मोतीलाल वोरा, जस की तस धर दीन्‍ही चदरिया

जयराम शुक्ल

मार्च 1985 के दूसरे हफ्ते जब मोतीलाल वोरा ने मध्यप्रदेश के  मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली तो दूसरे दिन अखबार की सुर्खियों में उनकी योग्यता, कर्मठता के बखान की जगह परिस्थितिजन्य व खड़ाऊ मुख्यमंत्री का विशेषण मिला। बात स्वाभाविक भी लगती थी। 11 मार्च को अर्जुन सिंह ने दूसरी बार मुख्‍यमंत्री पद की शपथ ली थी, लेकिन राजीव गांधी को जाने क्या सूझा कि उन्हें दूसरे दिन ही चंडीगढ़ के राजभवन में बतौर राज्यपाल शपथ लेने का हुक्म जारी कर दिया।

वोराजी मध्यप्रदेश की राजनीति में दूसरी पंक्ति के नेता थे। उनकी हैसियत का आकलन इससे लगा सकते हैं कि 80-85 के कार्यकाल में दिग्विजय सिंह सिचाई विभाग में कैबिनेट मंत्री थे जबकि वोराजी उच्‍च शिक्षा विभाग के राज्यमंत्री। फिर प्रदेश के नेताओं में केंद्र में माधवराव सिंधिया और कमलनाथ जैसे हैवीवेट नेता थे। इन स्थितियों के चलते वोराजी को मुख्यमंत्री के लिए चयनित करना सभी को अस्वाभाविक लगा। लिहाजा उन्‍हें अर्जुन सिंह के खड़ाऊ मुख्यमंत्री का विशेषण मिल गया।

वरिष्ठ पत्रकार के. विक्रमराव लिखते हैं कि यद्यपि अर्जुन सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा- ‘’राजीव गांधी ने उत्तराधिकारी सुझाने के लिए कहा तो उन्होंने (अर्जुन सिंह) मोतीलाल वोरा जी का नाम आगे बढ़ा दिया, लेकिन यह पूरा सच नहीं है। वोराजी वस्तुतः राजीव गांधी की ही पसंद थे। वे वोराजी की मेहनत और सादगी के मुरीद थे। किसी भी नेता के प्रभाव का आकलन करने का उनका एक निजी फीडबैक सिस्टम था।”

वोराजी प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे इस नाते वे इस बार अर्जुन सिंह की मंत्रिपरिषद में सीधे-सीधे कैबिनेट मंत्री के आकांक्षी थे, लेकिन वे इस असमंजस थे कि उन्हें रखा भी जाएगा कि नहीं। पर किस्मत की बाजी शायद इसे ही कहते हैं जो ऐन वक्त पर पलट गई और वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए।

जाहिर है मंत्रिमंडल गठित करने में वोराजी की रत्ती भर नहीं चली। मंत्रिमण्डल में ज्यादातर अर्जुन सिंह भक्तों को ही जगह मिली। शायद ही वोराजी ने अपने से किसी को नामित किया हो। शुरुआती एक वर्ष तक हाल यह रहा कि वल्लभ भवन (मंत्रालय) को सीधे चंडीगढ़ से अर्जुन सिंह के दूतों के जरिए संदेशनुमा आदेश मिलते थे। वोराजी को सिर्फ अमल करना होता था।

राजनीति अपने साथ सकल गुण लेकर सत्ता मिलने के साथ पैंतरे सिखाते हुए चलती है। वोराजी को खड़ाऊ तत्काल उतार कर फेकनी थी। राजीव गांधी का वरदहस्त तो था ही उन पर, हाँ उन्हें किसी जामवंत की तलाश थी..। उन दिनों सेठीजी हाशिये पर जा चुके थे और श्यामाचरण शुक्ल कांग्रेस से बाहर थे, लिहाजा माधवराव सिंधिया पर उनकी नजरें टिकीं। सिंधिया जी अटलबिहारी वाजपेयी को ग्वालियर से हराकर केन्द्र में मंत्री होते हुए राजीव गांधी की कोटरी के सदस्य थे।

