रवीन्द्र व्यास
बुंदेलखंड में ऐसी कई परम्पराएं और लोक साहित्य है जो यहाँ की अपनी एक अलग पहचान बनाता है। पर काल के गर्त में धीरे-धीरे ये परम्पराएं समाप्त होती जा रही हैं। अच्छी बात ये भी है कि इन लोक परम्पराओं को बचाने और जीवन्त बनाये रखने के लिए कई लोग और संगठन कार्य भी कर रहे हैं। ऐसी ही एक परम्परा है दिवारी गीत और मौनिया नृत्य। चरवाही संस्कृति के प्रतीक, मौनिया नृत्य के नर्तक मौन धारण कर यह नृत्य करते हैं। ये काल की गति है कि जिस गोवंश के लिए यह नृत्य होता है उस गोवंश से अब लोगों का नाता टूटता जा रहा है।
वैसे तो बुंदेलखंड में हर काल खंड के अपने अपने अलग अलग लोक गीत और लोक नृत्य हैं, जो इस अंचल की जीवंतता और लोक मनोरंजन के साधन हुआ करते थे, इनमें सबसे ख़ास बात यही रहती थी कि इनके माध्यमों से समाज में एक सन्देश देने का भी प्रयास होता था। ऐसा ही एक नृत्य है दिवारी जिसे मौनिया नृत्य भी कहते हैं। दीपावली के समय होने वाले इस लोक नृत्य की लयबद्धता देखते ही बनती है। इस मौनिया नृत्य में एक गाने वाला रहता है, जो लोक गीत के पद गाता है लोकवाद्य, ढोलक और नगड़िया की थाप पर दल के बाकी सदस्य मौन रहकर हाथ में लाठी और मोर पंख लिए नाचते थिरकते हैं। उनके नाचने और थिरकने में गो वंश की अनुभूति सहज ही हो जाती है।
दिवाली के दूसरे दिन जहां इनके ये दल हर गली और नुक्कड़ पर दिख जाते थे, अब सीमित होते जा रहे हैं। दिवारी गीत मूलतः चारागाही संस्कृति के गीत हैं, यही कारण है कि इन गीतों में जीवन का यथार्थ मिलता है। फिर चाहे वह सामाजिकता हो या धार्मिकता, अथवा श्रृंगार या जीवन का दर्शन। ये वे गीत हैं जिनमें सिर्फ जीवन की वास्तविकता के रंग हैं, बनावटी दुनिया से दूर, सिर्फ चारागाही संस्कृति का प्रतिबिम्ब। अधिकाँश गीत नीति और दर्शन के हैं। ओज से परिपूर्ण इन गीतों में विविध रसों की अभिव्यक्ति मिलती है।
काल खंड
दिवारी गीत दिवाली के दूसरे दिन उस समय गाये जाते हैं जब मौनिया मौन व्रत रख कर गाँव-गाँव में घूमते हैं। दीपावली के पूजन के बाद मध्य रात्रि में मौनिया-व्रत शुरू हो जाता है। गाँव के अहीर-गडरिया और पशु पालक तालाब, नदी में नहा कर, सज-धज कर मौन व्रत लेते हैं। इसी कारण इन्हें मौनिया भी कहा जाता है। इनके साथ चलते हैं गायक और वादक। वादक अपने साथ ढोल, नगड़िया और मंजीरा रखते हैं, तो कहीं-कहीं मृदंग और रमतूलों का भी उपयोग होता है। गायक जब छंद गीत का स्वर छेड़ता है तो वादक उसी अनुसार वाद्य यंत्र का उपयोग करता है। मौनिया कौड़ियों से गुंथे लाल, पीले रंग के जांघिये और लाल पीले रंग की कुर्ती या सलूका अथवा बनियान पहनते हैं, जिस पर झूमर लगी होती है। पाँव में घुंघरू, हाथों में मोर पंख अथवा चाचर के दो डंडे का शस्त्र लेकर जब वे चलते हैं तो एक अलग ही अहसास होता है। मौनियों के इस निराले रूप और उनके गायन और नृत्य को देखने खजुराहो में विदेशी भी ठहर जाते हैं।
इतिहास
दिवारी गीतों का चलन कब शुरू हुआ इसको लेकर अलग अलग मान्यताएं हैं। कुछ कहते हैं कि दिवारी गीतों का चलन 10वी सदी में हुआ। तो कुछ का मानना है की द्वापर में कालिया के मर्दन के बाद ग्वालों ने श्रीकृष्ण का असली रूप देख लिया था। श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता का ज्ञान भी दिया था। गो पालकों को दिया गया ज्ञान वास्तव में गाय की सेवा के साथ शरीर को मजबूत करना था। श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया कि इस लोक व उस लोक को तारने वाली गाय माता की सेवा से न केवल दुख दूर होते हैं बल्कि आर्थिक समृद्धि का आधार भी यही है।
इसमें गाय को 13 वर्ष तक मौन चराने की परंपरा है। आज भी यादव (अहीर) और पाल (गड़रिया) जाति के लोग गाय को न सिर्फ मौन चराने का काम करते हैं। गांव के रामलाल यादव का कहना है कि भगवान कृष्ण गोकुल में गोपिकाओं के साथ दीवारी नृत्य कर रहे थे, गोकुलवासी भगवान इंद्र की पूजा करना भूल गए तो नाराज होकर इंद्र ने वहां जबर्दस्त बारिश की, जिससे वहां बाढ़ की स्थिति बन गई। भगवान कृष्ण ने अपनी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठाकर गोकुल की रक्षा की, तभी से गोवर्धन पूजा और दिवारी नृत्य की परम्परा चली आ रही है।
पर अब यह परम्परा अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है। छतरपुर के रामजी यादव कहते हैं कि अब गाँव ही सिमट रहे हैं। गो पालन अब घटता जा रहा है, इससे अब गाय चराने वाले भी सीमित होते जा रहे हैं। जिसका परिणाम है कि अब पहले की तरह ये दल नहीं दिखते हैं। हालांकि बुंदेलखंड के लोग इस परम्परा को जीवित बनाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। इस आयोजन के कई तरह के अब समारोह भी होने लगे हैं, इसी तरह का एक आयोजन बुंदेलखंड के चरखारी में होता है।
क्या है मौनिया नृत्य
कार्तिक मास की अमावस्या के दूसरे दिन परमा से 15 दिनों तक यह मौनिया गाँव गाँव और धार्मिक स्थलों तक पहुँचते हैं। पूर्णिमा को इसका समापन होता है। लोक संस्कृति के जानकार डॉ. केएल पटेल बताते हैं मौन साधना के पीछे सबसे मुख्य कारण पशुओं को होने वाली पीड़ा को समझना है। वे बताते हैं कि जिस तरह किसान खेती के दौरान बैलों के साथ व्यवहार करता है, उसी प्रकार प्रतिपदा के दिन मौनिया भी मौन रहकर हाव-भाव प्रदर्शित करते हैं। वे प्यास लगने पर पानी जानवरों की तरह ही पीते हैं। पूरे दिन कुछ भी भोजन नहीं करते। वे कम से कम 7 से 12 गांव की परिक्रमा करते हैं।
प्रतिवर्ष की तरह इस बार भी दिवाली के दूसरे दिन बुंदेलखंड में मौनिया-नृत्य उत्सव परंपरागत तरीके से धूमधाम से मनाया गया।