अजय बोकिल
कोरोना ने सरकारों और राजनीतिक दलों को देश में प्रवासी मजदूरों का मानवीय के साथ-साथ सियासी महत्व भी समझा दिया है। वरना लाखों की तादाद में खामोशी के साथ हर साल इधर से उधर होने वाली इस ‘चलित श्रम शक्ति’ को कोई भी खास तवज्जो नहीं देता था। मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान द्वारा राज्य में ‘प्रवासी मजदूर आयोग’ के गठन की महत्वपूर्ण घोषणा इसी कोरोना त्रासदीजनित संवेदना का नतीजा है।
शिवराज ने कहा कि अब हर प्रवासी मजदूर का कार्य के लिए बाहर राज्य जाने से पहले जिलाधिकारी के पास पंजीकरण कराया जाएगा, जिससे वह जहाँ भी जाए, उसका ध्यान रखा जा सके। इसके पीछे यही संदेश देने का आशय है कि मप्र का मजदूर देश में कहीं भी जाए, कहीं भी रहे, राज्य सरकार उसके पीछे खड़ी है।
हालांकि इस मामले में बाजी यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मार ली थी। मुमकिन है कि देश के अन्य भाजपाशासित राज्य भी ऐसा ही करें। क्योंकि एक बात साफ है कि अगले चुनावों में प्रवासी मजदूरों की दशा और उनका राजनीतिक रुझान सरकारों को बनाने-बिगाड़ने में अहम भूमिका अदा कर सकता है।
मध्यप्रदेश में भी इस आयोग के गठन की तत्परता के पीछे राज्य की 22 विधानसभा सीटों पर जल्द होने वाले उपचुनावों की खदबदाहट को महसूसा जा सकता है। लेकिन यह आयोग कितनी जल्दी आकार लेगा या फिर यह भी घोषणाओं के महासागर का एक नया तूफान साबित होगा, यह देखने की बात है। क्योंकि शिवराज सरकार तीन साल पहले प्रदेश में कारीगर आयोग के गठन की गजट अधिसूचना भी जारी कर चुकी थी, लेकिन आयोग आज तक नहीं बन सका।
नई परिस्थिति में सवाल यह भी उठेगा कि पुराने ‘कारीगर आयोग’ और प्रस्तावित ‘प्रवासी मजदूर आयोग’ में गुणात्मक अंतर क्या है? क्या ‘कारीगर’ और ‘प्रवासी मजदूर’ केवल शब्दों का हेरफेर है या फिर राजनीतिक तकाजों का भी ‘माइग्रेशन’ है?
बेशक यह बात अत्यंत दुखदायी और आत्मनिरीक्षण पर विवश करने वाली है कि आजादी के बाद से हमने प्रवासी मजदूरों के बारे में कभी गंभीरता से नहीं सोचा। मुमकिन है कि पहले काम की तलाश में मजदूरों का देशव्यापी स्थलांतरण इतना होता भी नहीं होगा। लेकिन आर्थिक उदारवाद, देश के कुछ क्षेत्रों में सघन औद्योगीकरण, रोजगार के नए अवसरों और अधिकांश राज्यों में स्थानीय स्तर पर काम न मिलने अथवा अपर्याप्त आमदनी के कारण मजदूरों ने देश के अन्य राज्यों का रूख किया।
इनमें कुशल मजदूर भी हैं और अकुशल भी। ये मजदूर भी मुख्य रूप से बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, झारखंड और राजस्थान जैसे हिंदी प्रदेशों के हैं। इनकी संख्या वास्तव में कितनी है, इसका अंदाजा किसी को नहीं है। लेकिन जिस तरह बीते दो माह में बिहार के लगभग 50 लाख, यूपी के 30 लाख और मप्र के 10 लाख मजदूर लॉक डाउन की मार का शिकार होकर घर लौटे हैं, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इनकी संख्या 10 करोड़ के आसपास तो है ही।
बावजूद इसके राजनीतिक दलों ने इनकी चिंता ज्यादा इसलिए नहीं की, क्योंकि इन प्रवासी मजदूरों की भूमिका बतौर वोटर ज्यादा नहीं होती। कारण यह कि अधिकतर ये मजदूर जहां के वोटर होते हैं, वहां मतदान के समय नहीं पहुंच पाते और जिस ‘परदेस’ में ये काम की वजह से रहते हैं, वहां इनके नाम अमूमन मतदाता सूची में नहीं होते। वैसे भी प्रवासी मजदूरों का कार्यस्थल वाले इलाके से कोई स्थानीय संपर्क न तो होता है और न ही होने दिया जाता है।
पिछले लोकसभा चुनाव में देश का अब तक का सर्वाधिक वोटिंग 67 फीसदी रहा। इसका मतलब ये कि देश के 33 फीसदी मतदातओं ने फिर भी वोट नहीं डाले या वे नहीं डाल सके। इनमें कुछ तो उच्चवर्गीय हो सकते हैं, कुछ यायावर जमातें भी हो सकती हैं, लेकिन बड़ी तादाद उन प्रवासी मजदूरों की भी हो सकती है, जो अपने कार्यस्थल से हजारों किमी दूर सिर्फ एक दिन की छुट्टी में वोट देने नहीं जा सके होंगे।
उदाहरण के लिए चेन्नई में काम रहे मप्र के चंदेरी के मजदूर को वोट डालने घर जाने के लिए भी कम से एक हफ्ते की छुट्टी लेनी पड़ेगी। फिर आने-जाने का खर्च और ऊपर से बाकी दिनों की मजदूरी कटेगी सो अलग। और सरकार किसी की भी बने, मजदूर की हालत पर क्या फर्क पड़ना है?
