विकास संवाद के सचिन जैन की यह पोस्ट दिल दहला देने वाली है। पता नहीं आप इसे देखने और पढ़ने की हिम्मत जुटा पाएंगे या नहीं। और यदि उसकी हिम्मत जुटा लें तो भी उससे ज्यादा जरूरी है, इस पोस्ट में उठाए गए मुद्दों के लिए लड़ना। उसकी हिम्मत जुटाने में शायद आपको बहुत बहुत मशक्कत करना पड़ेगी।– संपादक
ये प्रियांशी है – भारत की नवजात नागरिक
सचिन जैन
(बहुत सोच विचार के बाद ये पोस्ट लिखी है। यह चित्र भी सामने नहीं लाना चाहता था, किन्तु फिर भी किया। यदि आपको लगता है कि इसे हटा देना चाहिए, तो बताइयेगा। मैं भी हटा देना चाहूंगा।)
प्रियांशी के बारे में लिखा जाना चाहिए ताकि हमारे समाज के सच अलिखित न रह जाएँ, यदि प्रियांशी के बारे में नहीं लिखा जाएगा तो इतिहास में यह झूठ लिख दिया जाएगा कि हमारी व्यवस्थाएं बहुत मानवीय और जिम्मेदार थीं। 21 मई 2020 को इसका जन्म हुआ। तीन हफ्तों के जीवन में इसने हर तरह की उपेक्षा जी ली।
कोविड 19 की महामारी में बहुत और जरूरी काम छिपा दिए गए। व्यवस्था पूरी तरह से बेपरवाह हो गयी। आज प्रियांशी का जीवन कोविड के कारण संकट में नहीं है। उसका जीवन उपेक्षा और लापरवाही के कारण संकट में है। इसका जन्म शिवजानकी की कोख से हुआ है। स्थान है अन्सरा गाँव, पंचायत छतैनी, विकासखंड- जवा और जिला रीवा।
जन्म से ही बहुत जटिल स्थिति में थी। देश में भी तालाबंदी थी, तो सुरक्षित मातृत्व का हक़ भी बाधित ही था। कागज़ में लिखा था कि संस्थागत प्रसव करवाएं जायेंगे, किन्तु गांवों में प्रसव घर पर ही हो रहे थे। प्रियांशी भी घर पर ही जन्मी। अपन बहुत बात करते हैं, गरिमामय जीवन की। प्रियांशी तो एक नवजात शिशु है। उसकी माँ एक महिला भी हैं और एक इंसान भी। मैं सोचता हूँ कि हम कितनी बर्बरता का व्यवहार करते हैं महिलाओं और नवजात शिशुओं के साथ। प्रियांशी के लिए संविधान कहाँ है?
प्रियांशी की माँ को गर्भावस्था में एक बार पोषण आहार मिला था बस। अप्रैल और मई में तो एक बार भी नहीं मिला। आंगनवाड़ी बहन जी ने तो आज फोन पर कह भी दिया कि मैं प्रियांशी की मदद नहीं कर सकती। आपको जहां जाना है, वहाँ इसे ले जाओ। प्रियांशी का बड़ा भाई सवा साल का है, यानी परिवार प्रबंधन की बात भी इस परिवार तक नहीं पहुँच पाई। उल्लेखनीय है कि पहले बच्चे पर प्रधानमंत्री मातृ वन्दना योजना का आवेदन जमा हुआ था, किन्तु 20 महीनों में इसका लाभ नहीं मिला।
तालाबंदी के साए में घर पर ही जन्म होने के कारण इसकी न तो स्वास्थ्य जांच हुई, न ही जन्म के समय इसका वज़न लिया गया। बाकी चित्र देखकर आप इन्सानियत का वज़न माप सकते हैं। घर पर प्रसव होने के बाद भी सरकारी सेवा का कोई नुमाइंदा प्रियांशी या उसकी माँ की हालत देखने नहीं गया।
बच्ची की हालत खराब थी। वे इसका इलाज़ करवाना चाहते थे। उनका कोई अंधविश्वास भी नहीं था कि विद्वान संस्थाएं यह आरोप चिपकाएँ कि आदिवासी अन्धविश्वासी होता है। मां शिवजानकी और पिता मिथिलेश कोल इसका इलाज़ करवाना चाहते थे, लेकिन कोई साधन उपलब्ध नहीं था। तब इन्होंने रुपये 4000 जुटाए। एक निजी वाहन किया और 27 मई 2020 को रीवा के संजय गांधी अस्पताल ले गए।
