गिरीश उपाध्याय
देश के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी के घर के नजदीक एक गाड़ी से विस्फोटक मिलने के मामले में आए दिन जिस तरह नए-नए खुलासे हो रहे हैं और जिस तरह मामले की परतें खुल रही हैं वे चौंकाने वाली नहीं बल्कि डराने वाली हैं। यह एक ऐसी घटना है जिसने वे सारे कंकाल सामने ला दिए हैं जिन्हें अब तक अपने-अपने फायदे-नुकसान और अपने-अपने कारणों से कालीन के नीचे दबाया जाता रहा है।
लेकिन यह सिर्फ घटना ही नहीं एक अवसर भी है भारतीय राजनीति और शासन-प्रशासन की व्यवस्था को सुधारने का। पर ऐसा लगता नहीं है कि इसमें किसी की रुचि है। जब भी इस तरह की घटनाएं होती हैं, वे या तो राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप में उलझा दी जाती हैं या फिर किसी जांच कमेटी अथवा आयोग के हवाले कर दबा दी जाती हैं। पुलिस और राजनीति के काले गठजोड़ के मामले न तो नए हैं और न ही अनजाने। यह एक ऐसा उद्घाटित सत्य है जिसे आंखों के सामने होते हुए भी कोई स्वीकार नहीं करता। मुंबई मामले में जो कुछ हो रहा है वह इसी बात की ओर इशारा कर रहा है कि आगे न पीछे इस मामले को भी इसी तरह के कई पुराने मामलों की तरह दफना देने की तैयारी है।
मामला सिर्फ मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच के एपीआई सचिन वझे और उनके काले कारनामों का नहीं है, मामला सिर्फ महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख द्वारा पुलिस को हर माह सौ करोड़ की वसूली का टारगेट दिए जाने का नहीं है, मामला सिर्फ पद से हटा दिए गए मुंबई पुलिस के आयुक्त परमवीरसिंह की चिट्ठी का नहीं है और न ही महाराष्ट्र में सरकार बनाने और गिराने के राजनीतिक खेल का है। मामला देश में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकारों के अपराधिक गिरोह में तब्दील हो जाने का है। मामला देशभक्ति और जनसेवा के नाम पर गठित उस फोर्स का है जिस पर कानून और व्यवस्था बनाने और अपराधियों को सजा दिलाने की जिम्मेदारी है।
मुंबई में जो हुआ और जो हो रहा है वह भयानक है। एक सरकार है जिसका मंत्री पुलिस को सिर्फ एक शहर से प्रतिमाह सौ करोड़ की वसूली का कथित टारगेट देता है और एक पुलिस है जो अपराधियों और आतंकी गिरोह की तरह देश के सबसे बड़े उद्ययोगपति के घर के नजदीक विस्फोटक से भरी गाड़ी रखती है, घटना से जुड़े एक महत्वपूर्ण गवाह की सरेआम हत्या कर देती है और बाद में ये सारे डकैत, सारे लुटेरे, सारे हत्यारे मिलकर मामले को दबाने में लग जाते हैं।
जरा सोचिये, जब देश का सबसे बड़ा उद्योगपति इस तरह सरकार और पुलिस के नापाक गठबंधन के जरिये वसूली के टारगेट पर लिया जा सकता है तो फिर छोटे मोटे आदमी की बिसात ही क्या है? वर्षों से यह खेल इसी तरह चल रहा है और शायद अनंत काल तक चलता रहेगा। यह मामला भी इसलिए खुल पा रहा है क्योंकि अपराधियों ने संभवत: अपनी हैसियत या सीमा से बहुत आगे जाकर ऐसी जगह हाथ डाल दिया जिसकी ताकत और रसूख उनसे कई गुना ज्यादा है। मामला अंबानी परिवार से जुड़ा न होता तो शायद यह घटना और ऐसे गिरोहों की व्यापकता कभी सामने नहीं आ पाती।
पर अब जो खेल हो रहा है वह तो और भी शर्मनाक है। इस मामले में राजनीतिक बाडेबंदियां हो गई हैं और सारी प्रतिक्रियाएं उसी रंग में लपेट कर या तो प्रस्तुत की जा रही हैं या उन पर वह रंग आरोपित किया जा रहा है। सवाल यह नहीं है कि वझ़े किस पार्टी का समर्थक था, सवाल यह भी नहीं है कि परमवीरसिंह ने चिट्ठी पद से हटाए जाने के बाद ही क्यों लिखी, पहले क्यों नहीं लिखी, सवाल यह भी नहीं है कि देश में ऐसे कितने पुलिस अफसर कितनी ही सरकारों को समय समय पर ऐसी चिट्ठियां लिखते रहे हैं और उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। सवाल यह है कि क्या कभी कहीं से ऐसे मामलों को रोकने की कार्रवाई शुरू होगी भी या नहीं।
निश्चित तौर पर जब भी ऐसे मामले होंगे उनसे मिलते जुलते कई मामलों का इतिहास और टाइमलाइन सामने लाकर पटक दी जाएगी। यह भी होगा ही कि वे मामले भिन्न भिन्न राजनीतिक दलों की सरकारों के समय में हुए होंगे, लेकिन क्या अमुक सरकार का अपराध अथवा उसका गलत किया धरा, अमुक सरकार के अपराध या उसके गलत किए धरे का उल्लेख करके काउंटर या न्यूट्रलाइज किया जा सकता है?
कोरोना ने यदि इजाजत दी तो कुछ ही महीनों बाद देश आजादी के 75 साल का जश्न मना रहा होगा। क्या इन 75 सालों में हमने वही पाया है जो मुंबई घटना का हासिल है। क्या इसी लोकतंत्र और इसी स्वराज, सुराज या सुशासन की दरकार थी हमें? 75 सालों में जनता के द्वारा चुनी हुई सरकारों का आपराधिक वसूली गिरोहों में बदल जाना और अंग्रेजों के जमाने में जनता पर अत्याचार करने वाली पुलिस का आजाद भारत में डकैत, लुटेरा और हत्यारा बन जाना ही हमारी उपलब्धि है? हम आजाद भारत के 75 सालों का जश्न किसलिये और किसके लिए मनाएंगे, इस पर भी विचार करना होगा।