लेकिन अब ये लाखों मजदूर अपने घरों को लौट आए हैं या लौट रहे हैं। कोरोना की दहशत के चलते ये जल्दी अपने कार्यस्थलों को लौटेंगे, इसकी संभावना कम है। लौटे भी तो शायद कुछ पुरुष ही लौटें, लेकिन परिवारों को वो अभी ले जाएंगे, ऐसा नहीं लगता। इसका सीधा अर्थ यह है कि अपने राज्यों या क्षेत्रों में वो बतौर वोटर अहम भूमिका निभाएंगे।
प्रवासी मजदूरों की इस ‘स्थानीय राजनीतिक शक्ति’ को योगी आदित्यनाथ ने पहचान लिया। इसलिए मजबूरी में ही सही संवेदना के आवरण में एक वोट बैंक सहेजने की बोवनी शुरू हो चुकी है। यूपी में तो विधानसभा चुनाव दो साल बाद होने हैं, लेकिन मध्यप्रदेश में इस ‘हांडी के चावल’ की परीक्षा दो माह बाद ही उपचुनावों के रूप में हो सकती है।
लिहाजा प्रवासी मजदूरों के दुख-दर्द दूर करने के तमाम आश्वासन तथा राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक उपाय करने की कोशिशें लाजमी हैं। यूपी में मुख्यमंत्री योगी ने जो कहा उसके मुताबिक राज्य में ‘कामगार श्रमिक कल्याण आयोग’ बनेगा। ये आयोग प्रवासी मजदूरों की पहचान कर उनका पंजीकरण करेगा, उनकी सामाजिक सुरक्षा, बीमा, रोजगार तथा बेरोजगारी भत्ते की व्यवस्था भी यह आयोग करेगा।
मध्यप्रदेश में प्रस्तावित ‘मजदूर आयोग’ भी संभवत: इसी लाइन पर काम करेगा। इसका निश्चित स्वरूप क्या होगा, यह अभी सामने आना है। अगर मुख्यमंत्री शिवराज की घोषणा क्रियान्वित हुई तो यह राज्य का 21 वां आयोग होगा। वैसे किसानों, गरीबों और मजदूरों के प्रति शिवराजसिंह चौहान अपनी संवेदनाएं और सहानुभूति खुल कर व्यक्त करते रहे हैं।
मजदूर आयोग को भी इसी की परिणति मानना चाहिए। लेकिन इस घोषणा का हश्र भी उस कारीगर आयोग जैसा न हो, जिसकी अधिसूचना भी बाकायदा 29 जून 2017 को जारी हो गई थी। यह आयोग भी कमोबेश वही सब करने वाला था, जो प्रवासी मजदूर आयोग से अपेक्षित है। मसलन असंगठित क्षेत्र के कारीगरों के आर्थिक-सामाजिक उत्थान के लिए बनी योजनाओं का मूल्यांकन और क्रियान्वयन। साथ ही कारीगरों के हितों की सुरक्षा के लिए जरूरी अनुशंसाएं करना आदि।
एक बात और। जो आयोग बनने जा रहा है, उसमें प्रवासी मजदूर, कामगार, श्रमिक आदि कई समानार्थी शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है। यूपी के प्रस्तावित आयोग को ‘कामगार श्रमिक’ तो मप्र में ‘मजदूर आयोग’ कहा जा रहा है। इन सभी शब्दों का भाव बोध एक-सा है। लेकिन वर्तमान संदर्भों में ‘प्रवासी मजदूर’ शब्द में एक राजनीतिक कशिश दिखाई पड़ती है, जिसे कोरोना वायरस ने उजागर कर दिया है।
वरना ‘मजदूर’ या ‘श्रमिक’ कहीं का हो, कैसा भी हो, कुशल हो-अकुशल हो, होता मजदूर ही है। प्रोफेशनल दक्षता ही उसकी पगार तय करती है। मप्र सरकार द्वारा गठित किया जाने वाला मजदूर आयोग प्रवासी मजदूरों के हितों की रक्षा कैसे और कितनी कर पाएगा, यह देखने की बात है। इस संवेदनशील पहल में भी एक अघोषित खतरा निहित है और वो ये कि इस तरह के आयोग कहीं मजदूरों के उस ‘रोजगार प्रवास’ में अड़ंगे न बन जाएं, जो किसी भी मजदूर के बेहतर मेहनताने और काम पाने के अधिकार को बाधित करे।
क्योंकि यूपी के सीएम योगी ने जिस भाषा में बात की है उसके मुताबिक यूपी के मजदूरों को लेने से पहले किसी भी राज्य को उनकी सामाजिक सुरक्षा की गारंटी देनी होगी। यह बात सुनने में भले अच्छी लगे, लेकिन हकीकत से दूर लगती है। उलटे यह भी हो सकता है, नियम-कायदों के जाल में लिपटे सम्बन्धित राज्य के प्रवासी मजदूरों को दूसरे राज्य लेने से बिचकें।
अर्थात प्रवासी मजदूरों के हित में कायदे, योजनाएं बनें, लेकिन वह मेराथन धावक के आगे चलने वाली पायलट कार की तरह हों, न कि पीछे चलने वाली एम्बुलेंस की तरह। लाख दावों के बाद भी ज्यादातर हिंदी भाषी राज्य घर लौटे मजदूरों को ठोस और समाधानकारक रोजगार दे पाएंगे या नहीं यह यक्ष प्रश्न है।
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टीम मध्यमत