मोती ने माधव को साधना शुरू किया, अर्जुन सिंह से खार खाए बैठे सिंधिया जल्दी ही सध गए और फिर यही जोड़ी मीडिया में मोती-माधव एक्सप्रेस के नाम से ख्‍यात हुई। वोराजी की मंत्रिपरिषद में अर्जुन सिंह के पुराने पट्ठे अखाड़ा बदलने की फिराक में थे। इन सबके अगुआ बने कैप्टन जयपाल सिंह जो पिछले मंत्रिमण्डल में अर्जुन सिंह की कृपा से संसदीय सचिव व उपमंत्री थे। वोरा मंत्रिमंडल में कैप्टन गृह व परिवहन राज्यमंत्री थे। कैप्टन ने वोराजी में अलग लाइन खींचने के लिए जोश भरा।

वोराजी खोल से बाहर आने लगे, इधर बाहर वो दिग्गज माला लिए खड़े थे जो बेटिकट मुसाफिर की तरह दो साल से फड़फड़ा रहे थे। 85 के चुनाव में कृष्णपाल सिंह, श्रीनिवास तिवारी, हजारीलाल रघुवंशी जैसे दर्जनों नेताओं की टिकट काट दी गई थी। वोराजी सोशलिस्टी पृष्ठभूमि के थे, लिहाजा ऐसे सभी नेता जो सोशलिस्ट पार्टी छोड़कर आए थे उनके निकट आते गए। खड़ाऊ मुक्त और अलग अस्तित्व वाले पूर पार मुख्यमंत्री बनने में वोराजी को दो वर्ष का समय लगा यानी कि 1987 तक।

अब आगे की कहानी में यह कि एक पत्रकार के रूप में वोराजी से मेरा कैसे साबका पड़ा। वह इसलिए कि वोराजी का पहला बैटलफील्ड विंध्य ही बनने वाला था जो अर्जुन सिंहजी की मातृभूमि है। 2 फरवरी 1985 को विंध्य के सतना शहर से तब का सबसे प्रभावी अखबार देशबंधु लांच हुआ। मायाराम सुरजन जिन्हें हम सब बाबूजी का संबोधन व सम्मान देते थे, ने एक संस्मरण में बताया था कि वे इस अखबार को रीवा से लांच करना चाहते थे, लेकिन रेल हेड न होने की वजह से सतना का चयन करना पड़ा।

सुरजन जी खुले मुँह स्वीकार करते थे कि देशबंधु को विंध्य लाने के पीछे अर्जुन सिंह की ही प्रेरणा थी। दबी जुबान यह भी कहा जाता था कि इसके लिए आर्थिक बंदोबस्त भी अर्जुन सिंह का ही था। वैसे इसकी दो साफ वजहें थीं पहली यह कि दैनिक जागरण के गुरुदेव गुप्तजी श्यामाचरण जी के निकटतम थे। वे दो बार राज्यसभा सदस्य रह चुके थे और अर्जुन सिंह विरोधी खेमे के नेताओं में माने जाते थे।

दैनिक जागरण समय बे-समय अर्जुन सिंह की ‘खबर’ लेता भी रहता था। दूसरे अर्जुन सिंह जी सतना में अपनी संसदीय राजनीति देख रहे थे, क्योंकि रीवा से महाराज मार्तण्ड सिंह कांग्रेस से लोकसभा लड़ते थे। अर्जुन सिंह ने सतना से पहला लिटमस टेस्ट किया भोपाली मियां अजीज कुरैशी को लड़ाकर। उन्हें बैरिस्टर गुलशेर अहमद को ठिकाने लगाकर अपनी जमीन तैयार करनी था। अजीज कुरैशी सतना पर्चा भरने आए और दुबारा लोकसभा के निर्वाचित प्रत्याशी का प्रमाण पत्र लेने। इसके अलावा उनका सतना से कोई वास्ता नहीं था। फिर अर्जुन सिंह ने यहीं से 1991 का लोकसभा चुनाव लड़ा।

1984 में जबलपुर विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की डिग्री लेकर ऊँचे ख्वाब पाले मैं मुँबई पहुंचा, वहां बैनेट कोलमैन जो टाइम्स आफ इंडिया समूह चलाता है, उसका प्रशिक्षु बनकर। उन दिनों किसी भी पत्रकार के लिए यह सर्वोच्च अवसर माना जाता था। लेकिन किस्मत कब कौनसी बिसात पलट दे कहा नहीं जा सकता। टाइम्स समूह में भीषण हड़ताल चली जो छह महीने जारी रही। मैं जबलपुर लौट आया। अगले महीने ही इंदिरा जी की हत्या हो गई। जबलपुर में सिख विरोधी हिंसा भड़क उठी और मेरा दोबारा मुंबई जाना अनंतकाल के लिए टल गया। इसी बीच अखबारों में देशबंधु के सतना संस्करण का इश्तहार देखा।

