अजय बोकिल
गांधी दर्शन की सबसे बड़ी खूबी और ताकत यह है कि वैचारिक द्वंद्व के बावजूद उसमें समन्वय का कोई न कोई प्रेरक और सर्वमान्य बिंदु न केवल खोजा जा सकता है बल्कि उस पर व्यापक अमल भी किया जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रखर राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी अपना प्रेरणा स्रोत मानते हैं और कई बार भाषणों में बापू और उनके विचारों का उल्लेख भी करते हैं। गांधी के प्रति उनकी यह निष्ठा केवल बापू के गुजराती होने से कहीं ज्यादा मानी जानी चाहिए। क्योंकि राजनीतिक, आर्थिक व अन्य कई मामलों में बापू के विचारों को लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन उनके स्वच्छता संदेश को पूरे देश में अपने ढंग से लागू करने का जो बीड़ा पीएम मोदी ने उठाया, वो बावजूद कुछ आलोचनाओं के अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। साथ ही इस बात गवाही भी कि पथ प्रदर्शक के रूप में गांधी हमारे साथ हमेशा रहेंगे।
महात्मा गांधी को समर्पित मोदी के इस ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की सफलता के सरकारी आंकड़ों पर विवाद हो सकता है, लेकिन इस मुहिम ने पूरे देश और समाज में स्वच्छता के पालन के गांधीजी के आग्रह को एक व्यापक जन चेतना में बदला है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। इसका सबसे बढि़या उदाहरण मप्र का इंदौर शहर है, जहां सफाई अब जनता की आदत में आ चुकी है। और भी कई नगरों में साफ-सफाई के प्रति पहले की तुलना में ज्यादा जागरूकता आई है। या यूं कहें कि देश गंदगी और अस्वच्छता से सौ फीसदी मुक्त भले न हुआ हो, लेकिन ‘गंदगी से आजादी’ के आंदोलन का स्वरूप उसने निश्चित ही ले लिया है।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सार्वजनिक भाषणों में कई बार महात्मा गांधी को याद किया है। इससे यह तो माना ही जा सकता है कि भौतिक रूप से सार्वजनिक स्वच्छता और निर्मलता को लेकर बापू ने जो सामाजिक अलख जगाई थी, मोदी ने उसे सरकारी अभियान से जोड़कर लोगों की आदत में ढालने की पुरजोर कोशिश की है और यह अभी जारी है। यह बात अलग है कि न केवल स्वच्छता, हम भारतीयों के निजी और सार्वजनिक जीवन के पैमाने भी अलग-अलग हैं। शायद इसीलिए हममें से ज्यादातर को घर के किचन में पोंछा लगाने के बाद घर के बाहर फैला कचरा बेचैन नहीं करता, क्योंकि वह हमारा काम नहीं है। बाहर गंदगी जमा हो तो हो, हमें उससे क्या?
गांधी दर्शन की विलक्षणता इसी में है क्योंकि वह जीवन के सूक्ष्म निरीक्षणों और अवलोकनों से उपजता है। हम भारतीयों में सार्वजनिक स्वच्छता के प्रति बेपरवाही को बापू ने बहुत पहले ही ताड़ लिया था। इसे बदलने के लिए गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए ही प्रयास शुरू कर दिए थे। गांधीवादी सुदर्शन अयंगर ने एक लेख में बताया था कि भारत लौटने के बाद गांधीजी ने गांव की स्वच्छता के संदर्भ में पहला सार्वजनिक भाषण 14 फरवरी 1916 में एक मिशनरी सम्मेलन में दिया था। उन्होंने कहा था- ‘देशी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा की सभी शाखाओं में जो निर्देश दिए गए हैं, मैं स्पष्ट कहूंगा कि उन्हें आश्चर्यजनक रूप से समूह कहा जा सकता है,… गांव की स्वच्छता के सवाल को बहुत पहले हल कर लिया जाना चाहिए था।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-13, पृष्ठ 222)।
यही नहीं गांधीजी ने उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में स्वच्छता को तुरंत शामिल करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया था। 19 नवंबर 1925 के यंग इंडिया के एक अंक में गांधीजी ने भारत में स्वच्छता के बारे में अपने विचार लिखे। उन्होंने लिखा, ‘देश के अपने भ्रमण के दौरान मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ गंदगी को देखकर हुई… इस संबंध में अपने आप से समझौता करना मेरी मजबूरी है’ (गांधी वाङ्मय, भाग-28, पृष्ठ 461)। गांधीजी ने धार्मिक स्थलों खासकर मंदिर परिसरों में व्याप्त रहने वाली गंदगी और उसे खत्म करने, जरूरी साफ-सफाई के प्रति उदासीनता की ओर भी देश का ध्यान आकर्षित किया है।
