया आदिवासियों के लिए बसाया गया था। एक दर्जन ऐसे गांवों में अभी भी सिंधिया के हुक्म की तामील आपको सियासी रूप से नजर आ जायेगी।
ओबीसी की यादव बिरादरी यहां राजनीतिक रूप से अंतिम छोर तक काबिज रहती है। अपने सर्वाधिक सिंगल संख्याबल के चलते यहां राजनीतिक संघर्ष भी इसी यदुवंश के इर्दगिर्द सिमट कर रह गया है। 2017 का उपचुनाव, 2018 का मुख्य चुनाव यादवों के मध्य ही हुआ। पूरी संभावना है कि 2020 का उपचुनाव भी यादवों के बीच ही होगा। बस झंडे और भाषण की स्क्रिप्ट बदली होगी। जो भाजपाई थे उनमें कुछ कांग्रेस का पंजा लड़ाते मिलेंगे और सिंधिया कांग्रेस कमल लिए मिलेगी।
मुंगावली में यादव, लोधी, गुर्जर, ब्राह्मण, दांगी, जाटव, बघेल, मांझी, प्रजापति, जैन, ठाकुर, मुस्लिम, परिहार, सेन, कुशवाहा, मांझी, ग्वाल जैसी बिरादरियों के वोट प्रमुख हैं। लोधी जाति यहां सदैव बीजेपी के विरुद्ध वोट करती रही है। यहां तक कि उमा भारती, प्रह्लाद पटेल की अपील भी यहां बेअसर रहती है।
बदली परिस्थितियों में लोधी सिंधिया के साथ बीजेपी को वोट करेंगे इसे लेकर अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। हालांकि लोधी समाज के बड़े नेता और कांग्रेस जिलाध्यक्ष रहे कन्हैया राम लोधी भी सिंधिया के संग बीजेपी में आ गए है।
यहां वोटिंग विहेवियर को बहुत ही महीन तरीके से प्रभावित करने वाले तबके में जैन समाज भी है। मुंगावली के अलावा बहादुरपुर, अथाइखेड़ा, सहराई इलाकों में जैन समाज का व्यापक जमीनी प्रभाव है, खासकर किसानों और मजदूरों में। मुंगावली मुख्यालय पर मुस्लिम वर्ग भी अच्छी संख्या में है। ‘जय भीम जय मीम’ की तर्ज पर यहां कभी मुस्लिम-जैन गठजोड की सुगबुगाहट भी सियासी दृष्टि से सुनी जाती थी।
लेकिन कुछ समय पूर्व एक बालिका के जबरिया धर्म परिवर्तन और फिर निकाह कराने के मामले से यह गठजोड़ टूट सा गया है। बीजेपी नेता जयभान सिंह पवैया, अवधेश नायक ने जैन समाज के साथ बीजेपी को खड़ा करने का प्रयास किया। नतीजतन आज मुंगावली में जैन समाज कांग्रेस के साथ पहले जैसा नही खड़ा है। जैन समाज का झुकाव सिंधिया परिवार के प्रति भी रहा है।
जहां तक बीजेपी के संभावित उम्मीदवार ब्रजेन्द्र यादव की मैदानी स्थिति का प्रश्न है फिलहाल उनकी स्थिति खराब ही कही जाएगी। उनके पास न विकास का कोई रिकॉर्ड है न ही जनता के साथ कनेक्टिविटी के मामले में वह अव्वल नजर आते हैं। उनके विधायकी कार्यकाल पर गंभीर सवाल उठाने वाले लोग मुंगावली में बड़ी संख्या में मिल जायेंगे। जाहिर है उम्मीदवारी के मोर्चे पर ब्रजेन्द्र यादव फिलहाल बिलकुल भी फिट नहीं है।
कांग्रेस के साथ जुड़ा हुआ परम्परागत वोट बैंक भी अब उनके खाते से खिसक ही गया है। उधर बीजेपी के साथ रिश्तों को जोड़ने की कवायद इसलिए भी मुश्किलों से भरी है, क्योंकि 2017 के उपचुनाव में पूरी सरकार उनके विरुद्ध खड़ी थी। 2018 में जिन केपी यादव से वह जीते हैं वह अब सांसद बन गए हैं वह भी सिंधिया को शिकस्त देकर। इस दौरान केपी औऱ ब्रजेन्द्र के मध्य अदावत की खाई और गहरी हुई है।