कुछ महीने जबलपुर में देशबंधु सांध्य संस्करण में काम करने के बाद सतना संस्करण से जुड़ गया। अर्जुन सिंह जी के राज्यपाल बन जाने के बाद चुरहट उपचुनाव को कवर करने मोर्चे पर लगा दिया गया। इस चुनाव में पहली बार अर्जुनसिंह के बेटे अजयसिंह ‘राहुल’ चुनाव जीते। इसके बाद मेरा मुख्यालय रीवा हो गया। अखबार भले ही सतना से छप रहा हो पर विंध्य का दिल तो रीवा में धड़कता था। सो यहां की पत्रकारिता शुरू हुई। अर्जुन सिंह से जुड़े हर राजनीतिक मसलों की रिपोर्टिंग का दायित्व तो था ही, कुछ दिन बाद स्थिति यह बनी कि उनसे मेरे सीधे संवाद होने लगे। वे लैंडलाइन पर सीधे फोन करते व यहां की राजनीतिक ब्रीफिंग प्राप्त करते।

इस बीच एक बड़ी घटना हुई। 21 सितंबर 1987 को टीआरएस कॉलेज के छात्रों पर भीषण लाठी चार्ज हुआ। छात्र फीस माफी को लेकर हड़ताल कर रहे थे। प्रशासन सुन नहीं रहा था। एक दिन सभी छात्र नेता मेरे पास आए और जुगत पूछी। मैंने मजाक में ही सुझा दिया कि मुख्यमंत्री समेत सभी मंत्रियों का गधा जुलूस निकालो पूरे देश में छा जाओगे। दूसरे दिन वोराजी समेत सभी मंत्रियों की नाम लिखी पट्टियां गधों के गले में डालकर जुलूस निकल पड़ा। किसी बैठक के सिलसिले में सर्किट हाउस में संभाग भर के कलेक्टर एसपी जुटे थे। बस फिर क्या..! रीवा के तत्कालीन कलेक्टर एचके मीणा (अब दिवंगत) व एसपी एसएच खान ने छात्रों को सबक सिखाने का हुक्म दिया।

उत्साही पुलिस वालों ने छात्रों को ही क्या छात्राओं, अध्यापकों सबको सबक सिखा दिया। छात्रों पर तड़ातड़ पड़ती लाठियां देखकर मुझसे भी नहीं रहा गया। मैं भी प्रतिकार करते नारे लगाते छात्रों के बीच घुस गया। आठ दस लाठियां मुझे भी पड़ी, बाँए हाथ में फ्रैक्चर हो गया। बस, लगे हाथ ‘एक पत्रकार पर हमला, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुचली गई’ जैसा मुद्दा भी उठ खड़ा हुआ। इस आंदोलन की गूंज पूरे देश में हुई। मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह समर्थक 36 विधायकों ने आंदोलन के समर्थन में हस्ताक्षरित पत्र लिखकर अपनी ही सरकार को आड़े हाथों लिया। वोराजी तक ब्रीफिंग पहुंची कि यह उनके खिलाफ एक अभियान है जिसमें एक पत्रकार (यानी मेरी) की सूत्रधार की भूमिका है।

अब यहां से वोराजी के व्यक्तित्व का वह स्वरूप जो उन्हें महान बनाता है, देखने को मिला। वोराजी ने मेरी शिकायत मालिक यानी मायाराम सुरजन या संपादक श्यामसुंदर शर्मा से करने के बजाय, सीधे मुझसे बात की।  मुझ पर पड़ी लाठियों के प्रति अफसोस व्यक्त किया और कहा कल ही रामकिशोर शुक्ल जी आपसे मिलने पहुँचेंगे। रामकिशोर जी वित्तमंत्री के साथ ही सरकार में दूसरे नंबर की हैसियत में थे। वे रीवा के प्रख्यात डाक्टर सीबी शुक्ल के साथ उनकी फिएट में मुझसे मिलने मेरे कमरे पर आए। शुक्ल जी से मैंने कहा- बाबूजी इसमें किसी का राजनीतिक टूल बनने जैसी बात ही नहीं, पत्रकारिता के कौतुक में यह सब कैसे हो गया मैं भी हतप्रभ हूँ। बहरहाल मुख्यमंत्री वोराजी ने दूसरे ही दिन जाँच के लिए न्यायिक आयोग गठित कर दिया।

