अजय बोकिल
कोरोना की मार से बेहाल देश की अर्थव्यवस्था में फिर से जान डालने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस 20 लाख करोड़ के महापैकेज का ऐलान करते हुए देश को ‘आत्मनिर्भर’ बनाने पर जोर दिया, उसकी अलग-अलग व्याख्या हो रही है। मोदी की आत्मनिर्भरता की बात को स्वदेशी के आईने में देखा गया तथा माना गया कि अब देश का सामान देश में ही बनाने और उसे खपाने का सही समय आ गया है।
आरएसएस से जुड़े संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने कहा कि यह देश में ‘आर्थिक राष्ट्रवाद’ का शंखनाद है। लेकिन इस संदर्भ में सबसे दिलचस्प और तीखा सवाल भाजपा की पुरानी मित्र और अब दुश्मन बनी शिवसेना ने किया। उसने पूछा कि अगर अब भारत को ‘आत्मनिर्भर’ बनाने की बात हो रही है तो क्या हम पहले आत्मनिर्भर नहीं थे? इस सवाल में कुछ शरारत भी है, लेकिन इसके कई कोण भी हैं, जिन पर गंभीरता से विचार जरूरी है।
खास बात यह है कि प्रधानमंत्री ने 12 मई को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में ‘आत्मनिर्भर’ शब्द का कई बार जिक्र किया, लेकिन उसमें ‘स्वदेशी’ शब्द का प्रयोग एक बार भी नहीं था। प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भरता के पांच ‘पिलर’ भी देश को बताए तथा अर्थकेंद्रित वैश्वीकरण बनाम मानव केंद्रित वैश्वीकरण की भी चर्चा की।
यकीनन भारत जैसे देश में 20 लाख करोड़ रुपए का राहत पैकेज बहुत बड़ा कदम है। इससे ये तो पता चलता है कि देश को कोरोना संकट से उबारने के लिए देर से सही, केन्द्र सरकार जागी तो है। साथ ही यह सवाल भी जुड़े हैं कि क्या वास्तव में यह पैकेज सरकार अपने बटुए से दे रही है या फिर यह आंकड़ों की बाजीगरी ज्यादा है? अगर सरकार यह जेब से दे रही है तो यह पैसा आखिर कहां से आ रहा है? क्या यह सरकार के पुराने राहत पैकेजों की ही नई पैकेजिंग है अथवा देश की औंधी पड़ी अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने के लिए सरकार पूरी ताकत से संजीवनी बूटी सुंघाना चाहती है?
पहले स्वदेशी की बात। यह बात काफी समय से उठ रही है कि स्थानीय जरूरतों के हिसाब से जरूरी वस्तुओं का उत्पादन भी स्थानीय स्तर पर हो। हमारे ही उद्यमी और कारीगर उनका निर्माण करें। उसमें देशी पूंजी ही लगे और स्थानीय बाजार तलाशे जाएं। पहले किसी हद तक ऐसा हो भी रहा था। हालांकि तब हमारी आर्थिक वृद्धि दर डेढ़-दो प्रतिशत ही हुआ करती थी।
तीन दशक पहले वैश्वीकरण के हल्ले में हमें भी अपने बाजार विकसित देशों के लिए खोलने पड़े। परिणामस्वरूप हमारे कई स्थानीय उद्योग और उत्पादन बैठ गए। भारी पूंजी, आधुनिक तकनीक और प्रचार की चकाचौंध के चलते छोटी-मोटी चीजों के लिए हम विदेशी वस्तुओं पर आश्रित होने लगे। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि हम ‘जैसा चलता है, चलने दो’ की मानसिकता से बाहर निकल कर खुली प्रतिस्पर्द्धा में उतरे। हमने भी दूसरे कुछ देशों में अपने बाजार कायम किए। जाहिर है कि यह काम दोतरफा होता है।
यहां सवाल यह है कि मोदी की आत्मनिर्भरता की व्याख्या जनता तक पहुंचते-पहुंचते स्वदेशी में कैसे बदल गई? दोनों में क्या अंतर्संबंध है? प्रधानमंत्री के भाषण में जिस ‘आत्मनिर्भरता’ की बात कही गई, उसकी आत्मा स्वदेशी को ही माना गया। क्योंकि जब तक उपभोक्ता वस्तुओं के लिए हम विदेशी उत्पादों पर निर्भर रहेंगे, तब स्वदेशी वस्तुओं को सहारा मिलना मुश्किल है। बाजार ही न होगा तो कोई स्वदेशी वस्तु बनाएगा क्यों?
जाहिर है कि यहां इस दृढ़ संकल्प की जरूरत है कि चाहे जो हो, मैं स्थानीय रूप से उत्पादित सामान ही खरीदूंगा। विदेशी सामान के लुभावने प्रचार में नहीं फंसूंगा। यहां दिक्कत यह है कि बहुत सी विदेशी कंपनियां अब अपने सामान भारत में ही बना रही हैं, जिनकी वजह से लाखों भारतीयों को रोजगार मिला है, उनके उत्पादों को आप ‘विदेशी’ कैसे मानेंगे?