वहां डाक्टरों ने कुछ जांच पड़ताल की और बताया कि प्रियांशी का खून खराब है। पूरा खून बदलना पडेगा। इसके लिए बहुत खर्चा लगेगा। तुम इसका इलाज़ नहीं करवा पाओगे, वापस घर चले जाओ। एक मायने में तो यही कहा गया कि प्रियांशी को मरने दो। वे वापस घर आ गए। प्रियांशी की हालत बिगडती जा रही थी।
मैं सोचता हूँ कि आखिर न्याय की परिभाषा क्या होती है? न्याय किसके लिए होता है? जब प्रियांशी अपनी माँ की कोख में थी, तब उसकी माँ हर रोज़ भूखी रहती थी। शिवजानकी को आंगनवाड़ी से पोषण आहार नहीं मिलता था। जब गर्भवती ही भूखी रही, तो प्रियांशी ने भी कोख में ही भूखे रहना सीख लिया। यह तो अन्याय हुआ न! न्याय का मतलब केवल अदालत, पुलिस जज साहब नहीं होता है। रोटी भी न्याय ही है। इस दौरान उसे टिटनेस के टीके जरूर लगे।
प्रियांशी का एक बड़ा भाई भी है। सवा साल का है। आप इस बात पर प्रियांशी के माता पिता को आरोपी बना सकते हैं। लेकिन एक बार यह भी जान लीजिये कि इनके साथ हमारे सेवा प्रदाता सामाजिक दूरी (कोविड वाली नहीं) के कारण उनके व्यवहार को बदल ही नहीं पाए। वो तो जाति का ही गुणा-भाग लगाते रहे। ऐसे में बताइयेगा कि क्या प्रियांशी को मृत्यु दंड मिलना चाहिए? या उसे ज़िंदा रहने का हक़ है!
अपना समाज बहुत धार्मिक समाज है। जब लोग मुहम्मद साहब, राम, महावीर, ईसा, गुरुदेव, देवी की आराधना करते होंगे, तब क्या प्रियांशी उनके सामने अवतरित नहीं होती होगी? यदि नहीं होती, तो फिर आराधना किसकी होती है?
हमारी सार्वजनिक यानी सरकारी स्वास्थ्य-पोषण व्यवस्था शिवजानकी से कितनी दूर है, इसका अंदाज़ इस बात से लग जाता है कि 17 अप्रैल 2019 को इनकी पहली संतान के जन्म पर प्रधानमन्त्री मातृत्व वंदना योजना का लाभ मिलना चाहिए था, जो अब तक यानी जून 2020 तक नहीं मिला। हो सकता है कि सरकार ने पूरी कोशिश की होगी कि लाभ मिले, पर पियूष (प्रियांशी का बड़ा भाई) के जन्म से एक साल से ज्यादा गुज़र जाने के बाद भी सरकार की इच्छा पूरी नहीं हो पायी।
अभी एम्बुलेंस शायद इसलिए भी नहीं मिल रही होगी क्योंकि सभी लोग कोविड के संकट से निपटने में लगे हैं। और अखबारों में आया है कि हमारी सरकार को 26 हज़ार करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान हुआ है। इसका असर तो प्रियांशी के ऊपर ही पड़ेगा न!
जब हम कोई सच सामने लाते हैं, तो सरकार तुरंत सक्रिय होती है और एक चेतावनी पत्र/नोटिस भेज देती है। उसकी मंशा प्रियांशी के जीवन में कम बल्कि प्रियांशी के जीवन के सच को सामने न आने देने में ज्यादा होती है।
सच तो यह है कि देश और समाज पर जितना बड़ा संकट आता है, उसका उतना ही बड़ा, गहरा और पहला असर बच्चों और गर्भवती महिलाओं पर ही पड़ता है। बच्चों का पोषण-स्वास्थ्य जांच आदि प्राथमिकता में नहीं रहते हैं।
गरीबी के जाल में फंसा कर रखे गए शिवजानकी और मिथिलेश कोल को हमारी सरकारी स्वास्थ्य सेवा से यह सुनने को मिलता है कि तुम इसका इलाज़ नहीं करवा सकते हो। क्या इसी व्यवहार की अपेक्षा संविधान की उद्देशिका में की गयी है। जिसमें कहा गया है- सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक न्याय! प्रियांशी के मातापिता ने वोट देकर क्या यही बात सुनने के लिए सरकार को चुना था?