बीजेपी के कद्दावर नेता रहे राव देशराज का परिवार भी अब उनके सामने अपनी उपचुनाव की पराजय का बदला चुकाने के लिए कांग्रेस का दामन थाम सकता है। असल में मुंगावली की पूरी बीजेपी कभी राव साहब के परिवार में समाई हुई थी। बदली परिस्थितियों में दोनों दलों का 360 डिग्री बदलाव इस उपचुनाव में देखने को मिलेगा, क्योंकि राव परिवार सिंधिया विरोधी राजनीति पर ही निर्भर था।
अब जबकि सिंधिया ही बीजेपी में आ गए है तो यहां सभी पूर्ववर्ती समीकरण नए सिरे से आकार लेंगे। एक सम्भावना यह भी है कि पूर्व पीसीसी चीफ अरुण यादव यहां से कांग्रेस कैंडिडेट हों। इसीलिए उनके भाई सचिन यादव को कमलनाथ ने प्रभारी नियुक्त किया है। चूंकि महेंद्र सिंह कालूखेड़ा यहां बाहर से आकर 2013 में राव साहब को शिकस्त दे चुके हैं, इसलिए अरुण यादव की चुनौती बीजेपी को परेशानी में डाल सकती है, क्योंकि बाहरी केंडिडेट को राव परिवार और ब्रजेन्द्र विरोधी दूसरे यादव नेता अपना समर्थन देने में पीछे नही रहेंगे।
यदि ऐसा होगा तो उस स्थिति में सिंधिया को लोधी, गुर्जर, जैन, दांगी, बघेल, कुशवाहा, ठाकुर, ब्राह्मण जैसी गैर यादव जातियों को बहुत ही करीने से साधने की जरूरत होगी। बीजेपी के मैदानी कार्यकर्ताओं के साथ खुद सिंधिया को जुड़ने औऱ भरोसे की स्थापना के लिए अलग से प्रयास करने होंगे। वस्तुतः ब्रजेन्द्र यादव इस चुनाव में केवल नाम भर के प्रत्याशी ही होंगे, क्योंकि एमएलए के रूप में उनके पास सिवाय बुराइयों के कोई पूंजी शेष नहीं बची है।
इस विधानसभा में सिंधिया का खुद का प्रभाव भी स्वयंसिद्ध है और परिणाम भी उनकी निजी मेहनत पर ही निर्भर करेगा। केपी यादव कभी उन्ही के फॉलोअर हुआ करते थे, जो आज सांसद हैं। उनके साथ रिश्तों की पटरी बिठालने की जिम्मेदारी भी सिंधिया को उदार मन से खुद ही करनी होगी। क्योंकि मौजूदा वक्त में दोनों के बीच तल्खी का स्तर चरम पर है।
बीजेपी के लिये भी यहां सरकार को बचाने के मोड पर काम करने की आवश्यकता है। असल में यहां नॉन यादव कार्यकर्ताओं को राव परिवार से बाहर आकर भरोसा दिलाया जाना भी संगठन के लिए बड़ा काम है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को केपी यादव और ब्रजेन्द्र यादव के मध्य सेतु का काम करना पड़ेगा।
फिलहाल मुंगावली को लेकर दो तीन बातें स्पष्ट हैं-
पहली तो मौजूदा प्रत्याशी ब्रजेन्द्र यादव बहुत ही कमजोर हैं। दूसरा केपी यादव और सिंधिया के बीच पुराने रिश्तों की बहाली के बिना बीजेपी की संभावना कमजोर पड़ेगी। तीसरा बीजेपी कार्यकर्ताओं के साथ सुमेलन की ठोस औऱ ईमानदार पहल सिंधिया को करनी पड़ेगी। चौथा कांग्रेस की चुनौती यहां बेहद गंभीर होगी संभव है अरुण यादव ही केंडिडेट हों। पांचवा राव परिवार की बीजेपी से विदाई इस चुनाव के साथ ही हो जाये। यादव, दलित, दांगी, मुस्लिम, लोधी समीकरण कांग्रेस के लिए बनना मुश्किल नहीं है।
कुल मिलाकर मुंगावली में लड़ाई बहुत ही कांटेदार होने जा रही है। सिंधिया अपने परम्परागत शाही लोकव्यवहार को बीजेपी के भदेस अंदाज में जितना आत्मसात कर सकेंगे उतना ही उनके लिए कम्फर्टेबल रहेगा। उधर बसपा को ईमानदारी से लड़ने से रोकने के लिये कांग्रेस को भी बड़ा जतन करना होगा।
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टीम मध्यमत