फिर जिस स्तरीय गुणवत्ता और प्रतिस्पर्द्धी कीमतों के हम अब आदी हो चुके हैं, उनका विकल्प स्वदेशी में कैसे मिलेगा, यह भी सवाल है। यहां छोटे-मोटे आयटम्स में तो यह हो सकता है कि हम विदेशी और खासकर चीनी माल न खरीदें। बाकी का क्या? पीएम मोदी की घोषणा के अनुपालन में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ताबड़तोड़ तरीके से केन्द्रीय सुरक्षा बलों की कैंटीन में स्वदेशी वस्तुओं को बेचने के आदेश जारी कर दिए। यह अच्छा फैसला है। क्योंकि इन कैंटीनों से हर साल करीब 2800 करोड़ रुपए की ख़रीद की जाती है।
लेकिन यहां स्वदेशी से तात्पर्य केवल भारत में निर्मित उत्पाद हैं तो यह काम तो वहां पहले से ही रहा है। यहां तक कि कारें भी महिंद्रा की ही बिकती हैं। खादी ग्रामोद्योग के उत्पाद ये कैंटीन पहले से खरीद रहे हैं। एक समस्या और भी कि स्वदेशी के फेर में स्थानीय कारीगरों और देशी उद्यमियों के आर्थिक और व्यावसायिक हितों का टकराव कैसे रोका जाएगा?
अब बात 20 लाख करोड़ के महाराहत पैकेज की।
निश्चय ही इसे इस रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है कि भारत सरकार ने कोई जैकपॉट लुटा दिया है। जबकि खुद प्रधानमंत्री ने दबी जबान से कहा था कि इन 20 लाख करोड़ में कोरोना काल में पहले से घोषित अन्य पैकेज शामिल हैं। राजनीतिक वाहवाही से हटकर इसके अर्थशास्त्रीय विश्लेषण को समझें तो जो पैकेज दिया गया है, उसमे सरकारी खजाने से बहुत ज्यादा राशि खर्च नहीं होगी।
इस बारे में आर्थिक विशेषज्ञ और वरिष्ठ पत्रकार अंशुमान तिवारी का कहना है कि सरकार द्वारा घोषित पैकेज के दो भाग हैं। पहला है राजकोषीय (फिस्कल) तथा दूसरा है मौद्रिक (मॉनिटरी)। फिस्कल पैकेज सरकार अपनी जेब से देती है और मौद्रिक पैकेज रिजर्व बैंक या बैंकों के माध्यम से दिया जाता है। बीस लाख करोड़ के पैकेज में रिजर्व बैंक और बैंकों की तरफ से मिलने वाला करीब 11 लाख करोड़ रुपये का तो मौद्रिक पैकेज ही है। सरकार ने सिर्फ 1.7 लाख करोड़ रुपये का फिस्कल पैकेज दिया है, लेकिन वह भी पहले से बजट में तय था।
इसी तरह वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एमएसएमई, छोटे कारोबारियों और कर्मचारियों के लिए करीब 6 लाख करोड़ रुपए का जो पैकेज घोषित किया, उसमें भी मॉनिटरी हिस्सा ज्यादा है। यह पैसा बैंकों को ही देना है। तिवारी के मुताबिक सरकार ने कई ऐसी चीजों को भी राहत पैकेज बता दिया है, जिनका कोई खास मतलब नहीं है। जैसे कि कर्मचारी के पीएफ में कम कटौती इत्यादि।
सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम (एमएसएमई) को जो 3 लाख करोड़ रुपये की लोन गारंटी दी गई है, उसका अर्थ यही है कि अगर एमएसएमई लोन डिफाल्ट करते हैं तो उसकी भरपाई सरकार करेगी। लेकिन वर्तमान हालात में कितने एमएसमई लोन लेंगे, ले लेंगे तो ब्याज कैसे चुकाएंगे और बैंकें कितनों को लोन देंगी, यह देखने की बात है। हालांकि पैकेज में पॉवर सेक्टर को जो बेलआउट पैकेज दिया है, वह अच्छी बात है, लेकिन इसका अंतिम बोझ भी जनता पर ही आना है।
जहां तक आत्मनिर्भरता की बात है तो पीएम मोदी ने इसकी व्याख्या इस तरह की है कि यह आत्मनिर्भरता ना तो बहिष्करण है और ना ही अलगाववादी रवैया। हमारा आशय दुनिया से प्रतिस्पर्द्धा करते हुए अपनी दक्षता में सुधार कर दुनिया की मदद करना है। दरअसल आत्मकेन्द्रित होने और आत्मनिर्भर होने में बुनियादी फर्क है। ‘आत्मनिर्भरता’ एक व्यापक शब्द है। उसमें कई भाव और आग्रह निहित हैं।
‘आत्मनिर्भरता’ आत्मविश्वास के साथ-साथ नैतिक संयम और व्यावहारिक खरेपन की भी मांग करती है। बुलंदियों पर पहुंचने के लिए कठोर परिश्रम, ज्ञान की साधना और उत्कृष्टता का सम्मान अनिवार्य है। हमने जब-जब इन तत्वों को कचरा पेटी में डाला है, ‘आत्मनिर्भरता’ की डोर हमसे छूट गई है। मोदी के इस महापैकेज में ‘आत्मनिर्भरता’ का आग्रह कितना जेनुइन है, यह आने वाले वर्षों में पता चलेगा। फिलहाल इसे हम सही शुरुआत तो मान ही सकते हैं।
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टीम मध्यमत