प्रियांशी की हालत बिगड़ने लगी। उसके शरीर से खून रिसने लगा। आज यानी 10 जून को हमारी टीम को प्रियांशी के बारे में पता चला। मैं सोचता हूँ कि इसमें भी तो देरी ही हुई। लेकिन जैसे ही पता चला हमारे साथी राम नरेश, रेनू, पुष्पेन्द्र और जय सुबह 5:30 बजे गाँव पहुंचे। प्रियांशी की स्थिति गंभीर थी, तो तत्काल सभी ने स्वास्थ्य सेवाओं से संपर्क करने की कोशिश की।
जितने भी फोन नंबर दीवारों पर, बैनरों में या वेबसाइट पर लिखे रहते हैं, सबको लगाया, पर किसी ने उत्तर नहीं दिया। क्या इन नंबरों का दूसरा मतलब यह है कि आपातकाल में या बच्चों के मामले में इनसे संपर्क नहीं हो सकेगा! स्थानीय से लेकर जिले तक के स्वास्थ्य महकमे से संपर्क साधने की कोशिश हुई। हर कोशिश असफल रही। प्रियांशी की स्थिति को देखते हुए रामनरेश ने आसपास से वाहन की व्यवस्था की ताकि उसे जवा के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाया जा सके।
इस दौरान हमारी टीम ने राज्य स्तर पर प्रमुख सचिव, स्वास्थ्य फैज़ अहमद किदवई से संवाद किया। उन्होंने तत्काल पहल की और तब जाकर सेवा प्रदाताओं ने बात करना शुरू किया। क्या इसका मतलब है कि ऐसे हज़ारों मामलों में बच्चों की जान बचाने के लिए राज्य सरकार के राज्य अफसरों के पास जाना होगा? वह भी इसलिए ताकि एम्बुलेंस मिल सके और सरकारी डाक्टर संवेदना के साथ प्रियांशी जैसे बच्चों का इलाज़ कर दे। उसका जीवन बचा ले। यही कारण है कि मध्यप्रदेश में शिशु मृत्यु दर देश में सबसे अधिक है।
एक अधिकारी की पहल पर उसे सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र से जिले के लिए रेफर कर दिया जाता है। जहाँ एक स्वास्थ्य सेवा प्रदाता शिवजानकी की उम्मीद बढ़ाने के बजाये यह कहती हैं कि ये जिन्दा नहीं बचेगी! इसका मतलब क्या है? क्या हम स्वास्थ्य सेवाओं से मानवीयता और जिम्मेदारी की अपेक्षा नहीं कर सकते हैं?
वह दिन कब आएगा, जब हमारे स्वास्थ्य केंद्र जाते समय शिवजानकी-मिथिलेश कोल सरीखे लोग डर से नहीं, उम्मीद से भरे होंगे। क्या ऐसा कोई रास्ता है, जो हमारी व्यवस्था में बंधुता का भाव ला सके? मैं सोचता हूँ कि बंधुता और समानुभूति का भाव लाये बिना कोई भी डाक्टर या आंगनवाड़ी कार्यकर्ता कैसे प्रियांशी को अपनी बांह में ले सकते हैं? कैसे ये कह देते हैं कि प्रियांशी जिन्दा नहीं बचेगी?
कब हम यह सुनिश्चित कर पायेंगे कि हमारी व्यवस्थाएं झूठे विज्ञापनों के पीछे प्रियांशी के दर्द को छिपाने की कोशिश बंद कर देंगी? कब ऐसा होगा कि हमारा सभ्य राज्य यह कहेगा कि जब तक एक भी बच्चा कुपोषित और भूखा है, तब तक हम अपने सफल होने का बखान नहीं करेंगे?
तालाबंदी ने इस परिवार की हालत और खराब कर दी है। मिथिलेश के नाम पर मनरेगा का जॉबकार्ड भी नहीं है। दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, सो वह भी आजकल बंद है। इन्हें पता ही नहीं है कि जब तक पंजीयन नहीं करवाएंगे, तब तक लाभ न मिलेगा। सवाल यह है कि मिथिलेश के पास सरकार को पहुंचना चाहिए या मिथिलेश को ऐसी व्यवस्था के पास जाते रहना चाहिए, जिसका तंत्र-तानाबाना किसी को समझ नहीं आता है।
एक आकलन से पता चलता है कि मिथिलेश को इतने पंजीयन करवाने होंगे- मजदूर सहायता, संनिर्माण श्रमिक, समग्र, आधार, मनरेगा, आंगनवाड़ी, जाति प्रमाण… आदि। क्या अपनी व्यवस्था में मिथिलेश की स्थिति के मुताबिक प्रक्रिया तय नहीं हो सकती है? चलिए जांच करते हैं, चलिए एक रिपोर्ट बनाते हैं। चलिए सच कहने वालों को दबाते हैं…
हम लेकिन कहते रहेंगे। हम लड़ते रहेंगे।
प्रियांशी… तुम जियोगी!
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टीम मध्यमत