संवेदनशील राजनेता का तमगा लिए भले ही कोई फिरे, पर वोराजी जैसा संवेदनशील मुख्यमंत्री मैंने आज तक नहीं देखा। एक बार वोराजी का बयान छपा कि मध्यप्रदेश में कोई भूखा प्यासा नहीं सोएगा..। दूसरे दिन ही गोविंदगढ के संवाददाता ने खबर भेजी कि एक बेसहारा आदमी भूख से मर गया। मैंने खुद वहां जाकर स्‍पॉट रिपोर्टिंग की और अखबार में शीर्षक दिया- “लेकिन मुख्यमंत्री जी फतेह मोहम्मद तो भूख से ही मरा।” खबर का तत्काल संज्ञान लिया गया। प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी को जाँच के लिए भेजा गया। तीसरे दिन ही हर पंचायत में पर्याप्त मात्रा में रिजर्व राशन भेजा गया ताकि ऐसी स्थिति में तत्काल राशन मुहैया कराया जा सके।

ऐसी कई घटनाएं हैं जब मुख्यमंत्री ने अखबार की खबरों पर सीधे संज्ञान लिया। वोराजी स्वयं कस्बाई संवाददाता रह चुके थे, इसलिए जमीनी हकीकत जानते थे। सन 1988 में वोराजी को केंद्र में भेजकर अर्जुन सिंह को दुबारा मुख्यमंत्री बनाया गया। उसके बाद प्रदेश में अर्जुन सिंह के खिलाफ जब सिंधिया के साथ उनकी मुहिम शुरू हुई तो पहला ठिकाना विंध्य ही बना।

तब तक वोराजी से संवाद शुरू हो चुके थे। अब मैं दो बड़े नेताओं अर्जुन सिंह के समानांतर वोराजी को भी यहां की पॉलिटिकल ब्रीफिंग देने लगा। इस ब्रीफिंग में रहता एक ही तथ्य था बस कहने का अंदाज अलग-अलग। मसलन वोराजी को बताया कि अर्जुन सिंह खेमे के कई विधायक मसलन गरुड़ मिश्र, वृंदा प्रसाद, कमलेश्वर द्विवेदी आदि आपसे जुड़ने को बेताब हैं। तो अर्जुन सिंह जी को ब्रीफ किया विंध्य से आपके इतने विधायक सटकने वाले हैं। वोराजी के राज में अखबारों का प्रभाव था और पत्रकारों का रसूख। बाद में ऊपर के तीनों नेता मंत्रिपरिषद के सदस्य बने।

आगे चलकर संवेदनहीनता ऐसी आई कि मैहर में रमेश तिवारी हत्याकांड के बाद हुए पुलिस गोलीकांड में सात लोग मारे गए। सड़क पर तड़पते/मरते हुए घायलों को मैंने देखा। पूरा पहला पन्ना जीवंत रिपोर्टिंग से भर दिया। सरकार ने चूँ से चाँ तक नहीं की। तब सूबे के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह थे।

वोराजी जीनियस नहीं कर्मठ थे। उनका कर्मठ व्यक्तित्व ही था जिसकी बदौलत उन पर सभी ने विश्वास किया। राजीव गांधी ने, नरसिंहराव ने और सोनिया जी के तो वे ताउम्र ओल्डगार्ड बने रहे। अपनेपन के साथ नाप तौलकर बोलना उनके व्यक्तित्व में था।अंतिम बार सांसद सुंदरलाल तिवारी जी के साथ दिल्ली में मिला था 2003 में। उन्हें सब कुछ याद था। मेरे ऊपर उनकी सरकार में पड़ी लाठियां भी और वह वाकया भी जिसमें मेरी अर्जी पर एक उम्रदराज दिव्यांग को समस्त नियमों को शिथिल करते हुए तत्काल सरकारी नियुक्ति दे दी गई थी। वोराजी जैसे नेता सदियों में जन्म लेते हैं, जो ‘जस की तस धर दीन्हीं चदरिया’ को चरितार्थ करते हुए इहलोक से प्रस्थान करते हैं।

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