दुर्भाग्य से आज भी इस स्थिति में बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। अभी भी कई मंदिरों में लोग नारियल, पूजन सामग्री, हार फूल, प्रसाद के खाली डिब्बे आदि चाहे जहां फेंक देते हैं। अस्वच्छता एक बड़ा उदाहरण हमारे श्मशान घाट भी हैं। मुर्दे को अग्नि देने के बाद अंतिम संस्कार के लिए उपयोग में लाई गई तमाम सामग्री जैसे बांस, घी का पात्र, हार फूल तथा मृतक के शरीर से उतारे वस्त्र लोग बेझिझक चिता के आसपास फेंक कर चल देते हैं। मानकर कि कोई दूसरा आएगा सफाई करने। हमारा काम केवल मृत देह को अग्नि देने और पंचलकड़ी तक ही सीमित है।
यह कहना गैर जरूरी है कि स्वच्छता के प्रति यह लापरवाही किसी एक अभियान से पूरी तरह बदलने वाली नहीं है। बापू भी इस बुरी आदत को खत्म करने का प्रयास जीवन के अंतिम क्षण तक करते रहे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इस बात का श्रेय तो दिया ही जाना चाहिए कि स्वच्छता का यह दुर्लक्षित मुद्दा वो चर्चा के केन्द्र में लाए। वरना कौन राजनेता शौचालयों की बात अपने भाषणों में करना पसंद करेगा ? इसी तरह खुले में शौच तथा महिलाओं के लिए टॉयलेट के टोटे जैसी गंभीर लेकिन उपेक्षित समस्या की ओर भी उन्होंने न सिर्फ ध्यान खींचा बल्कि इसके समाधान की मुहिम चलाई।
इसी बीच गुरुवार को केन्द्रीय आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय ने आंकड़े जारी बताया कि स्वच्छ भारत अभियान के तहत देश के 4 हजार 327 नगर निकाय ‘खुले में शौचमुक्त’ (ओडीएफ) घोषित किए गए हैं। मंत्रालय के अनुसार यह घरों में 66 लाख से अधिक व्यक्तिगत शौचालयों तथा 6 लाख से अधिक सार्वजनिक व सामुदायिक शौचालयों के निर्माण की वजह से संभव हुआ है।
इन सरकारी आंकड़ों से यह निष्कर्ष तो निकलता है कि सार्वजनिक सफाई के प्रति लोगों में पहले की तुलना में ज्यादा जागरूकता आई है। इसका बड़ा श्रेय केन्द्र सरकार द्वारा चलाए जाने वाले स्वच्छ सर्वेक्षण को भी जाता है, जिसमें देश के शहरों में खुद को ज्यादा से ज्यादा स्वच्छ दिखाने की सकारात्मक प्रतिस्पर्द्धा छिड़ी दिखती है। इंदौर जैसे शहर ने दिखा दिया है कि स्वच्छता को एक सामूहिक आदत में कैसे बदला जा सकता है। यकीनन आज बापू जीवित होते तो वो इंदौर को देश की ‘स्वच्छता राजधानी’ घोषित करने में संकोच नहीं करते।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अपने सामान्य जीवन में स्वच्छता के प्रति हमारे सामाजिक दुर्लक्ष्य को महसूस किया होगा और देश के शीर्ष पद पर काबिज होने के बाद उसमें सुधार की व्यापक कोशिशें शुरू कीं। ध्यान रहे कि देश में 2 अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत की गई थी। (हालांकि देश में ग्रामीण स्वच्छता और निर्मल भारत अभियान पहले से चल रहे थे)। इसकी पूर्णाहुति पिछले साल 2 अक्टूबर को महात्मा गांधी के जन्म की 150 वीं जयंती पर हुई। और पिछले साल से ही इस अभियान का दूसरा चरण शुरू हो चुका है। वैसे भी अस्वच्छता ऐसी समस्या है, जिसका निरंतर निदान ही रामबाण उपाय है।
यहां मूल मुददा बापू के विचारों की प्रासंगिकता और अनिवार्यता का है। महात्मा गांधी के बहुत से राजनीतिक और आर्थिक विचारों को लेकर मत-मतांतर रहा है और आगे भी रहेगा। लेकिन गांधी के विचारों की महानता, उनकी पवित्रता उनके जमीन से जुड़े होने में है। उनके सामाजिक चिंतन को लेकर एक मूलभूत सर्वसम्मति है, इसमें दो राय नहीं हो सकती। शायद इसीलिए बापू के राम राज्य की शुरुआत खुद झाड़ू हाथ में लेकर हर तरह की गंदगी को बुहारने से शुरू होती है (इसमें महज फोटो छपवाने के लिए उठाई गई झाड़ू को शामिल न करें)।
गांधी सार्वजनिक जीवन में भौतिक शुचिता के साथ-साथ नैतिक शुचिता की बात भी करते हैं। जिसमें अपनी झाड़ू से कचरा बुहारने के साथ अपने आत्म की सफाई और सत्यनिष्ठा भी शामिल है। हमने भौतिक सफाई का एक मुकाम पा लिया है, अब नैतिक शुचिता का भी कोई प्रामाणिक अभियान चले तो बापू की यह इच्छा भी पूरी हो। लेकिन क्या ऐसा होगा और कौन इसका बीड़ा उठाएगा, इसका उत्तर आसान नहीं है। फिर भी संकल्प तो लिया ही जा सकता है।